रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 27
हैरान-परेशान रागिनी बार-बार ढूँढ़़ती।
आख़िर उससे ये ग़लती कैसे हो गई? समझ से परे था। ब्लाउज पीस के बारे में उसने राजीव से पूछा। वह लापरवाही में बोला, “अरे यार हो सकता है तुम सिर्फ़ साड़ी लाई होगी। वो कपड़ा उन्हीं के यहाँ होगा। अदृश्य होकर यहाँ से आख़िर जाएगा कहाँ?”
रागिनी ढूँढ़़ती-टटोलती गुंजन दीदी पास पहुँची। गुंजन दीदी ने स्पष्ट किया कि उसी साड़ी में वह ब्लाउज का कपड़ा था। रागिनी का ख़ून सूख चुका था। ऐसे कैसे हो गया? अपराधबोध में ग्रस्त अपने कमरे से लेकर गुंजन दीदी के घर तक के रास्ते में टॉर्च की रोशनी में ऐसे ढूँढ़़े ज्यों वह कोई छोटी सी सूई ढूँढ़ रही हो! आते-जाते पचासों बार टार्च की रोशनी में तलाशती रही।
बात राजीव के साथ-साथ बेटे को दूध देने आई सासु माँ तक पहुँच गई थी। अपनी सोच और समझ के सर्वोच्च शिखर तक बिना सोचे-समझे दोनों ने मिलकर भरपेट बहुत कुछ सुना दिया था। सासु माँ की जिह्वा पर उकसावे का अस्त्र-शस्त्र भरपूर मात्रा में लकड़ी और घी रहता ही है। जिस अधिकार का भरपूर प्रयोग करते हुए उसने बेटे को ख़ूब भड़काया। जो पति, आधे घण्टे पहले तक संसार का सबसे बड़ा शुभचिंतक होने का दावा करते हुए अपनी माँ से सावधान कर रहा था। सब भूल कर रागिनी के विपक्ष में अपनी माँ के साथ खड़ा था। पागलपन की हद तक रागिनी बार-बार परेशान होकर ढूँढ़़ती रही। करुणा के चालीस-पचास नैपी वाले कपड़े, गेंदरी हटाती। कंबल चादर, बार-बार झाड़ती-सँभालती। ये कुछ उतनी भी मुश्किल बात न थी जैसे भूसे के ढेर से सूई तलाशना। फिर भी बन गई।
दोनों की एक-एक बात की चोट में घायल क्षिप्त-विक्षिप्त ख़ून के आँसू लिए, चोरनी समझे जाने के आरोप से शीघ्र-अतिशीघ्र मुक्त होना चाहती थी। जिसकी संवेदना रागिनी के अतिरिक्त और कौन समझ सकता था भला? जाने-अनजाने हे ईश्वर ये मुझसे क्या हो गया? सोचती पल-पल पछताती हुई ढूँढ़ने में लगी थी।
अन्ततः काट खाने वाले नज़रों से घूरते पति को, हटने का इशारा किया। जिसके लिए वह बिलकुल तैयार नहीं था।
“लाख बार देखी; यहाँ-वहाँ जब है ही नहीं फिर कहाँ से मिलेगा?”
उसने सारी बातें, अनसुनी कर के राजीव का हाथ ज़बरदस्ती पकड़ कर बिछावन पर से पूरी तरह हटाया तो देखती है राजीव जहाँ पर बैठा था वहीं उसके नीचे में वह नरम मुलायम-सा कपड़े का टुकड़ा पड़ा था। जो चादर के रंग में मेल खाता, अनदेखा रह जा रहा था। बिजली की अनुपस्थिति में जाने कितनी बड़ी अप्रत्याशित स्थिति रच गई थी।
जब दूध देने के बहाने से, साड़ी देखने माँ आई थी; तो उस रेशमी साड़ी में से ब्लाउज का कपड़ा जहाँ गिरा, माँ को बैठने के लिए जगह देते हुए, राजीव करुणा को खेलाते हुए उसी कपड़े के टुकड़े पर बैठ गया था। और इस प्रकार इस घटनाक्रम का पटाक्षेप हुआ।
करुणा की समझ जैसे-जैसे बढ़ रही थी वह उत्सुकता में छोटे-मोटे गड्ढे या छिद्र में उँगली डाल कर खोदती हुई बड़ी कर देती। बार-बार बाहर मिट्टी में खेलने, भागने से रोकने के लिए एक बार एक मोटरसाइकिल पर चढ़ा कर बिठा दी गई।
जिसपर बैठे-बिठाए करुणा अपनी उँगलियों के हथियार से सीट को कुरेदती हुई बहुत ज़्यादा खरोंच कर फाड़ दी थी। जिसे देखकर सभी फ़िक्रमंद हो गए थे कि उन व्यक्ति को क्या जवाब दिया जाएगा? इसी तरह चादर-कपड़े, कुछ भी मिले तो उसमें व्यस्त हो जाती।
एक दोपहर पिता और पुत्री दोनों को ऊपर के कमरे में छोड़ कर नीचे रसोई में रागिनी काम कर रही थी। राजीव बिछावन पर लेटे हुए करुणा का खेल देख रहा था। दरवाज़े पर मोटा सा पर्दा लगा हुआ था। जिसे हटाने के बाद जैसे ही घुटने के बल चल कर करुणा आगे बढ़ने की कोशिश करती पर्दा पूर्ववत फैल जाता। और आगे बढ़ने की कोशिश करती करुणा वहीं पर अटकी हुई रह जाती। ऐसा ही हर बार होता और उस पर्दे की सीमा में उलझी करुणा, आगे बढ़ने का रास्ता ना देखकर ठहरी हुई, पखाना-पेशाब सब कर लिया।
रागिनी को सब निपटा कर आते-आते आधे घण्टे से ज़्यादा समय लग चुका था। आकर जब उस हाल में करुणा को देखा तो राजीव पर बहुत ही ग़ुस्सा आया।
“आप भी अजीब पिता हैं। बच्ची को लेकर नीचे आते तो क्या जाता? मैं साफ़-सुथरा कर देती। गज़ब आलसी-निकम्मे पिता हैं। ऐसे हाल में जाने कब से मेरी बेटी है?” उसने जल्दी से अपनी बेटी को साफ़ करके पिता को सौंपा और झट से वहाँ का फ़र्श साफ़ करने लगी। जाने कितना बड़ा काम करके अपने पिता की गोद में उछलती हुई बेटी बहुत ख़ुश थी।
धीरे-धीरे खड़ा करने की प्रक्रिया शुरू की गई। अभी तक ऊपरी मंज़िलें कमरे में व्यवस्था करके माँ-बेटी रह रही थी। सारे काम निपटा कर ऊपर माँ-बेटी अपने एकांतवास में चली जाती। जिससे सासु माँ को अनावश्यक टोक-टाक करने का अवसर कम मिलता।
पर एक आदत जो जन्मजात होती है; इंसान कब उससे दूर होगा? बात-व्यवहार और प्रवृत्ति में वह तो गाहे-बगाहे उभरता रहेगा।
घरेलू काम में ज़रा-सी देर हो रही। ऊपर शान्ति छाई है अर्थात् रागिनी भी अपनी जेठानी की तरह इधर-उधर गई होगी, की कल्पना पाल कर सास भुनभुनाती हुई मिलती।
देवरानी अपनी नाजों-नखरे करती दो साल गुज़रने पर आना स्वीकार की। नई नवेली दुलहन को घर-परिवार में अभ्यस्त करने में मदद करती सास के लिए रागिनी अब और किरकिरी बन गई। घर में अंशमात्र कुछ भी इच्छा विरुद्ध हुआ अर्थात् सुलभ शिकार रागिनी।
सास अपनी छोटी बहू को अपने बेटे के रंग में रंगना चाहती थी। जिसके लिए कुछ तो दर्शाने के लिए चाहिए। तुलनात्मक समीक्षा के लिए तो रागिनी थी ना!
सास सैंकड़ों-हजारों बार के मंथन में अपनी सहेलियों के बीच में रागिनी और नई बहू का अंतर दर्शाने के लिए कहती, “ये तो कुछ खाती ही नहीं। और वो अर्थात् रागिनी तो खधुक्की (बहुत खाने वाली) है। गर्भावस्था और दूध पिलाने वाली माता रूप में रागिनी की अपने स्वास्थ्य के प्रति सजगतापूर्ण व्यवहार और अन्नपूर्णा के प्रति सम्मान भावना पर उसके पेटू होने की पहचान मिली थी। अपने तेईस-चौबीस साल की उम्र में बुढ़िया कहलाने का सम्मान! उनकी पसंद की बहू, कच्ची कली! ये दो विषयवस्तु पसंदीदा चर्चा में रहतें। रागिनी को नीचा दिखाकर छोटी बहू का क़द बड़ा करने की साज़िश भी बहुत ख़ूब है।
सबसे अच्छी बात एक ही रही कि सासु माँ की प्रत्येक भावनात्मक अभिव्यक्ति का वह स्वयं अपने कानों से सुनने का सौभाग्य प्राप्त करती। कोई और कहता तो संभवतः कहने वाले की नाक-मुँह नोंच लेती पर अपने आप को क्या कहे? जो वह ख़ुद सुन रही थी। प्रत्येक बात-विचार का वह प्रत्यक्ष गवाह रही है।
राजीव की अनुपस्थिति में अपनी प्रत्येक सकारात्मक प्रयास के बावजूद रागिनी उपेक्षित रूप में रहते हुए अब और भी अलग-थलग पड़ रही थी।
सहयोग करने जाओ तो देवरानी करने नहीं देती। और ज़बरदस्ती किसी काम में सहयोग करती तो वह रोने-धोने का नाटक करने लगती। उनकी छोटी बहू को रुला दिया कहकर सास चढ़ बैठती। ना करने पर भी “महारानी बनल है।” अपने आप में और भी बुरा लगता। हर बात में सासु माँ, दोषारोपण करतीं कि तुम मेरी छोटी बहू को रसने-बसने में थोड़े ना मदद करोगी? आख़िरकार गोतिया जो ठहरी।
“अरे जो बात-विचार मेरे दिल-दिमाग़ में है ही नहीं। वह भी ज़बरदस्ती क्यों डाल रहीं ये?” रागिनी सोचती रह जाती।
कुछ दिन यहाँ रह कर अल्हड़ और खिलाड़ी देवरानी अपने नानी-घर, दादी, फूआ, मौसी, चाचा-चाची घर में शादी ब्याह के नाम पर दो महीने मायके की रिश्तेदारी में व्यस्त हो जाती। उसकी अनुपस्थिति में पति फिर पगला जाता। सासु माँ आसूँ ढलकातीं कि तुम लोग नहीं चाहती कि वह बच्ची यहाँ रहकर फले-फूले।
सुन-सुनकर रागिनी अपनी सास की बातों में कितनी सच्चाई है? सोचने-समझने की असफल कोशिश करती। अपनी दु:ख-पीड़ा याद करके देवरानी की मदद के लिए सुबह-शाम में सब्ज़ी काटकर, आटा गूँथ कर, मसाले पीस कर, बरतन, झाड़ू-पोंछा का यथासंभव-यथासमय निपटारा कर देती। बावजूद समस्या?
देवरानी-जेठानी की गुटबंदी में भी तटस्थ रह कर समझने के बावजूद सब अनदेखा कर, एक माँ रूप में अपनी बेटी में व्यस्त रहती।
बार-बार कुछ भी, किसी बहाने से सास की कटाक्षपूर्ण टिप्पणी से अब रागिनी ऊबने लगी थी। अब तय कर लिया कि वह यहाँ नहीं रहने वाली। बेटी लेकर अब लम्बे समय के लिए मायके के लिए निकल जाती ताकि घर में सुख-शांति विद्यमान रहें। सास-जेठानी-देवरानी के प्रेम में कबाब का हड्डी नहीं बनना।
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