रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 17घर में दो-दो नन्ही परियाँ सँभालते गृहस्वामिनी की हालत पतली थी ही, कहीं से किसी गोतिया का कोई रिश्तेदार भी ससुर जी पकड़ कर ले आए थे। अपना विस्तृत साम्राज्य प्रर्दशन-प्रियता के वशीभूत। कितने दिनों से जिसकी आवाभगत भी करनी पड़ रही थी।
वह अधेड़ उम्र का पुरुष कम; चुग़लख़ोर, आग लगावन स्त्री से ज़्यादा ख़तरनाक मंथरा की आत्मा लिए था। पक्का घर फोड़ कर तमाशा देखने की प्रवृत्ति वाला! जिसका बिल भी रागिनी की उपेक्षा रूप में फटता।
उस पर उसकी बातें बहू-विरोधी जब-तब सुनाई देती रहतीं। जिसकी हवा में सास-वृत्ति ख़ूब उफनती। इस बात-विचार से परे कि वो तो ग़ैर है। सास को बहू के विरुद्ध भड़का कर तो चला जाएगा। पर . . . सास-बहू के रिश्ते में जो दरार डाल रहा है; उसकी क्षतिपूर्ति कौन कर पाएगा? जिस दिन बहू तांडव करेगी कौन बचाएगा? कम से कम वो तो बिलकुल ही नहीं जो आज-अभी आग लगा रहा।
“सुना है दीदी! तुम्हारी बहू तो बहुत पढ़ी-लिखी है। पढ़ी-लिखी लड़कियों के तो बड़े नाज़-नखरे होते हैं।”
“अरे, मत पूछो! वो तो राज छोड़ कर गौरा भीख माँगने आई है। जब देखो, छींक मारते बीमार पड़ जाती है। हवा लगते बताशे की तरह गलने लगती है।”
“वह तुम्हारी सेवा क्या करेगी? उल्टे तुम्हारे बेटे और तुम सभी को ग़ुलाम, नौकर-नौकरानी बना कर रखेगी।”
“देख लो, दिन भर मैं और मेरी फूल जैसी बेटी अपने अनमोल बच्ची को छोड़कर, इनकी सेवा में सुबह-शाम लगे हुए हैं।”
“हो गयी तुम्हारी तो क़िस्मत ख़राब।”
“हाँ, भाई क़िस्मत ख़राब थी; तभी तो मेरा बेटा अपनी पसंद की लड़की ले आया। बस हम तो इस रिश्ते को ढो रहे हैं।”
“क्या दुनिया-संसार में लड़कियों की कमी थी? क्या ज़रूरत थी शहर की लड़की के चक्कर में पड़कर अपना भविष्य बिगाड़ने की?”
“बेटे का मुँह देखकर भैया!” सास रुआँसी होने लगी।
“तुम्हारी हालत देखकर तो मुझे दया आ रही दीदी! कहाँ से मिल गया ये रिश्ता तुम्हें? सारे गाँव-जवार में लड़कियों की कमी थी क्या? हमारे हिसाब से चलने वाली, घर-किसानी करने वाली एक से एक लड़कियाँ हैं।”
“क्या करूँ भैया, आज-कल के बच्चे थोड़ा पढ़-लिख क्या जाते हैं? माँ-बाप की बात मानते कहाँ है? कितने अरमान थे मेरे! सब अधूरे रह गये,” रोते हुए, नाक पोंछते हुए, तो कभी अपना सिर पिटते हुए उसने कहा।
“देखने में बेटा तो तुम्हारा बहुत ही शरीफ़ लग रहा। ऐसे कैसे अपनी पसंद की लड़की चुन ली?” उसने ऐसे बोला जैसे चेहरा देखकर चरित्र प्रमाण-पत्र देने वाला कोई निरीक्षक-अधिकारी हो। “ज़रूर वह लड़की ही चालू है। वही फँसा ली होगी सीधे-शरीफ़ बच्चे को।”
सामान्यतः जनमानस की सोच होती है। लड़का-लड़की गुप्त सम्बन्ध रखते हुए कुछ भी कर लें; शारीरिक सम्बन्ध और बच्चा, ऑबर्शन . . . जो भी हो; कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते हुए मार-काट मचा लो; यहाँ तक कि विवाहेत्तर सम्बन्ध भी रख लो तो भी बर्दाश्त हो जाता है। लेकिन शादी मात्र और मात्र, सामाजिक रीति-रिवाज़ों, माता-पिता की मर्ज़ी से ही होनी चाहिए।
यदि ईमानदार और सच्चरित्र लड़का–लड़की निष्पाप विवाह करें; एक-दूसरे के साथ रहना चाहें तो भी ये उनके चारित्रिक पतन का सूचक है। यथासंभव जिसकी चर्चा और स्वाद लेने से चूकना नहीं चाहते।
उस व्यक्ति की सारी बातें कुटिलता पूर्ण, चतुर खिलाड़ी सीबीआई अधिकारियों से भी ज़्यादा दक्षतापूर्ण अंदर की बात, बातों-बातों में निकालने में पूर्णतः सिद्ध-हस्त, सुनाई दे रहीं थीं। जिसकी वेगवती धारा में सासु माँ अनियंत्रित बही जा रही थीं उचित-अनुचित, सही-ग़लत की सीमा से परे। कुछ अपशब्दों के साथ भी।
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जिन्हें प्रकट करना रोचक तो होता, पर अशोभनीय रूप में।
फिर अंततः सब कुछ समेटते हुए बोली, “हाँ, भैया मेरा बेटा तो सचमुच बहुत ही शरीफ़ है। भोला है भोला! . . . लाखों में अनमोल हीरा है, हीरा! जाने कैसे इसके चंगुल में फँस गया!”
“समाज में तो तुम कहीं की नहीं रही दीदी!”
जिस लड़की की योग्यता, क्षमता, रूप-रंग देखकर पूरे समाज को ईर्ष्या थी कि ऐसी लड़की भला कैसे मिल गई उस परिवार को? सासु माँ की मनसा जानने के लिए ये उल्टी गंगा बहाकर अलग राग अलाप रहा था।
नाक छिड़कते हुए, उसके प्रभाव में बहती सासु माँ धारा प्रवाह बहकती चली गई, “हाँ भैया! मैं तो कहीं की नहीं रही। मायके-ससुराल हर जगह जग-हँसाई हुई मेरी! पूरे समाज में नीचा होना पड़ा है।”
बीमार, कमज़ोरी की स्थिति में जब अच्छी बात भी बुरी प्रतीत होती है, उसपर ये जली-कटी सुनकर और-और असहज बहू सुनकर सोच रही थी, “हाँ, माँ राजा भोज के यहाँ गंगू तेली की बेटी आ जाती तो भी उतना ज़्यादा नुक़्सान नहीं होता जितना कि आपका हुआ है।”
उस व्यक्ति के मनसा वाली एक-एक बात और माँ-बेटी के नौकरानी वाली अनुभव को भी, रागिनी ने राजीव को अवगत करा दिया। इसके साथ-साथ समझाते हुए कहा, “घर की शुद्धि-अशुद्धि के अतिरिक्त बेटी और अपनी सुरक्षात्मक ध्यान रखती हुई मैं प्रसूति-कक्ष से निकल कर ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती हूँ। पर घर में, माँ और बच्चे के देखभाल के अतिरिक्त अन्य घरेलू काम भी होते हैं इसलिए भी थोड़ा मुझे, राजीव आपकी विशेष सहायता चाहिए।”
जिन्हें देखते-समझते हुए राजीव ने रागिनी की पूर्ण ज़िम्मेदारियों को अपने भरोसे निभाने का आश्वासन दिया था कि अब से नियमित रूप में सबसे पहले पानी, अच्छी तरह उबाल कर उसके कमरे में रख देगा। और भी अन्य कामों के लिए वो अधिकांशतः अपने पति पर निर्भर रहेगी; ना कि अपनी सास-ननद पर। वह पूर्णतया जागरूकता से निर्वाह करने भी लगा।
कहीं, किसी कोने में रागिनी की दवाइयों की सूची जो अभी तक रखी हुई थी सुबह-सुबह जा कर दवाखाने से ले आया। दवा के अभाव में दो टाँके जो सूखते, अभी तक कच्चे रूप में थे जिनकी वजह से उठना-बैठना मुश्किल था। कच्चे ज़ख़्म की वजह से माँ और बच्चे दोनों को बुख़ार हो गया था।
बाहरी लोगों का घरेलू मामलों में हस्तक्षेप और उसके प्रभाव में अपनों का विचलन जिसे देखकर राजीव तनाव में पड़ गया था। मानसिक विचलन में जो दवा दूध में मिलाकर सेवन करानी थी वो यूँ ही पिला दी जिससे पेट में गर्मी पैदा हो गई और भी तबीयत बिगड़ी माँ-बच्चे दोनों की। लो इतनी समस्याएँ कम थीं जो और बढ़ा दिया उस एक ध्यान के भटकाव ने।
जल्दी डॉक्टर बुलाया गया और सारी बातें बताई गईं। फिर प्रतिरोधक रूप में दवा दी गई ताकि माँ-बच्चे के पेट की गर्मी शान्त हो सके। तब कुछ राहत मिली। तब तक रागिनी की कमज़ोरी और-और बढ़ गई थी।
स्वाभाविक था सास-ननद की शारीरिक और मानसिक तबाही का कारण दो बच्चों के नैपी कपड़े जिसमें श्वेता की बेटी भी जो हर आधे घण्टे में एक-दो कपड़े में लैट्रीन और सूसू करके रखती। गुज़रते फरवरी में तो गर्मी भी नहीं रहती। स्वेटर, चादर-कंबल का अलग झमेला था, तो कपड़े भी ख़ूब गंदे और गीले होते।
“माँ! एक तो बड़ी मुश्किल से ऑपरेशन करके बच्चा हुआ है। उनको तो ख़ुद देखभाल और व्यवस्था चाहिए। ऐसे में श्वेता को प्रसूति सँभालने के लिए बुलाना सही नहीं होगा।” दबे-धीमे स्वर में रागिनी ने कई बार विचार व्यक्त कर सास को कई बार समझाया था। पर अपनी दो-दो बहुओं के पल्ला झाड़ लेने के बाद, अपने पोते का जन्म सँभालने का पूरा श्रेय बेटी को देना था। भतीजा होने की ख़ुशी में साड़ी-कपड़ा, ज़ेवर-गहना जैसे अन्य औपचारिकताओं को भला वह अपनी बेटी के अतिरिक्त किसी अन्य से कैसे बाँट सकती थीं? यहाँ तक तो ठीक था किन्तु रागिनी का एक और सुझाव भी अनदेखा कर जाने वह क्या सिद्ध करना चाह रही थीं।
“बर्तन, झाड़ू-पोंछा के लिए कोई सहायिका या नौकरानी कुछ महीने के लिए रख लिया जाए ताकि बहुत हद तक आसानी रहेगी।” रागिनी के बार-बार के आग्रह प्रस्ताव को भी वह अस्वीकार कर चुकी थीं।
परिणामस्वरूप काम का दबाव और खीझ उनके कर्कश शब्दों में उलाहना बन कर ख़ूब फूटता। चार काम करने के बाद, चार बोली अपने खीझ भरे रागिनी पर उड़ेल सास तो निश्चिंत हो भूल जातीं। ननद भी माँ के बोल में सुर-ताल लगाती 'एक नीम पर करेला' चढ़ जातीं। मौक़ा देख ख़ूब ज़ुबानी चौके-छक्के मारती।
ये रागिनी के भरपूर तनाव के लिए पर्याप्त होते। हाँ, ये भी सच है कि उन शब्दों की कड़वी चोट आज भी रागिनी नहीं भूली-बिसरी है। जिनकी धुँध में अक़्सर अच्छी बातें धूमिल पड़ने लगती हैं। इस मामले में सास से तो नहीं लड़ सकती क्योंकि वह तो पराई है पर पति से आज भी लड़ाई उस एक विषय पर होती है।
अभी प्रसव के दो-तीन दिन भी नहीं बीते थे कि सेवारत सास और ननद थक चुकी थीं। राजीव की अनुपस्थिति में अपनी बात को दुहराती हुई बोली, “तुम दोनों माँ-बेटी के लिए हम दोनों माँ-बेटी नौकरानी रूप में कितना काम करेंगी? इसलिए अपना और अपनी बेटी के कपड़ों की साफ़-सफ़ाई कर लो महारानी!” सास ने फ़रमान सुनाया। बेटी के प्रसवोपरांत रक्त और गंदगी से घिन नहीं आई थी पर बहू जो बेटे की पसंद की है उससे बड़ी वितृष्णा उपज रही थी।
जिसे सुनकर, रागिनी जैसा सोच-समझ रही थी वही तो हुआ। हँसी भी आई, रोना भी आया। ये जानने के बावजूद कि प्रसूति और बच्चे के शारीरिक स्वास्थ्यगत दृष्टिकोण से कुछ दिनों तक पानी छूना घातक होता है पर स्थितियों-परिस्थितियों की गंभीरता और विकल्पों की अनुपलब्धता देख-समझ कर एक दीर्घ उच्छवास भर कर दृढ़-संकल्प के साथ रागिनी अपना और अपनी बेटी के कपड़ों को साफ़ करने लगी। जिसके लिए पानी भरकर रख दिया जाता। वह धीरे-धीरे किसी तरह कर लेती। एक दृढ़ निश्चय ठानते हुए कि अब इस जीवन में तुम दोनों माँ-बेटी से ना कोई सहायता लूँगी और ना ऐसी कोई नौबत आने दूँगी। यह घृणा! . . . यह अपमान! . . . यह परिणाम! . . . बस यहीं तक।
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