रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 48

 

“निमंत्रण देकर बार-बार बुलाई हैं जी! तब क्या योजनाएँ बनाई हैं घूमने के लिए? कहाँ-कहाँ हमें ले जाएँगी?” राजीव ने मज़ाकिया लहजे में मेघना से पूछा।

“मुझे तो कुछ भी पता नहीं। अभी तक तो कहीं भी नहीं गई हूँ मैं!”

अकेले में राजीव ने रागिनी को चिढ़ाते हुए कहा, “तुम बहनें भी कितनी महान हो। बिना किसी जानकारी की तैयारी के बुला लेती हो।”

“आपके कहने का मतलब क्या है? लड़कों की बात अलग होती है। लड़कियाँ यहाँ-वहाँ-कहाँ भटकेंगी और जानकारियाँ एकत्रित करेंगी? सुरक्षागत दृष्टि से बाहर निकलने की आज़ादी नहीं है उन्हें! बचकानी बातें बंद कीजिए। जहाँ ले चलना है चुपचाप ले चलिए।” कठोर, आदेशात्मक भाव से रागिनी ने बचाव में पक्ष प्रस्तुत किया।

राजीव, “यानी कि दोनों बहनों ने मिल कर मुझे बली का बकरा बनाने की योजना बनाई है।”

और कोई विकल्प भी तो नहीं. विचार कर मुस्कुराती हुई, “बिलकुल सही!”

कुछ देर आराम करने के बाद थोड़ा बहुत अंदर कैम्प में ही घूम-टहल कर रह गए। अगले दिन की कुछ और योजना थी जिसे तय करना राजीव को ही था। “तो क्यों ना कन्याकुमारी चला जाए?” राजीव ने प्रस्ताव रखा।

मेघना छुट्टी की अर्ज़ी दे दी थी। साथ में तैयार हो कर निकल पड़ी। पर उसकी अनभिज्ञता के कारण बस की प्रतीक्षा साढ़े तीन-चार घंटे तक सड़क किनारे बस स्टैंड पर करनी पड़ रही थी। जिसका मतलब था कि उनके आने से पहले ही बस निकल चुकी थी। सुबह के आठ बजे से पौने बारह बजे तक खड़े-खड़े सबकी हालत पतली थी।

जिसमें सबसे नन्ही बच्ची करुणा भी ऊब चुकी थी। उसे कुछ न कुछ शरारत करने की आज़ादी चाहिए थी जो उस खुली सड़क किनारे सम्भव ही नहीं था। राजीव कुछ नहीं कर पाने की स्थिति में, रागिनी को घूरते हुए आँखें तरेरते हुए देख रहा था। अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए।

लगभग पौने बारह बजे तक इंतज़ार करते-करते बिलकुल पस्त हो जाने के बाद बस आई। राजीव और रागिनी ने राहत की सांँस ली। ऊपर-नीचे धूल, गर्द-गुबार सड़क किनारे ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों के कारण विचित्र घुटन अनुभव करती हुई सड़क मार्ग से कन्याकुमारी तक के सफ़र का चुनाव एक ग़लत निर्णय सिद्ध हो रहा था।

सचमुच रागिनी एक ख़ूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों वाली दुनिया की काल्पनिक छवि लिए हुए थी। पर ये क्या? ये तो पर्यटन के नाम पर प्राकृतिक दुनिया से पूरा खिलवाड़ किया जा चुका था। जिससे निराश रागिनी सचमुच दुःखी थी। पूरे सफ़र के दौरान चुपचाप किसी तरह सफ़र पूरा हो जाने की मौन प्रार्थना कर रही थी। सचमुच बेहद बेचैनियों भरा सफ़र रहा। पहुँचते हुए शाम हो गई। वह दिन तो पूरी तरह बर्बाद हो ही चुका था।

बावजूद सबके शाम को गाँधी स्मारक जाकर सूर्यास्त देखने के लिए चले गए। यहाँ पर अंतिम विसर्जन से पहले गाँधी जी का अस्थि-कलश रखा गया था इसलिए गाँधी स्मारक नाम पड़ा था। जहाँ पर गाँधी जी से संबंधित कई अन्य चीज़ों को भी रखा गया है।

होटल में खाना खा कर रात गुज़ारने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी नहीं था। अगले दिन सूर्योदय देखा जाएगा और आगे का विचार किया जाएगा।

कन्याकुमारी बचपन के किताबों की दुनिया में कितना आकर्षक रूप में उसे आकर्षित करता था। उसकी अति नज़दीकी सखी का गृहस्थी की शुरूआत मधुर यामिनी (हनीमून डेस्टिनेशन) रूप में कन्याकुमारी जाने का सपना सुनकर तो वह भी रोमांचित हुई थी कभी। सोचकर मुस्कुरा उठी रागिनी।

कितना विचित्र है न स्त्री जीवन? बचपन में सुरक्षा दृष्टि से, अपने पिता की व्यस्त दिनचर्या और छोटे-छोटे बच्चों के कारण, फिर पढ़ाई-लिखाई के कारण, कहीं तो वह निकल नहीं पाती थी। अपने पिता से किसी स्थान की यात्रा के बारे पूछती तो कहते, “ड्यूटी में जा चुका हूँ।” यह सुनकर खीझ अनुभव करती। माँ अपने मातृत्व के कारण बच्चों में लगी हुई रह गई। पर पिता, पुरुष रूप में अकेले ही सारी दुनिया घूम आए थे। ऐसा कुछ भी अपने साथ रागिनी नहीं होने देगी। दृढ़ संकल्प उभरा।

स्कूल में, कहीं अड़ोस-पड़ोस में, अन्य सखियों और लोगों से पर्यटन स्थलों की चर्चा-परिचर्चा पर रागिनी कितना आकर्षित होती थी। अब जाकर उसके सपने पूरे होंगे। बहुत-बहुत घूमने का शौक़ पूरा करेगी वह! विचार भी ग़ज़ब की दुनिया है जो कहीं से कहीं लेकर पहुँचा देता है।

सम्पूर्ण जोश और उत्साह भर कर ब्रह्ममुहूर्त में ही तैयार हो कर सूर्योदय के समय जल्दी-जल्दी समुद्र तट पर पहुँचने के बावजूद वही रंग में भंग बादल आकाश में छाए रहें। बावजूद किनारे बैठ कर अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर के मिलन स्थली का आकर्षक खेल का मज़ा लेने से कौन रोक सकता था भला?

ख़ैर पूरे दिन वहाँ के नज़दीकी जितने भी स्थान थें, घूमने का विचार कर, प्रारंभ हुआ कन्याकुमारी मंदिर से जो वहीं समुद्र तट के त्रिवेणी संगम से 500 मीटर की दूरी पर स्थित है।

जनश्रुतियों के अनुसार, शिव से विवाह के लिए कन्याकुमारी ने तपस्या की थी। जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। पर इसी बीच बाणासुर ने कुमारी के रूप-सौन्दर्य पर मोहित होकर विवाह प्रस्ताव कर दिया। कुमारी ने विवाह के लिए बाणासुर को युद्ध में जीतने की चुनौती दी। अन्ततः बाणासुर पराजित होकर मारा गया। और इस तरह विवाह के रंग में भंग होने पर सारी वस्तुएँ रेतों में परिवर्तित हो गईं।

बहुत ध्यान से रागिनी कन्याकुमारी के बालुका तट पर रंग-बिरंगे कणों को ढूँढ़ती रही। जिनके बारे में बचपन में बताया गया था कि देवी कुमारी और शिव के ब्याह की तैयारियांँ भंग होने के कारण बालुका तट में मिल गये थें। जो रंग-बिरंगे कणों में परिवर्तित हो गये थे।

उसके पश्चात, नौकायन द्वारा अगले दर्शन के लिए विवेकानंद-रॉक मेमोरियल है। यह जिस चट्टान पर स्थापित है, किंवदंतियों के अनुसार यहीं पर देवी कुमारी ने तपस्या की थी। कालांतर में यहीं पर विवेकानंद को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। जिनके स्मृति-चिन्ह रूप में 1970 में यह बनाया गया था। यह लक्षद्वीप के बाहर की दो चट्टानों में से एक पर है। जिस पर श्रीपाद मंडपम और विवेकानंद मंडपम बना है। जो एक छोटे से द्वीप पर बना है। हिंद महासागर की लहरों की अठखेलियों को घंटों करुणा और रागिनी मंत्रमुग्ध हो कर देखती रहीं। यहाँ के प्रत्येक पर्यटक के लिए यह स्थान अद्भुत-अविस्मरणीय-आध्यात्मिक महत्त्व रखता है।

उसके बग़ल में ही कुछ निर्माणाधीन था जिसके बारे में रागिनी समाचार पत्रों में पढ़ चुकी है कि यहाँ पर 38 फ़ीट के चबूतरे पर 95 फ़ीट ऊँची प्रस्तर प्रतिमा की स्थापना हो रही है। जो कुल मिलाकर 133 फ़ीट की होगी। सुप्रसिद्ध तमिल संतकवि तिरुवल्लुवर की प्रतिमा 1990 से ही निर्माण कार्य चल रहा है। देखा जाए, जाने कब तक पूरा होगा?

पुनः नाव से ही लौटते हुए वहाँ के बच्चों के लिए तैयार किए गए पार्क में करुणा खेलने में व्यस्त हो गई। समुद्र तट पर चारों तरफ़ बिखरे बाज़ारों की रौनक़ विचित्रता लिए हुए है। जिसके आकर्षण से कौन मुक्त हो सकता है भला? और भी देखने की आतुर-उत्सुकता को शान्त करते हुए राजीव ने मज़ाकिया अंदाज़ में व्यंग्य किया, “सब आज ही देख लोगी तो अगली बार क्या देखोगी? कुछ अगली बार के लिए भी रहने दो।”

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