यात्रा लेखन-पठन वाली

01-11-2021

यात्रा लेखन-पठन वाली

पाण्डेय सरिता (अंक: 192, नवम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

मुझे बचपन से कहानियाँ पढ़ने की गंभीर बीमारी रही है। जैसे ही नई कक्षा में जाती, झट से अपने से बड़ों की हिंदी की किताबों को माँग कर कहानियाँ और कविताएँ पढ़ती। आसानी से जब नहीं देते तो कुछ देर तक के लिए ही सही चोरी-चुपके अवसर तलाश कर पढ़ती। अख़बारों के काग़ज़ के दोने पर लिखित कविता-कहानियाँ भी उलट-पुलट, फाड़-फाड़ कर पढ़ती। कुछ उधार-पैंचा लेकर सखी-सहेलियों, उनके भाई-बहनों, जहाँ से भी उपलब्ध होता, लेकर पढ़ती। अच्छे पुस्तकालयों की अनुपलब्धता और अपने पहुँच से बाहर होने का अफ़सोस लिए सीमित उपलब्धता और लघुता में भी पढ़ती। बाद में तो मेरी छोटी बहनों से भी किताबें और डायरियाँ उपहार रूप में प्राप्त होने लगीं। 

तीसरी-चौथी कक्षा में पढ़ने के दौरान मेरे चचेरे भाई (बबुआ पाँड़े, भोजपुरी में पाण्डेय का पाँड़े अपभ्रंश रूप में) के लिए 'नंदन' नाम की पत्रिका उपलब्ध होती थी। पर उनसे ज़्यादा जल्दीबाज़ी में मैं पढ़ने के लिए आतुर रहती। एक बाल सुलभ प्रतिस्पर्धात्मक भाव लिए उनकी ज़िद होती, पहले पढ़ कर पूरा करने की। और, मेरी कोशिश पहले पढ़ कर ख़त्म कर लेने की। वह झट से ऊब कर, किताब छिपा कर खेलने लगता। मैं खेलना, भूल कर किसी कोने में बैठ कर शीघ्र-अतिशीघ्र पढ़ने का अवसर तलाशती। 

कुछ इसी तरह चंपक पत्रिका से भी परिचित हुई। उनकी माँ, गाँव की रिश्ते की फूआ लगती थी। बेटी, जो मुझसे चार-पाँच साल बड़ी थी। किसी शहर में रहती थी। उनकी चंपक पत्रिका पढ़ कर इतनी प्रभावित हुई कि साल 1988 में नानी घर जाती हुई माँ, आकस्मिक ख़र्च के लिए हम दोनों बहनों को दस रुपए देकर गई थी। पूरे-के-पूरे उन्हें दे आई थी कि अगली बार जब भी आना मेरे लिए यथासंभव, किताबें लेती आना। जो आज तक उन पर मेरा उधार है। 

क्योंकि, जब उनकी माँ आई शहर से तो, आतुरता में मैं अपनी किताबें लेने पहुँची और माँगा कि फूआ आप मेरी किताबें दीजिए। इसके लिए मैंने आपकी बेटी को दस रुपए दिए थे। जिससे वह अस्वीकार कर गई और पढ़ने के बाद लौटाने की हिदायत के साथ मात्र एक किताब पढ़ने के लिए दी। बहुत बुरा मानने के बावजूद, बिना किसी विरोध के निर्देशानुसार उन्हें, मैं पढ़ कर लौटा भी आई। 

इसी तरह नन्हें सुमन/सम्राट से लेकर जाने कितनी कार्टून-कॉमिक्स के साथ सैंकड़ों-हज़ारों यथासंभव उपलब्ध किताबें, प्राकृतिक सानिध्य में पूरी तरह डूब कर पढ़ती हुई प्रथम प्रयास लेखन का दस वर्ष की उम्र में जो प्रारंभ हुआ अनवरत आज भी उसी नशे में हूँ। 

पाँचवीं कक्षा में पढ़ने के क्रम में, मेरे पिता के एक सहकर्मी, जिनका नाम मैं भूल चुकी हूँ जिन्होंने हिन्दी की वर्तनी और हिज्जे के प्रति मुझे प्रोत्साहित किया था। इसके अतिरिक्त हिन्दी शब्दों में शुद्धता के प्रति जागरूक और सचेत करने में 'बालिका मध्य विद्यालय गोमोह' की शिक्षिका 'श्रीमती रामाहारी बोस' के शब्दों का बहुत गहरा प्रभाव रहा। 

मेरे पड़ोस में रहने वाली बच्ची, प्रीति का नामांकन कराना था। संभवतः मैं उस समय नौंवीं में थी। उस नामांकन पत्र पर बच्ची का नाम 'प्रिती' लिख दिया था। "कौन लिखा है रे यह नाम?" पूछते हुए कक्षा में से मुझे बुलवाया गया था और सचेत करती हुई वह बोली, "शब्दों के मामले में जब भी दुविधा हो तो निस्संकोच शब्दकोश देखो। बेहतरीन शब्द प्रयोग धीरे-धीरे सीख जाओगी।" ये बातें या घटनाएँ नींव रूप में हैं जिनपर असंख्य प्रभाव के साथ मेरे लिए हिन्दी निर्माण की भूमिका बनी। 'हिन्दी शब्दकोश' आज भी मेरे लिए मेरा धर्मग्रंथ है। 

इस पढ़ने-लिखने के चक्कर में रसोई में जाने कितनी बार दूध, सब्ज़ियाँ, दाल-रोटियाँ जली हैं। बर्बाद हुई हैं। माता जी से, अपनी सास और पति से एक असफल गृहिणी की पहचान लिए कई बार डाँट खाती हूँ। 

मुझपर व्यंग्य करती हैं पारंपरिक विचारों वाली नाराज़ और खिन्न सासु माँ, "बाल-बच्चे भी हो गए, पर इसके किताब छूटते ही नहीं। जाने कब तक पढ़ेगी? बुढ़ापे में भी बचपना का शौक, पढ़ने का नहीं जाता। आलस्य और निकम्मेपन का अच्छा बहाना है कि कुछ लिखने-पढ़ने के बहाने से कोई किताब लेकर बैठ जाओ।"

इन सारी बातों में एक चर्चा अपनी सहेली ममता की वज़ह से प्राप्त रेलवे पुस्तकालय गोमोह की चर्चा ना करूँ, तो मेरा साहित्यिक पुस्तक प्रेम आधा-अधूरा रह जाएगा। हद तक मैं वहाँ उपलब्ध हिंदी किताबें पढ़ी हैं। 

मेरे हाथों में किताबों के ढेर देखकर सहेली की माँ पूछती, "इन किताबों को पढ़ती भी हो या यूँ ही वापस रख जाती हो? पढ़ती भी हो तो आख़िर पढ़ती कब हो?"

एक बार में एक ही काम कर सकती हूँ, या तो पढ़ाई या गृहस्थी की अन्य प्राथमिकताएँ? तो आज भी घरेलू कामों को औपचारिकता मात्र करती हूँ। किसी से मिलना-जुलना बहुत कम हो पाता है। तुलनात्मक रूप में वही सास-ननद, साड़ी, ज़ेवर-गहने, रूप-रंग, खीझ-नाराज़गी और शिकायतों पर चर्चा करने से बेहतर, अकेलेपन में लिखते-पढ़ते समय गुज़ारना ज़्यादा सहज-स्वीकार्य है। 

आज तक अपने पिता से सबसे ज़्यादा किताबें खरीदवाई हैं और उनके बक्से में रखे मोटे-मोटे रजिस्टरों पर लिख कर भरने में विचित्र विजित भाव अनुभव करती थी। सचमुच इस मामले में सबसे बड़ी संतान रूप में बहुत फ़ायदा उठाया है। घरेलू-पारिवारिक भीड़-भाड़ से छिटक कर एकांत में बैठकर यथार्थ और कल्पनाशीलता को शब्दों में बाँधने का सार्थक तो कभी निरर्थक प्रयास ज़ारी रखते हुए बहुत कोशिश की थी तात्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाने की। पर 'वही ढाक के तीन पात' अर्थात् सब व्यर्थ। दक्षिण भारत में रहते हुए लगभग दस वर्षों के अंतराल में हिन्दी से और दूरी हो गई थी। मेरी बेचैनियाँ चरम पर थीं। 

JIO 4G के आने तक समसामयिक रचनाओं का पठन-पाठन और प्रकाशन दुर्गम पथ बन कर मेरी पहुँच से दूर रहा था पर मैं अक्षर-अक्षर बटोरने में लगी रही थी। मुझे जानने वाले लोग अचंभित हो कर पूछते थे, "तुम कर क्या रही हो? इस तरह समय बर्बाद हो रहा है घर-गृहस्थी, चूल्हे-चौका के नाम पर कहीं तुम लिखना-पढ़ना भूल ना जाओ।"

मैं हँसते हुए आश्वस्ति देकर कहती, "आप चिन्ता ना करें, मैं अन्त:सलिला रहते हुए अपने अंदर ही सही लेखन को ज़िंदा रखूँगी।"

इसी प्रयास में लड़-झगड़ कर इग्नू से (सन् 2015-17) हिन्दी में डबल M.A. कर ली। 

दक्षिण भारत के 'धर्मापूरी' और 'सेलम' के मध्य गाँव 'बोम्मिडी' में रहते हुए यह स्नातकोत्तर की शिक्षा किसी अग्नि-परीक्षा से कम न थी। 

ऑनलाइन पढ़ने में हिन्दी साहित्य के लिए काव्य-कोश से जुड़ी। उसके बाद योरकोट्स और प्रतिलिपि से परिचय हुआ। ऐसे में ही साहित्य कुञ्ज से भी जुड़ना हुआ। पढ़ते-लिखते हुए समय का पता ही नहीं चलता था। आरंभिक समय में ही लगभग चार महीने में ही प्रतिलिपि पर बड़े मनोयोग से सीखने-समझने के लिए हज़ारों कहानियाँ पढ़ चुकी हूँ। अक़्सर अकेली घर पर रहती हुई पढ़ती रहती थी। पहले मैं तो शादी-विवाह, अन्य समारोहों में शामिल होने से भी बचती थी। पर अब औपचारिकताओं के लिए आती-जाती हूँ। 

स्त्री रूप में शारीरिक-मानसिक सुरक्षा की सीमा ना हो तो मैं कभी भी, कहीं भी रहकर लिखने-पढ़ने में अकेली व्यस्त रह सकती हूँ। चाहे वह घर की चारदीवारी हो या बाहरी प्राकृतिक संसार। 

अन्ततः अनेकानेक संघर्ष और असफलताओं के बाद पिछले साल मेरा पहला कविता संग्रह 'रेत पर नदी' प्रकाशित हुआ। इस वर्ष भी दो किताबें आने वाली हैं– 'स्पर्शन : कुछ अपनी-बेगानी सी' गद्य संग्रह और 'रे मन मथनियाँ' काव्य संग्रह। पाठकों और समीक्षकों के सार्थक प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में मैं धनबाद, झारखण्ड से पाण्डेय सरिता अर्थात् सरिता पाण्डेय। 

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