रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 6नवजात कन्या 'करुणा' को गोद में लिए दादी बोली थी, “आ गई मेरे बेटे के लिए खाना पकाने वाली बेटी!” सुनकर जाने क्या हुआ? नवजात बच्ची मुँह बिचका कर रोने लगी। रोते हुए देखकर दादी बोली, “मत रोओ! कुछ मत करना। दोनों माँ-बेटी बैठ कर खाना। मेरा बेटा खाना पकाएगा।” सुनकर चुप हो गई बच्ची। देखकर आश्चर्यचकित सभी हो गये।
उसके जन्म की भी अलग कहानी है। विद्यार्थी रूप में माता-पिता दोनों अपनी पढ़ाई में व्यस्त थे। जिसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी दोनों ने ली हुई थी।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से B.Ed. में व्यस्त युवक रूप में पति राजीव सप्ताहांत में नवविवाहिता पत्नी रागिनी से मिलने आता और चला जाता। इसी तरह दिन निकलते जा रहे थे।
बेरोज़गारी के कारण तय था कि नौकरी के बाद ही किसी बच्चे का विचार किया जाएगा। पहले दोनों अपनी-अपनी पढ़ाई पूरी कर लें, फिर आगे की योजना तय की जाएगी। पर, कई बार आदमी की सोच और व्यवहार में असंगतियाँ स्थापित हो जाती हैं। ख़ुद के साथ-साथ जो जुड़ा हुआ है उसे भी दुविधा में कर देता है।
पड़ोस में एक लड़की जिसकी शादी सोलहवें साल में हुई और सुहागरात में ही गर्भ रहकर ठीक नौंवे महीने में बेटे का जन्म हुआ था। ये बात राजीव के दिमाग़ को बहुत उद्वेलित करे। ये चाहत उसके दिमाग़ में कितनी थी? ये तो वही जाने; पर रागिनी के दिमाग़ में डालने लगा।
पूरी तरह कोरे दिमाग़ में भरपूर गृहस्थी का सुख लेने की ज़रूरत तो राजीव ने ही तय की थी, जिससे वह सहमत भी थी। अब ये नया राग, पिता बनने वाला क्या है? समझ से परे था।
जब आता तो पूछता, “रागिनी तू माँ कब बन रही है? मैं पिता कब बन रहा हूँ? कहीं तुझमें या मुझमें कुछ कमी तो नहीं? लोग पहली रात में ही कैसे ये गोल मार लेते हैं? जहाँ तक हम-तुम नहीं पहुंँच पा रहें।”
सुनकर वह बहुत शरमाते हुए टालने की कोशिश करती। आँगन में किसी काम के लिए गुज़रती हुई, सास के मुँह से उसने स्वयं सुना, बाहर चबूतरे पर बैठी स्त्रियों के बीच रागिनी के अनियमित मासिक की चर्चा करते हुए, “पता नहीं, ये स्त्री माँ बन भी पाएगी या नहीं? . . . गाँव पर एक बहू को ऐसे ही होता था तो लाखों रुपए उझलने के बाद बच्चा हो पाया। मेरा बेटा इसके नाज़-नखरे उठाने में ही मरता रहेगा बेचारा! उसे तो भगवान ही बचाए।” ठंडी आह भरती हुई कई और नकारात्मक बातों की पिटारे के साथ वह बात समाप्त की।
कोई और आकर इस बात को बताता तो रागिनी के लिए अंशमात्र भी विश्वास करना असंभव होता। लेकिन वह ख़ुद सुन रही थी जिसपर संदेह की कोई बात ही नहीं रह गई थी।
सासु माँ अपना संदेह व्यक्त करते हुए जो भी बोल रही थी। दिल-दिमाग़ पर जिसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। पर . . . बीच में बेरोज़गारी की खाई भी तो थी। जो वह अच्छी तरह समझ-जान रही थी।
एक ही बात बार-बार दुहराए जाने से भी दिल—दिमाग़ में अस्थिरताएँ पैदा करने लगता है। एक महीने में सिर्फ़ चार दिन वो भी सप्ताहांत मात्र रविवार या कुछ विशेष छुट्टी का दिन; उसपर भी सरकारी नौकरी की धुन में जहाँ-तहाँ भटकते धूल फाँकने वाले पति की विवशता कम मुश्किल थी क्या?
इधर रागिनी भी अपनी अधूरी पढ़ाई को लेकर बहुत-बहुत संवेदनशील थी। सारे घरेलू काम निपटा कर झट से किताबों-कॉपियों में व्यस्त हो जाती। जिससे उसका अकेलापन भी कट जाता। समय और संसाधनों की कमी के कारण बहुत-बहुत हाथ-पैर मारने पर भी बहुत कम समय में पढ़ाई कर पूरी तैयारी करने में नाकाम रही और नतीजा . . . अपने M.A. की परीक्षा में रागिनी असफल।
सबके उलाहने और तानों को अनसुना-अनदेखा करती हुई, “कोई बात नहीं इसे कुछ भी करके पूरा करना ही करना है” की दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ एक बार फिर मैदान में कूद पड़ी।
दोनों के जीवन का उद्देश्य तय था कि किसी तरह राजीव को यथासंभव सरकारी नौकरी लेकर आत्मनिर्भरता प्राप्त करनी है। ससुराल में शान्ति व्याप्त रखते हुए, रागिनी को पति की, मानसिक और भावनात्मक समर्थन करना है। अपने फ़ालतू छोटे-मोटे आवश्यकताओं को टालते लक्ष्य केन्द्रित अग्रसर रहते हुए समय व्यतीत हो रहा था।
बीतते समय के साथ पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियों के प्रति जागरूक राजीव अपनी नौकरी की नियुक्ति में हो रही देरी से थोड़ा अस्त-व्यस्त हो रहा था।
बहुत परिश्रमी होने के कारण चयनित होना कोई बड़ी बात नहीं थी। पर चयन के बावजूद नियुक्ति में समय लग रहा था। यह उन दोनों के जीवन का बेहद दुःखद और त्रासद अवसर बन कर चुभने लगा था।
हुआ यह था कि यहाँ नववधू के शुभ क़दम पड़ने के चार महीने के अंदर सरकारी नौकरी के लिए चयनित होने की ख़बर सुनकर सास को अति प्रसन्नता होनी चाहिए थी। उनके कलेजे को ठंडक मिलनी चाहिए थी। इसके उलट, वह अभिमान में अपनी बहू को धमकाने आई, “सुनो मेरे बेटे की नौकरी लग गई तो इसका ये मतलब नहीं है कि तुम्हारी मनमानी चलने वाली है। इस घर में होगा वही जो मैं चाहूँगी . . . तुमको मेरे अधीन होकर ही रहना पड़ेगा . . . फूल कुमारियों वाले, ये तुम्हारे नाज़-नखरे ज़रा कम किया करो . . . समझी मैडम! चाल चले सादा कि निभे बाप-दादा।”
सुनकर आश्चर्य भी हुआ और ग़ुस्सा भी आया। अजीब माँ हैं ये तो? इसे कहते हैं सुख के आगमन पर दु:ख का विष-बेल बोना। मेरे नाज़-नखरे ऐसे कुछ हैं भी नहीं जिनके बोझ तले ये और इनका परिवार दबा जा रहा। अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ जीने का प्रयास करने पर भी इनको अखर रहा।
विचित्र अभिमान देखते हुए, “हे ईश्वर! इन्हें मेरे भाग्य और ऐश्वर्य से इर्ष्या हो रही है। रुको . . . ये मुझे धमका रही हैं ना . . . रोक दो! . . . अभी और भटकने दो इनके बेटे को। मेरी क़िस्मत पर हावी होकर अपने बेटे के पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। जाओ नहीं होती नियुक्ति! . . .
एकाध साल का मैं और दु:ख स्वीकार करती हूँ।
अश्रुपूरित आहत भाव में निकली बद्दुआ ईश्वर के तरफ़ से जाने कैसे झट से स्वीकार भी कर ली गई या यूँ कहा जाए तो सरकारी काम अटकने के लिए वैसे भी विख्यात होती है। परिणामत: झोला टाँगें बेटा भटकता रहा जब-तक कि संयुक्त प्रभाव के साथ बचे हुए कर्म जागृत नहीं हुए।
सास–बहू रूप में रिश्तों की खींच-तान एक तरफ़ थी स्त्री रूप में पत्नी की ज़िम्मेदारियाँ भी दूसरी तरफ़, जिसे चाह कर भी अनदेखा नहीं कर पा रही थी। जैसे ही राजीव थका-हारा निढाल होकर बिछावन पर गिरता वह भावनात्मक समर्पण में दौड़ पड़ती।
एक दिन राजीव, हड़बड़ाहट में घर से भूखे निकल रहा था। रागिनी के हाथों में गर्मा-गर्म रोटी-सब्ज़ी देखकर बोला, “तुम्हारे खाने के चक्कर में, मेरी ट्रेन छूट जाएगी,” कहता हुआ जल्दी-जल्दी कर रहा था।
रागिनी उसे मनाती हुई बोली, “अरे बाबा जल्दी में आप नंगे भाग जाएँगे भला? जब तक कपड़े पहन रहे; मैं दो-चार कौर मुँह में डाल दूँगी। आप सिर्फ़ मुँह चलाते हुए बाक़ी काम करते रहिए। एक पंथ दो काज!”
ठीक है, कह कर हँसते हुए, सुनकर संतुष्ट राजीव तैयार हो गया। रागिनी फटाफट रोटी के टुकड़े तोड़-तोड़कर सब्ज़ी के साथ, पति के मुँह में डालने लगी।
वो दोनों एकांत कमरे में थे। जिसे खिड़की से सासु माँ ने देख लिया था। राजीव के चले जाने के बाद रागिनी को फटकारते हुए, “ये सब क्या है? तेरे रंग-ढंग ही निराले हैं। जब देखो तब मेरे बेटे पर चढ़ी रहती है। साथ खाना, चौबीसों घण्टे एक-दूसरे में खोए रहना। जैसे संसार में इन जैसा और कोई पति-पत्नी ही नहीं। कोई लाज-शर्म नाम की चीज़ है ही नहीं? आज सुबह-सुबह क्या नाटक कर रही थी? मेरा बेटा अपंग है क्या? जो उसके मुँह में कौर डाल रही थी।”
अपने छोटे बेटे के प्रति संकेत करती हुई बोली, “घर में एक अकेला लड़का है उसे बहका-बिगाड़ रहे हो तुम दोनों! मन ही मन अपनी पत्नी के बिना बेचारा घुटता रहता है।”
सच ही कहा गया है सास! सास ही होती है, माँ कभी नहीं बन सकती। आख़िर यहाँ ऐसा कुछ भी ऐसी बात न थी जहाँ ऐसी कुछ प्रतिक्रिया की स्थिति बनती। कमरे में भुनभुनाती हुई दनदनाती जैसे आई थी, वैसे ही सुना कर चलती बनी। हर छोटी-छोटी बात पर रागिनी से चिढ़ी और चढ़ी रहती। जिससे परेशान रागिनी अपनी सास की मन-मानसिकता समझने की कोशिश कर रही थी। पर, समझ नहीं पा रही थी। आहत मन में आता कि “अपने कमरे में वह उनके उस बेटे को पति रूप में घुसने ही ना दे।”
वश चले तो धक्के मार कर भगा देती, “लो सँभालो अपने बेटे को! ये क्या है? . . . ये कौन सी ईर्ष्या है? बहू रूप में बड़ों के सामने रहने वाली कोई आज़ादी रहती तो अपने सारे सामान को उस कमरे से निकाल बरामदे में रख लेती। जहाँ कोई एकांत मिलने की सम्भावना ही न बचती उनके बेटे रूप में राजीव के लिए” . . . जिस माँ को अपने बेटे के प्रति सकारात्मक समर्पित पत्नी को देखकर सुखी-संतुष्ट होना चाहिए। वह जल-भुन कर राख हुई जा रहीं हैं। पत्नी अपने पति के प्रति समर्पित है, तब भी समस्या? नकारात्मक कुछ देख-समझ कर टोक-टाक करतीं तो ज़रा विचारणीय बात भी होती। पहले इनके छोटे बेटे की शादी नहीं हुई थी इसलिए जिसकी हुई है उसका विवाहित जीवन नरक कर रही थी। अब हो चुकने के बाद जब उसकी पत्नी उसे मान-आदर और सम्मान नहीं दे रही, तो जिनमें प्यार और समर्पण है; उनके रिश्ते रूपी दूध में नीबू की तरह खटास डाल रहीं हैं। वह भी अपना रिश्ता ख़राब कर ले क्या? मूर्खता की भी हद होती है यार! ये हम दोनों को सुख-चैन से नहीं रहने देंगी। हे ईश्वर! . . . जल्दी से जल्दी नियुक्ति करवा दो प्रभु! मुझे नहीं रहना इस घर में, इन लोगों के बीच” कहकर वह प्रार्थना करने लगती।
जिसके बारे में सोच-सोच कर बहुत क्षुब्ध होकर, असंतुष्ट, धीरे-धीरे गंभीर होती जा रही थी। पर, किसी से कहने-सुनने की ज़रूरत क्या है? सोच कर मौन रहती।
ऐसे में हावी होते रिश्ते धीरे-धीरे संबंधों को ख़राब करने लगते हैं। पति की मानसिकता अब उद्विग्नता में परिवर्तित हो रही थी। जिसे देख-समझ कर रागिनी को भी अहसास हुआ कि जाने-अनजाने में अन्याय हो गया है पति की योग्यतम सार्थकता के साथ।
फिर अब तक में एक बार फिर से पूरी श्रद्धा के साथ ईश्वर से प्रार्थना करने लगी ताकि परिश्रम की सार्थकता सिद्ध हो सके।
किसी तरह, समयानुसार व्यवसायिक प्रशिक्षण पूरा करने के बाद राजीव लौटा। अब सिर्फ़ सरकारी नौकरी से संबंधित प्रतियोगिता के प्रति पूर्ण समर्पित क्रियाशील हो गया।
इस बीच उससे बाद के कमज़ोर लोगों का चयन होता जा रहा था। नियुक्तियाँ होती जा रही थीं। अपनी चयन प्रक्रिया में शिथिलतम प्रवाह के कारण एक वह, जहाँ का तहाँ अटका पड़ा था।
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