प्रतीक्षा
पाण्डेय सरितापिछले एक महीने से एकांत पाकर घर के झरोखे पर घोंसले के निर्माण में व्यस्त चिड़िया का जोड़ा परिवार का अभिन्न अंग बन गया था। मैं चुपके-चुपके चोरी-चोरी उनकी प्रत्येक गतिविधि को देखती और आनंदित होती। उनकी प्रत्येक हलचल मुझे भावविभोर कर जाती।
इधर एक सप्ताह से छठ के घरेलू-पारिवारिक ज़िम्मेदारियों में उलझी उस जोड़े के बारे में पूर्णतया उपेक्षित एवं अनदेखा रह गया। जाने कब छठ का गीत बजाने के लिए बजनेवाला बॉक्स उस झरोखे के नीचे रखकर बजाया गया।
एक बड़ी ऊँगली मात्र भर रहे होंगे। गौरैया तो नहीं हैं; पर उसी के जैसे हैं। क़द-काठी में गौरैया से भी नन्हे चिड़ा-चिड़ी की सुविधा-असुविधा का ध्यान ना तो मुझे और ना किसी को ही रहा।
पर्व बीतने और अन्य पारिवारिक सदस्यों के जाने के बाद अकस्मात् बैठे-बिठाए उस घोंसले का ध्यान आया जो सूना-सूना सा लगा।
साथ में आत्मग्लानि भर कर अपनी मानवीय भूल का भी अहसास हुआ। ये क्या कर गई मैं . . .! मानवीय उपस्थिति जनित हलचल और स्वर लहरियों के गुंजन में असहज पाकर चले गए होंगे।
अब पुन: एकांत पाकर संभवतः लौट आए वो! इसी प्रतीक्षा में मैं रही।
एक सप्ताह के दुख, पश्चाताप और संवेदनामय समयोपरांत थोड़ी हलचल सी मिली। वह जोड़ा घोंसले के आस-पास मँडरा रहा था। कुछ दिनों बाद नवजीवन का गीत-गुंजन वातावरण को स्पंदित कर मुझे कृतज्ञ भाव-विह्वल कर गया। सचमुच मेरी प्रतीक्षा पूर्ण हुई थी। अक़्सर घोंसले में चूज़े चहचहाते रहते हैं। अब मैं वहाँ गतिविधियों के मामले में सजग और सचेतन रहती हूँ।