रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 36माता-पिता की नक़ल करती बेटी छोटे-छोटे काम सीख रही थी। बिजली चले जाने पर माचिस की तीली जला पिता ने उसके सामने मोमबत्ती जलाई। यह काम बच्ची की दृष्टि में बड़ा काम है। इसे सफलतापूर्वक संचालित कर लेना बड़ी बात है। अवसर पाकर अब वह अकेले में माचिस की तीली जलाकर आत्मपरीक्षण कर ही रही थी कि पिता की दृष्टि पड़ी। वह बेटी की सुरक्षा का ख़्याल कर जलती तीली को फूँक मार कर बुझाने लगे। “फूऽ . . . फूऽ . . .” बेटी को किसी भी प्रकार के जलन का स्वाद पता नहीं है इसलिए सुरक्षा-असुरक्षा के अनुभव से वंचित है। वह पिता के इस काम को भी खेल समझ रही है।
बच्चे के प्रति माँ का मातृत्व स्नेह अपने प्रत्येक रूप में जुड़ा रहता है। माँ से बेटी पेड़ों-पौधों से संबंधित सवाल पर सवाल करती जाती और रागिनी उसका जवाब पर जवाब दिए जाती।
राजीव के सो जाने के बाद कभी-कभी उस बड़ी चारदीवारी के बाहर आ कर माँ-बेटी खड़ी हो कर वहाँ के आसपास की दुनिया और जन-जीवन का दृष्टि परिचय प्राप्त करतीं। जिसमें मुख्य सड़क पर काले बुर्क़े में स्त्रियाँ गुज़रती हुई देखकर करुणा अपनी माँ के पीछे छुप कर “भूत! भूत!” कहने लगती।
मंजेश्वरम की प्राकृतिक सौंदर्यमयी गलियों में कभी-कभी माँ-बेटी एक दूसरे का हाथ थामे निकल जातीं। अब ये तय कर पाना असम्भव था कि नेतृत्व कौन कर रहा होता? माँ या बेटी?
बस मन की मौज में बेटी खींचती हुई माँ को अपने इच्छानुसार संचालित करती। परछाईं रूप में माता सुरक्षा-असुरक्षा का विचार करती; वह तो मात्र एक सुरक्षा कवच रूप में बेटी के साथ चलती चली जाती।
समुद्र तट के नज़दीक एक अलग बस्ती ईसाई और मुस्लिम समुदाय बहुल थी। जिधर जाना असुरक्षित माना जाता था। चोरी-छिनतई, बलात्कार, छेड़खानी, स्मगलिंग से संबंधित उस तरफ़ गुज़रने वाली घटनाएँ! . . . एक से एक भयंकर कहानियों को मकान मालिक की भगनी, विशाखा और उसकी माँ सुनाती थी।
जो अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ परिवर्तित ईसाई थे और हिंदू बहुल घरों के आसपास रहते थे। उनके दरवाज़े के बाहरी छोर पर बाएंँ तरफ़ किसी विशेष परिवार की कुलदेवी स्थापित थी। अपने मातृक निवास पर नानी की सम्पत्ति रूप में एक मात्र वही ज़मीन थी; जिसपर उन सभी भाई-बहनों का संयुक्त हिस्सा था।
विंशी मकान मालिक, जो सात-आठ भाई बहनों में सबसे छोटे थे। और अपने सबसे बड़े बहनोई के अधीनस्थ व्यापार-व्यवसाय में काम करते थे। इसके अतिरिक्त उनकी कमाई का अतिरिक्त ज़रिया, तीन परिवारों के रहने के लिए भाड़े के घर थे। उनकी दोनों बेटियाँ मंगलोर की किसी लब्ध प्रतिष्ठित कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने जाती थीं। जिसका संपूर्ण खर्चा-पानी उनकी बड़ी फूआ अर्थात् विशाखा की माता-पिता की ज़िम्मेदारी थी।
विशाखा के पिता, एक रुपए की दिहाड़ी मज़दूरी से लेकर, करोड़ पति बनने तक का संघर्षशील जीवनी वाले व्यक्तित्व थे। जो ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित ठेकेदारी में जुड़े हुए थे। उसी परिचय और प्रभाव के कारण बेटी प्रोफ़ेसर थी।
जो कि रागिनी से ढ़ाई-तीन साल छोटी थी। और इसी कारण से वह रागिनी को दीदी कहने लगी तो उसकी माँ, बिना बेटी के ब्याह और संतानोत्पत्ति के ही करुणा की नानी कहलाने लगी। जिसका भरपूर फ़ायदा करुणा, अपने हक़-अधिकार से उठाती।
घरेलू सदस्य बनकर उन माँ-बेटी के साथ कहीं भी, कभी भी निकल जाती। और वहाँ का प्रत्येक निवासी करुणा के चंचल पर शिष्ट व्यवहार से मंत्रमुग्ध रह जाता। वहाँ पर करुणा, रागिनी और राजीव की बेटी रूप में कम; पर विशाखा और उसके माँ के घरेलू सदस्य रूप में ज़्यादा विख्यात हो गई थी।
विशाखा से छोटा, पहला बेटा इंजीनियरिंग कर के, अरब में कार्यरत था; और दूसरा बेटा अभी इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था।
गाँव का मध्य भाग वाला वह क्षेत्र कोंकण ब्राह्मण बहुल क्षेत्र होने के कारण शान्त और सुरक्षित क्षेत्र माना जाता था। यहाँ तक कि उस गाँव में एक भी बुचड़-खाना और मुर्गे-मुर्गियों का दुकान नहीं थी। और जो भी थी गाँव के बाहर होशंगड़ी में।
फल-सब्ज़ियाँ रेलवे स्टेशन के पास ही बाज़ार में उपलब्ध थीं। वहीं के कुछ मीटर की दूरी पर ही राशन और कपड़ों और शृंगार की दुकानें थीं।
नेत्रावती नदी के आस-पास का क्षेत्र होने के कारण मीठे पानी में उपलब्ध मछलियाँ बहुतायत में उपलब्ध रहती हैं। राजीव अक़्सर उन्हें देखकर रागिनी को तंग करने के लिए पूछता, “तब तुम्हारे लिए कौन सी मछली लूँ? कौन सी तुम्हें चाहिए? मुझे तो वो मछली अच्छी लग रही।” जिससे रागिनी जैसे शुद्ध शाकाहारियों को क्या मतलब?
घर से लेकर ड्यूटी क्षेत्र तक के एक-डेढ़ किलोमीटर की दायरे में सब कुछ उपलब्ध था। नज़दीक में ही स्कूल से लेकर अस्पताल तक भी उपलब्ध! एक छोटे से जगह में ही, होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, अंग्रेज़ी दवाइयों से संबंधित सरकारी, ग़ैर-सरकारी संगठनों द्वारा संचालित विभिन्न अस्पतालों और डॉक्टरों की सुविधाएँ उपलब्ध थीं। साफ़-सुथरी सड़कें और गलियाँ, एक आदर्श ग्राम की परिभाषित रूप में वह गाँव!
अभिभावक रूप में, विशाखा और उसकी माता के निर्देशानुसार, शान्त-सुरक्षित माहौल वाले घरों के आसपास ही रागिनी घूमती-गुज़रती और अंततः एक स्थान के बाद लौटने का विचार कर बेटी को प्रोत्साहित करती, “समय पर जल्दी से सुरक्षित घर लौटना है ना? वरना बदमाश पकड़ लेगा। और वह तुम्हारा भूत भी है ना इधर!” मतलब काले बुर्क़े वाली स्त्रियाँ! तब रागिनी की बात मान कर करुणा सहमति में वापस लौटने के लिए राज़ी हो कर वापस मुड़ने को तैयार हो जाती।
माता-पिता के साथ बाहर घूमने में करुणा दोनों का हाथ पकड़ कर अपने दोनों पैरों को उठा कर लटक जाती। कभी अपनी माँ का हाथ पकड़ कर, बीच सड़क छोड़ कर रास्ते के किनारे-किनारे लगे काँटेदार झाड़ियों की तरफ़ खींच ले जाती।
“बेटा जी काँटे चुभ जाएँगे। उधर मत चलो। आओ इधर चलते हैं।” कई बार रागिनी समझाने की कोशिश करती पर वह नहीं समझती और वही शरारत पिता के साथ भी कर बैठी। कई बार उसकी शरारत देखने-परखने के बाद एक दिन पिता ने काँटेदार झाड़ियों की तरफ़ खिंचाव महसूस कर उसका हाथ छोड़ दिया और वह उधर तरफ़ लुढ़क पड़ी।
“पापा गिरा दिया . . . मुझे गिरा दिया . . . माँ, मुझे पापा ने गिरा दिया . . .” माता की सहानुभूति बटोरने के लिए चिल्ला उठी।
“और जाओ झाड़ियों के तरफ़” . . . हँसते हुए राजीव ने शरारत की।
“नहीं जाऊँगी . . . कभी नहीं जाऊँगी,” करुणा की स्वीकारोक्ति उभरी।
“आप भी विचित्र बदमाश हैं। बच्ची को चोट आती तो?”
माँ की भावना को शान्त करते हुए बोली, “तो तुम्हें क्या लगा? . . . मैंने जानबूझ कर किया ताकि उसे काँटों की समझ भी तो आनी चाहिए। बिना प्रैक्टिकल के यथार्थ की समझ नहीं उभरती। कटने-छिलने के डर से सावधान रहकर वो तो बहुत अच्छा करती हो कि पूरे कपड़े ढके हुए पहनाती हो।”
एक बार कुछ ऐसा हुआ था कि करुणा, अपने नानी घर में नाना के संग खाना खाने के लिए टेबल पर चढ़ कर बैठ जाती।
आतुरता में कभी इधर, तो कभी उधर की आपाधापी में रहती। सावधान और सचेष्ट नाना के द्वारा बचाने के लिए पकड़ने की कोशिश के बावजूद, पीछे की ओर खिसकती हुई; धड़ाम से पीछे, सिर के बल जा गिरी। और फिर गिरने के बाद, “नाना जी गिरा दिए . . . मुझे नाना जी गिरा दिए . . .” का बहुत देर तक तूफ़ान मचा कर रखा। यहाँ तक कि फोन पर अपने पिता तक को यह सूचना देने से नहीं चूकी, “पापा-पापा! मुझे नाना जी ने गिरा दिया . . .। मुझे नाना ने गिरा दिया।”
अभी मंजेश्वरम आने के पहले की ही तो बात थी। किसी शैतानी पर रागिनी ने करुणा को डाँटा था, “गन्दी बच्ची” कहकर।
जिसे सुनकर अपने सर्वोच्च न्यायालय, नानी पास शिकायत लेकर करुणा गई, “नानी! . . . नानी! . . . मुझे माँ डाँटी . . . आप भी डाँटो। मारो उन्हें!”
नानी, नातिन को संतुष्ट करने के लिए अपनी बेटी को ज़रा थपका दी . . . “ऐ क्यों डाँटी मेरी बाबू को!”
कुछ क्षण तक मूकदर्शक वह देखती रही। उसकी ने माँ उसे देख कर रोने का नाटक कर दिया जिसे करुणा देख कर तांडव करने लगी; “नानी आप मेरी माँ को को माई?” मतलब कि आपने मेरी माँ को क्यों मारा? . . . “नानी मेरी माँ को मार दी।!” और रोना प्रारंभ! . . .।कहती हुई इधर-उधर में कुछ नहीं दिखा; तो किसी कोने में खड़ा रखे गये डंडों में से, एक डंडा उठा कर लाई और नानी के पास लाकर ज़मीन पर पटकने लगी . . . “आप मेरी माँ को क्यों मारी? . . . नानी, मेरी माँ को मार दी।” कहकर रागिनी की गोद में भागी . . . ”मत रो माँ!” कहकर चूमती हुई, सांत्वना देने लगी।
“ये देखो माँ-बेटी का प्यार! पहले माँ की शिकायत की! . . . नानी मारो! . . . और फिर अपनी संवेदना भी दिखला रही! . . . और उसके लिए नानी पर डंडा भी पटक रही। वाह रे संसार! और मुफ़्त में नानी बदनाम हुई,” नानी ने हँसते हुए आश्चर्य व्यक्त किया।
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