रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 45

 

उस चोर के बारे में राजीव और रागिनी ने बहुत सोच विचार किया। अन्ततः अक्षता-अक्षिता के उस भाई पर ही संदेह की सूई गई। 

सत्तरह-अट्ठारह वर्ष के किशोर की अपरिपक्व मानसिक अस्त-व्यस्तता सोच-समझ कर रागिनी ने उससे कभी भी बातचीत नहीं की थी। उसकी माँ के माध्यम से ही तो नकारात्मक जितना कुछ भी जानती थी। 

बहुत नपे-तुले शब्दों में उसकी माँ से कुछ सांकेतिक रूप में ही नये डीवीडी प्लेयर के कनेक्टर तार के घर से ग़ायब होने की बात कही। स्वाभाविक है कि करुणा के अस्पताल में भर्ती होने की बात से परिचित सभी थे। 

सुनकर अक्का एक-दो घण्टे की देरी में तलाशी लेकर अपने हाथ में वह तार लिए उपस्थित थी . . .। उनके व्यवहार और शब्दों के आधार पर अपने बेटे की करतूत पर उनकी आंँखों में शर्मिंदगी साफ़ ज़ाहिर हो रही थी। “वह नानी घर में कई दिनों से स्कूल नहीं जा रहा था तो उसके मामा ने यानी कि मेरे छोटे भाई ने बहुत डाँटा है। जिससे वह यहाँ चला आया है। पढ़ाई-लिखाई अनदेखा करके यहाँ भी दिन भर टीवी के सामने बैठा रहता है। जिसके कारण ऑफ़िस जाने से पहले मैंने ग़ुस्से में टीवी के डिश में से तार निकाल कर छिपा दिया था। ढूँढ़ने पर भी जब वह तार उसे नहीं मिला तो वह तुम्हारा ले लिया। बुद्धि देखो, कि मेरे आने के पहले ही छिपा कर रख देता था ताकि मुझे पता ना चल सके। बहनें समझ रही थी कि घर वाला तार ही ढूँढ़ कर वह टीवी देख रहा है। अभी से कहता है पढ़ाई नहीं करूँगा . . . ऑटो चलाऊँगा।” कहती हुई भावुक एक पराजित माँ चुप हो गई। मौन रागिनी चुपचाप लेकर वापस अंदर आ गई। 

रागिनी के शब्दों पर प्रतिक्रिया देते हुए क्षुब्ध राजीव ने व्यंग्य किया, “हे भगवान! इतना ज़्यादा टीवी का नशा? जिसके लिए वह लड़का इतना हिम्मत कर गया? तार की ज़रूरत थी तो बंद घर में से निकाल लिया . . . वैसे में रुपए-पैसे? . . .

“फिर कुछ! . . . फिर कुछ! आगे भविष्य में अड़ोस-पड़ोस के लोगों का . . . और आदत बिगाड़ो। दरवाज़ा-खिड़की नहीं तोड़ा। तुम्हारा लगाया गया ताला नहीं तोड़ा . . . यही बड़ी गनीमत है। बाद में जाने और क्या-क्या करेगा? . . . अच्छा सुनो; शारीरिक-मानसिक रूप से भी उससे सावधान रहना। अनियंत्रित किशोर अपराधी प्रवृत्ति ऐसे ही तो उभरती है। देखो! कितना निर्भय है। आगे-पीछे कुछ भी नहीं सोचा। जो मनमानी आया, कर गया। अकेली अपनी माँ का बेड़ा गर्क करने के लिए ये पैदा हुआ है।”

बहुत देर तक उसके बारे में, विस्मित रागिनी और राजीव सोचते रह गए। फिर उन्होंने इस विषय में कभी भी कोई चर्चा किसी से नहीं की। 

सैंकड़ों लड़के-लड़कियों को स्कूल आते-जाते देखकर करुणा ख़ूब आकर्षित होकर अपनी माँ को नियमित रूप से खींच कर ले जाती। “माँ! मुझे भी वहाँ जाना है। ले चलो ना कूल (स्कूल)। मैं कब जाऊँगी? बोलो ना माँ! मैं कब जाऊँगी? क्या मेरा भी डेस (ड्रेस) होगा? मेरा भी बैग होगा? और टिफीन! . . .। बोतल!” अनेकों सवाल करती। 

एक दिन रागिनी के साथ टहलकर लौटने के बाद करुणा, विशाखा के घर भाग गई। खेलते-खेलते उसकी माँ के कमरे में ड्रेसिंग टेबल पर बिखरी दवा की रंग-बिरंगी गोलियाँ! चॉकलेटी लालच पैदा कर रही थीं बस फिर क्या? एक-दो टैबलेट खाने के लिए फाड़ कर मुँह में डाली ही थी कि उसे ढूँढ़ती हुई पहले विशाखा की माँ और फिर रागिनी आ गई। बच्चे के मुँह में कुछ है महसूस कर ज़बरदस्ती मुँह खुलवा कर देखा गया। विशाखा की माँ, ब्लड प्रेशर की मरीज़, थर-थर काँपने लगी। “हे भगवान! इसे कुछ हो ना जाए?” वैसे माँ रूप में तो वह भी भयभीत सिहर उठी थी बावजूद आत्म-नियंत्रित रागिनी जल्दी से उसे कुल्ली और उल्टी करवाई। आज के इस कृत्य पर रागिनी मार-पीट तो बिलकुल नहीं की परन्तु कुछ कठोर निर्णय ले चुकी थी। 

अगले दिन समय पर बहुत ही सलीक़े से तैयार करके पौने तीन साल की बेटी को लेकर सबसे नज़दीकी स्कूल पहुँच गई। उच्च विद्यालय की प्रधानाध्यापिका, सरकारी नौकरी से रिटायर होने के बाद उस स्कूल की शाखा रूप में नन्हे बच्चों के लिए नर्सरी स्कूल संचालित कर रही थी। 

आधे-एक घण्टे बाद करुणा को अब जब स्कूल में बिठा कर रागिनी अकेली वापस आने लगी तो बेटी पीछे-पीछे दौड़ पड़ी। हाथ पकड़ती हुई, “कहाँ जा रही हो माँ? . . . तुम भी बैठो तब मैं यहाँ बैठूँगी . . . नहीं तो नहीं बैठूँगी . . . तुम कहीं मत जाओ।”

रागिनी के साथ वह सहज-स्वीकार्य अनुभव करती हुई शान्त थी। पर उसके बिना स्वीकार नहीं कर पा रही थी। करुणा के उम्र से कुछ थोड़े बड़े पैंतीस-चालीस बच्चे उस कक्षा में थे। जिनके लिए कई उपलब्ध साधनों-संसाधनों की व्यवस्था थी। इसी तरह ढाई-तीन घण्टे वहाँ बैठती और आ जाती। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है जैसी कहावत को चरितार्थ करते हुए करुणा के देखा-देखी अन्य बच्चों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगा था। वह भी रोने-धोने और अपनी माँ के लिए ज़िद करने लगे थे। एक दिन सख़्ती बरतते हुए शिक्षिका ने रागिनी को शीघ्र जाने के लिए कहा। जिसे सुनकर रागिनी चल दी और करुणा बेतहाशा रोने लगी। “मत जाओ माँ! . . . मुझे भी ले चलो . . . मैं भी जाऊँगी . . . मुझे नहीं पढ़ना है।”

“आप जाइए हम सँभाल लेंगे।” कहकर भेजने पर माँ वहाँ से अपना हृदय कठोर करके निकल गई। सचमुच घर लौटती हुई रागिनी की आँखें नम हो गई। वह ख़ुद में कितना कठोर अनुभव कर रही थी। जैसे पृथ्वी से चाँद दूर जा रहा हो। सचमुच बहुत ही मुश्किल क्षण था अपने चारों तरफ़ की परिक्रमा करती बेटी को ख़ुद से दूर करने जैसा अनुभव कर रही थी। 

दो घंटे बाद मोबाइल फोन बजा कि स्कूल से बोल रहे हैं। “बेटी बहुत रो रही है . . . आकर ले जाइए।” यह बहुत अच्छी बात थी कि दो सौ से ढाई सौ मीटर की दूरी पर स्थित स्कूल से बच्ची को लाना, ले जाना कोई बड़ी बात नहीं थी। झट से सारे काम छोड़ कर रागिनी बेटी को लाने दौड़ पड़ी। 

रोती हुई बेटी अपना सारा रूप-रंग बिगाड़ कर ग़ज़ब बिखरी-बिखरी सी रह गई थी। जिसकी हालत देखकर तरस आ जाए . . . ”हे भगवान! क्या हाल बना लिया है अपना?” गूँथे हुए बाल बिखरे हुए थे। साफ़-सुथरे कपड़े मैले-कुचैले में परिवर्तित हो चुके थे। कॉपियाँ, स्लेट-पेंसिल कहीं, किसी और-और के पास प्रसाद की तरह बँटे हुए, बिखरे पड़े थे। करुणा को घर जाने के लिए तैयार देख कर सभी एक-एक कर के जमा करने लगे। जैसे उधारी जमा हो रही हो। 

यह दृश्य देखकर सारी शिक्षिकाएँ एक स्वर में हँस पड़ी। करुणा माँ के साथ समय से बहुत पहले ही स्कूल से लौट आई। पर अब उसके सिर से कूल (स्कूल) का भूत उतर चुका था। अब वह तरह-तरह के बहानेबाज़ी में व्यस्त रहती। जैसे बाथरूम में पखाना के बहाने एक घंटे तक बैठी रहती। दरवाज़े पर खड़ी माँ पूछती, “हुआ।”

“नहीं।”

देर तक सोने की आदत पहले से ही थी। स्कूल जाने के समय में ही किसी के घर में घुसकर ग़ायब हो जाती। अब ढूँढ़ती रहो। 

एक नया तरीक़ा अब स्कूल में खोज लिया था लैट्रीन जाने का। एक मैडम, वैशाली मैडम जो अविवाहित थी, उनकी कक्षा में ही शौच लगने की बात कहती। वह तो चिढ़ कर फोन करके बुलाती कि बेटी को शौच कराना है। जल्दी आइए। कई बार तो संचालिका शिक्षिका से वह शिकायत भी दर्ज करती। 

“लापरवाह है इसकी माँ जो बेटी को पूरी तरह तैयार करा कर नहीं लाती है।” फिर एक दिन रागिनी से वैशाली मैडम की समस्या करुणा के प्रति व्यक्त की गई, “बेटी को स्कूल लाने के पहले शौच क्रिया से निवृत्त क्यों नहीं करातीं?” 

बेटी की मनमानी और स्कूल के प्रति अरुचिकर विद्रोह रूप में ये प्रतिक्रिया है। सुनकर संचालिका भी हँसने से ख़ुद को रोक नहीं पाईं। “कोई बात नहीं! जैसे, जब वह स्वेच्छा से आना चाहे, वैसे ही उसे लाइए। हमें कोई दिक़्क़त नहीं। अभी तो ये सबसे नन्ही बच्ची है।”

रोज़ाना स्कूल लाते, ले जाते करुणा की एक से एक कहानियाँ उसकी शिक्षिकाओं पास रागिनी के लिए अपनी नई रूप में मौजूद रहती। (हँसते हुए) कोई कहती, “बाप रे भाषा की पूरी समझ नहीं रहने के बावजूद ये इतना बोलती है। यहाँ की क्षेत्रीय भाषी होती तो जाने क्या कर देती? तुलू, मलयालम, कन्नड़, हिंदी, अंग्रेज़ी मिश्रित शब्दों में हमेशा सभी से बात करती रहती है। क्या खाकर ये बेटी पैदा की है आपने?” 
 

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