रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 26
अब बच्ची की सुरक्षा का विचार कर सीढ़ियों के प्रारंभ में ही एक लकड़ी का तख़्ता डाल दिया गया ताकि वह सीढ़ियों पर चढ़े नहीं। साढ़े चार साल बड़ी करुणा की चचेरी बहन ‘ख़ुशी’ लगभग इसी उम्र की रही होगी जो आँगन में खेल रही थी। उसकी फूआ श्वेता आवाज़ देती हुई “ख़ुशी! . . . ख़ुशी!” . . . कहती हुई, कुँए के बग़ल में बने बाथरूम में चली गई थी। नन्ही ख़ुशी, फूआ श्वेता को ढूँढ़ती जिज्ञासावश, आँगन के उत्तर-मध्य में स्थापित कुँए पर चढ़ गई। जिस पर मात्र चार-पाँच ईंटों की मुँडेर थी। और फिर . . . छपाक् . . . ऽ ऽ
बच्ची गहरे कुँए में जा गिरी। उस समय रसोई में काम करती ख़ुशी की माँ को लगा कि हमेशा की तरह कुँए में बाल्टी गिरी होगी। पर दादी को बच्चे का शक हुआ, सो बेतहाशा दौड़ पड़ी। वहाँ आकर देखती हैं पानी से भरे तालाब में कमल फूल पत्तियों के साथ जिस तरह पानी पर तैरता है ठीक वैसे ही बच्ची कुँए के जलीय सतह पर आराम से लेटी हुई है। जैसे किसी प्लास्टिक की गुड़िया को कोई अपने हाथों से ऊपर की तरफ़ रोके हुए हो। बस अपनी आँखों पर पड़ी हुई जलबूँदों के अहसास को आत्मसात करती हुई वह शान्तचित्त सीधी पड़ी हुई थी। यही बात उसके लिए रक्षक सबसे अच्छी बात रही।
चिल्लाने की आदतन दादी द्वारा झट से बहुत लोगों को बटोर लिया गया। पर पानी भरे कुँए में राघव के अतिरिक्त और कौन जा सकता था?
तत्क्षण वही एकमात्र पुरुष सदस्य घर में उपलब्ध था। सो झट से कुँए की दीवारों में लगे, लोहे के छड़ों पर से उतरता हुआ बच्ची के पास सरपट जा पहुँचा। धीरे-धीरे बाल्टी रस्सी की सहायता से नीचे उतारी गई। जिसमें राघव ने बच्ची को सुरक्षित डाल दिया। कुछ अन्य लोगों द्वारा बच्ची को बड़ी सावधानी से ऊपर खींच लिया गया।
जिसे चमत्कार माना जाए या राघव का त्वरित कार्रवाई भरा सार्थक एवं निर्भय प्रयास जिसके कारण नन्ही बच्ची की जान बची थी। जिसके बाद ही सावधानीवश उस कुँए का मुँडेर और ऊँचा किया गया।
करुणा के जन्म के बाद और भी दो-चार घेरे ऊपर किए गए। कुँए के बग़ल में, जहाँ वह आकर अक़्सर बैठ जाया करती थी। कई बार तो अपने नन्हे पैरों को उचका कर कुँए के अंदर का तिलिस्म झाँकने की कोशिश भी करती थी। पर अपनों के द्वारा उसके आसपास एक सुरक्षा घेरा व्यवस्था सदैव बनाए रखा जाता।
आठवांँ महीना पूरा होने में एक सप्ताह तक के दिन बचे थे, तब तक करुणा के दाँत नहीं निकले थे। इधर बुख़ार और उल्टियों के साथ मसूढ़ों में दाँतों के कुछ लक्षण उभरने के साथ दो दाँत ऊपर में आने लगे। दिन भर में बच्ची के उल्टियों के कपड़े, बिछावन-चादर साफ़ करते हुए बीतने लगा।
“पारंपरिक रूप में माना जाता है कि ऊपर के दाँत, आठवें महीने में आने से, मामा के ऊपर ग्रह जनित दोष उभरते हैं।” दादी ने कहा।
“जब मामा ही नहीं है तो दोष किस पर आएगा?” कहकर, दादी की बातों पर रागिनी ने हँसी में टाल दिया। ख़ैर ये अलग बात है कि नानी ग्रह कटित होने के नाम पर बच्ची को खाना खिलाने के लिए स्वेच्छा से फूल के कटोरा और ग्लास-चम्मच दे दिया था।
चलना सीखाने के लिए करुणा की और भी माता के द्वारा मालिश बढ़ा दी गई। दीपावली तक में ऊपरी तल्ले के कमरे में पलस्तर हो गया था। दीपावली की सफ़ाई में अपने सारे सामान समेट कर, दादी के कमरे से निकल कर ऊपर के कमरे में माँ-बेटी स्थानांतरित हो गई।
रागिनी को बहुत तेज़ बुख़ार था।
दीपावली की सफ़ाई में रागिनी के असहयोग और आलस्य पर सासु माँ ने बेटे से चुग़ली की। राजीव के द्वारा सवाल उठाने पर स्थिति स्पष्ट करना पड़ी कि क्यों वह बुख़ार के कारण पहले जैसा सहयोग करने में असमर्थ रही।
राघव को मानसिक डॉक्टर से दिखाने के लिए राजीव को फिर से आना पड़ा। जब भी आता तो अपनी माता के हाथों में रुपए देकर जाता। एक दादी और सास रूप में ही सही इतनी भावना नहीं जागती कि राजीव के पैसों से ही सही उसके परिवार के लिए कपड़ों या बाक़ी औपचारिकताओं को पूरा किया जाए।
जब बेटे से पैसे हाथ आ जाते तो राजीव की भावनात्मक सहानुभूति बटोरने के लिए, “ला देना एक कपड़ा बेटा, माँ-बेटी के लिए! . . . उनके लिए अब तक नहीं ख़रीदा है। उनकी विचारधारागत सब राजनीति समझते हुए भी बेटा-बहू मौन रहकर परख रहे थे। इधर जाँचते-परखते हुए रागिनी से अड़ोस-पड़ोस वाले कुछ सुनने की कोशिश करते पर वह अक़्सर टाल जाती।
प्रत्येक दुर्भेद राजीव भी समझ रहा था। पर शिष्टाचारवश और मातृत्व प्रेम में सब गुंजाइश रहती है। एक दिन संध्या समय रागिनी को बोला, “आज तैयार रहना। बाज़ार चल कर, अपने लिए कपड़े ले लेना।”
एक दो दुकानों में जाकर देखा तो कुछ ज़्यादा ही महँगा प्रतीत हुआ। अन्ततः एक दुकान में राजीव ने एक साड़ी पसंद की पर रागिनी को उसका रंग काला होने से नहीं भाया। “मुझे सुहागन स्त्री रूप में सफ़ेद या काला रंग नहीं पहनना चाहिए।”
“ठीक है कोई दूसरी साड़ी ले लो।”
राजीव की स्वीकृति मिलने पर रागिनी दुकानदार से बोली, “भैया गाढ़ी रंग की लाल, हरी, पीली कोई भी साड़ी दिखाना।”
एक साड़ी निकालते-निकालते ये कहते हुए दुकानदार रुक गया, “तुम्हारे बजट से बाहर की है ये साड़ी।”
“अरे दिखाओ भैया इसे! सफ़ेद या काले रंग की नहीं है ना? बस एक मात्र यही रुकावट है इसके लिए,” राजीव ने कहा।
उस साड़ी को देखने के बाद रागिनी की दृष्टि बँध गई। दुकानदार ने कई साड़ियाँ दिखाईं . . . पर हल्दी, गाढ़े रंग की पीली साड़ी, गाढ़े ब्लू रंग पर पतली किनारी पर रेशमी धागे का काम के साथ वह साड़ी एक मात्र पसंद आई। ”पहली और आख़िरी पसंद है मेरी,” कहकर रागिनी ने रख दिया।
राजीव अपनी पसंद की साड़ी लेकर अलग तैयार।
“मुझे एक ही चाहिए जिसे मैंने पसंद किया है।”
“अरे बाबा फ़िक्र मत करो ये काला नहीं है . . . नेवी ब्लू है। मेरी पसंद की भी ले लो।”
दुकानदार और राजीव के दबाव में उसे लेनी पड़ी। करुणा के लिए भी एक कपड़ा ख़रीदा गया था। परिणाम की ओर संकेत करते हुए लौटते समय राजीव ने रागिनी को सावधान किया, “सुनो जितना मैं, अपनी माँ को जानता हूँ, उसे महँगी वाली साड़ी तो मत ही दिखाना। वरना वह ताने देने से नहीं चूकेगी। अपनी ख़ैरियत समझते हुए आगे का तुम अपना समझो।”
घर आकर राजीव ने सबसे पहले रागिनी के पसंद की साड़ी हटा दी। अपनी पसंद की साड़ी का ब्लाऊज सिलवाने के लिए देने भेजा। जिसने भी देखा किसी को भी राजीव की पसंद बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी। ना ही माँ को और ना ही सिलाई करने वाली गुंजन दीदी को पसंद आई, पहली प्रतिक्रिया, प्रत्येक की रही, “ये किस युग की साड़ी पसंद की है?” सबने मान लिया कि रागिनी का साड़ियों के प्रति चुनाव बिलकुल भी अच्छा नहीं है।
गुंजन दीदी, जिनके यहाँ करुणा खाने और खेलने भागती थी। राजीव और उनका भाई-बहन वाली औपचारिक रिश्ते के कारण, ननद-भौजाई का व्यवहार था। उन्होंने बहुत आत्मीयता से रागिनी के मासूमियत में ठगे जाने पर अच्छी साड़ियों से संबंधित पर्याप्त उचित ज्ञान दिया। उनके बजट की एक प्योर सिल्क की साड़ी जो कट-पीस की थी, वो दिखलाई।
राजीव के प्रति विचार कर कहती हुई बोलीं, “इतनी सुन्दर नई-नवेली पत्नी को कोई ऐसी साड़ी ख़रीद कर देता है? बेरोज़गारी में अलग बात थी पर अब तो कमाने लगा है। उस बुद्धु दास को ये साड़ी ले जाकर दिखाओ। पहली बार ख़रीदी भी तो सदियों पुराने युग की साड़ी।”
रागिनी भी हँसती हुई राजीव के उस खेल का मज़ा ले रही थी। जिसमें सास की कटाक्षपूर्ण टिप्पणी से पूर्ण राहत तो थी। पर राजीव की पसंदीदा चुनाव का मज़ाक़ उड़ाया जा रहा था। गुंजन दीदी की साड़ी लेकर, राजीव को दिखाने के लिए लाई।
कहीं कुछ बिजली समस्या के कारण ऊपर के कमरे में सौ वाट का बल्ब ऐसे जल रहा था जैसे कि पुराने युग वाला दीया!
रागिनी, राजीव पास आकर हँसती हुई, “आपकी बहन बोली है कि आप अच्छी साड़ी नहीं पहचानते। उन्होंने अपनी प्योर सिल्क की साड़ी देखने के लिए दी है। क्या आप देखना पसंद करेंगे?”
रागिनी की बात सुनकर उत्सुक, आश्चर्य में पड़ते हुए, “लाओ बाबा ज़रा मैं भी तो देखूँ। प्योर सिल्क की साड़ी आख़िरकार होती कैसी है?”
जैसे ही लाई थी सावधानी से, वैसे ही लौटा आई। पर ये क्या? “उस साड़ी की ब्लाउज पीस नहीं है उसमें!” गुंजन दीदी की बात सुनकर अचंभित रागिनी बहुत-बहुत परेशान होकर भाग-दौड़ कर रही थी।
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