रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन  5

ऐसा पहली बार नहीं था कि करुणा को कुछ नुक़्सान हुआ हो। जाने-अनजाने अक़्सर होता रहता था। पर रागिनी, धैर्य रखकर स्थिति की गंभीरता को विवादास्पद नहीं बनने देती। 

जेठानी के बेटे को हमेशा प्राथमिकता दी जाती। जिस उम्र और अवस्था में गोद में चिपका हुआ बेटा, चौबीसों घण्टे अपने माँ के साथ रहता, उसी उम्र और अवस्था में बेटी के लिए अलग नियम और शर्तें थीं। 

परिवार में पक्षपात और आंतरिक पारस्परिक दुर्भावना स्पष्टत: दिखाई पड़ते। सुबह-दोपहर-शाम कभी भी, किसी के यहाँ, काम से बचने के लिए उसकी ताई करुणा को गोद में उठा कर मुहल्ला भ्रमण के लिए निकल जातीं। 

साफ़-सुथरी बेटी को पूरा गंदला मिट्टी और पानी में खेलने के लिए छोड़ कर गप्प में व्यस्त हो जाती। बच्ची गंदा पानी, बहुत ख़ुश होकर ख़ूब छपछपाती! मुँह में लेकर चूसने लगती। ताई दूर से देख-देख कर, सबका ध्यानाकर्षित करती कि देखो-देखो, राजीव-रागिनी की बेटी कैसे कर रही है?

जिससे कभी-कभी बीमार भी पड़ जाती। सर्दी-खाँसी, बुख़ार हो जाने पर, अपने पैसे की व्यवस्था पर दौड़ती हुई माँ, अक़्सर डॉक्टर के पास पहुँचती। 

काम ख़त्म होने पर वापस गंदगी और धूल में लिपटी बेटी को थमा दिया जाता। लो सँभालो अपनी बेटी! 

गंदे कपड़े बदल, मुँह-हाथ, पूरा शरीर साफ़-सुथरा करके माँ अपने कमरे में ले जाती। बुख़ार में तपते शरीर में भी बच्ची ताई की गोद में विवश पड़ी रहने को बाध्य रहती। पर ताई के दिमाग़ और ज़ुबान पर ये कभी नहीं आता कि बेटी बीमार है लो इसे सँभालो। मैं, रसोई और घर के काम सँभाल लेती हूँ। 

रसोई का काम भी छोटा-मोटा काम नहीं था। (सुबह-दोपहर-शाम) तीनों समय की घरेलू कुटिर उद्योग संबंधित व्यस्तताएँ भी थी। जिसकी प्रमुख ज़िम्मेदारियाँ सासु माँ पर, उनके बाद घर का प्रत्येक सदस्य अपने-अपने क्षमता के साथ सहयोग करता था। दस-बारह आदमी घर के सदस्यों के अतिरिक्त, अपने रिश्तेदारों के साथ-साथ बाहरी, गाँव और गोतिया के रिश्तेदार, मित्र, पड़ोसी, अड़ोस-पड़ोस के रिश्तेदार, चाहे कोई भी हो? ससुर जी के नज़र में पड़ गया तो बस यूँ ही राह मिलते हाथ पकड़ कर घसीट लाते। 

आज्ञा देने से पहले सेवा में हाज़िर होने वाली तत्परता की उम्मीद में कोई राहत नहीं। चाहे पत्नी या गृहिणी की बीमारी, अस्वस्थता में कोई छूट नहीं। थोड़ा सा विलम्ब, एक बड़े महाभारत के लिए पर्याप्त! बिग-फेंक, ताम-झाम क्रोधित होकर कुछ दिनों तक नकारात्मक वातावरण लिए वह घर कम, सार्वजनिक होटल ज़्यादा था। बाहरी दुनिया वालों के लिए सहज-सरल, शान्त किन्तु घरेलू जीवन में पत्नी-जवान बेटा तक को मार-पीट, गाली-गलौज के लिए भी आतुर झपटते। 

ससुर के स्वभाव से सभी अच्छी तरह परिचित थे अत: उनका जायज़-नाजायज़ फ़ायदा उठाने से भी कभी, कोई नहीं चूकता था। बावजूद सामाजिकता और अपने नाम-यश का प्रभुत्व जताने में चाहे कुछ भी हो जाए? उन्हें सब सहज-स्वीकार था। 

रसोई के कोयले वाले चूल्हे की आँच दिन भर भट्टी जलती रहती। जिसके कारण गर्मी से बेहाल घमौरियों भरे शरीर गृहिणी रहती। शाकाहारी-माँसाहारी विविध व्यंजनों और पकवानों की ख़ुशबू से घर-बाहर भरा रहता। 

बैठे-बिठाए मुफ़्त का अच्छा खाना, सुन्दर व्यवस्था, देखकर जो आ गया, आसानी से जाने का नाम न लेता। जब-तक कि उस अतिथि के अपने घर और जीवन में कोई अति आवश्यक व्यवधान ना पड़ जाए। 

मेहमानों की श्रेणी भी विचित्र! शायद ही कोई व्यक्तित्व ऐसा मिलता सौ में मुश्किल से एक-दो . . . जो शराबी-कबाबी ना हो। वरना वही मात्र खाने-पीने वालों का रक्त-शोषक जमावड़ा। 

विरोधस्वरूप अपनी सासु माँ के सामने जिस पर रागिनी ने सवाल उठाया।

पूरा मेहमाननवाज़ी के बाद कपड़े और जेब-ख़र्च अलग से। घर में कुछ कटौती सासु माँ करती तो बाहर में किसी से उधार-पैंचा लेकर दे देना परम कर्तव्य ससुर जी का। जिस उधारी को अक़्सर चुकाते रहो। 

घर में कोई भी व्यक्ति, मज़दूर काम करने आता तो उसकी आवाभगत ऐसे करते-कराते जैसे कि घर का दामाद हो वह! 

काम कम कराते। उसकी सेवा अति के हद तक करते। जिसके लिए ख़ुद तो परेशान होते ही, घर के प्रत्येक सदस्य को भी लपेटे रखते। जो आज्ञाकारी और विनयशीलता के दायरे में रहता, शारीरिक-मानसिक तौर पर उसे पीड़ित और प्रताड़ित करते हुए व्यस्त रखते। उम्र के आख़िरी पड़ाव पर भी दुकान पर मात्र इसलिए वह पहुँचते ताकि उनके पीने-पिलाने में कोई आर्थिक व्यवधान न पड़े। पीने भर पैसे का जुगाड़ हो गया मतलब आज की छुट्टी। फिर चाहे दुकान पर मौजूद बेटा चाहे जितना परेशान हो या आर्थिक नुक़्सान उठाए उससे कोई मतलब न था। 

पौ फटते नींद खुलते के साथ तिज़ोरी से पैसे निकाल कर बाज़ार का रास्ता पकड़ चल देते। रास्ते में शराब, चाय और पान, हर पाँच मिनट पर खाते-पीते-पिलाते जमावड़ा फैलाते, पॉकेट में बिस्किट, मिठाई, चॉकलेट जैसे खाद्य पदार्थों से परिपूर्ण प्रतिदिन में एक सप्ताह का फल-सब्जी-मिठाइयाँ लिए झोले में लौटते। लाकर उझलते कि साथ घरेलू या बाहरी कहीं भी कोई हो, उसे दे-देकर परेशान कर देते या फिर कुछ सामान बाज़ार से लाएँ हैं, तत्क्षण किसी काम में व्यस्त सासु माँ को आदेश पारित हुआ लेकिन उसे निपटाए बिना यदि नहीं आई तो वह सारा या तो फेंक दिया जाएगा या तो उस व्यक्ति के प्रति दे दिया जाएगा। पत्नी को कोसने लगना। अपशब्दों के साथ मर जाने की धमकी हर बात पर। बाद के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं। जो भी है तत्काल . . . तत्क्षण! जीवन उनके लिए एक बोझ मात्र था। ज्यों, वह जीकर अपनी पत्नी और बच्चों पर अहसान कर रहे हों। 

एक फ़ायदा गली-मुहल्ले, अड़ोस-पड़ोस के बच्चों का होता कि बड़ी सहृदयता से खाने की फल-मिठाइयाँ मिल जातीं। जीवन का वास्तविक सुख और आनन्दमय परिभाषा एकमात्र पेट! पेट! पेट! इसके अतिरिक्त भी मानव जीवन कुछ होता है? कोई मतलब नहीं। गृहिणी या बच्चों को अच्छे कपड़े, जूते-चप्पल या अन्य आवश्यक वस्तुएँ चाहिएँ जैसी बात दिमाग़ में उनके कभी आई ही नहीं। एक से दो महीना होने को हैं तो प्रभाव जमाने के लिए, अपना अभिमान संतुष्ट करने के लिए नया धोती-कुर्ता-गमछा, चप्पल, चादर जैसी आवश्यक वस्तुएँ ख़रीद कर नोटों का बंडल पाकेट में डाल; पान चबाते, पीते-पिलाते निकल पड़े महोदय! पर ठीक एक-दो दिन बाद वापसी में ठनठन गोपाल होकर लौटने का अनवरत क्रम कभी नहीं टूटा। नये कपड़े के जगह पर फटे-पुराने कुछ भी पहने, चापलूसों-रिश्तेदारों को दे-लेकर बड़ी मुश्किल से किसी तरह उनकी वापसी हो पाती। 

पर्व-त्योहार की साफ़-सफ़ाई में व्यस्त घर पर जिस दिन नाश्ता तैयार न रहे उस दिन बड़े प्रेम से बैठकर, “लाओ नाश्ता/खाना लाओ।”

जिस दिन समय पर चावल-दाल, रोटी पकवानों और विविध क़िस्म की सब्ज़ियों से रसोई सुगंधित रहती उस दिन खाने के लिए पूछने पर, “नहीं चाहिए। फलाने के दुकान पर पूरी-कचौड़ी/लिट्टी-चोखा/जलेबी/मिठाई खा कर, सत्तू पी कर आ रहा हूँ। तुम लोग खाओ-खाओ।” कहकर सोने चले जाते। 

देख-सुनकर मन सुलग उठता। 

ऐसे माहौल में दिल-दिमाग़ से सहयोगात्मक प्रवृति लिए जेठानी के आलस्य और ईर्ष्याखोरी की हद थी। कोई प्रसंग जेठ-जेठानी के परिचय के बिना अधूरा रह जाएगा। दोनों पति-पत्नी का! 

ना धन से, ना बौद्धिक विचार से, और ना ही काम से कोई सहयोगी मतलब रहता। 

आर्थिक-शारीरिक-मानसिक सहयोग से अछूते कर्त्तव्य-विहीन व्यक्तित्व मात्र अपने फ़ायदे के लिए जोंक की तरह केवल ख़ून चूसने के लिए यहाँ थे। प्राप्त सारे सुख-सुविधाओं के लिए मात्र कोई रिश्ता था। जहाँ सिर्फ़ “अधिकार . . . अधिकार . . .!” का हाहकार था और अभी तक है। कर्त्तव्य क्या होता है? इससे शून्य मन और मस्तिष्क! जब देखो लड़ने के लिए आतुर सींग उठाए भैंसे की तरह स्त्री रहती और पति उकसा कर मौन तमाशा देखता। बच्चे, भाई-बहन आपस में झगड़ रहे थे। उधर से गुज़रते बाबा ने बड़े बच्चे को ज़रा डाँट दिया। उन्हीं के बच्चे के लिए, उन्हीं का बच्चा डाँट खाया। घर पर उन तीन बच्चों के अतिरिक्त अन्य किसी का बच्चा अभी है भी नहीं। जबकि करुणा का आगमन भी नहीं हुआ था। बाबा-दादी, चाचा, फूआ सबके ध्यान का केंद्र-बिंदु हैं वह बच्चे! ज़रा सा स्वास्थ्य संबंधित कोई बात हुई दोनों चाचा साइकिल उठा कर डॉक्टर और दवा के लिए दौड़ पड़ते। भागदौड़ या माँ-बाप रूप में एक रुपए का बोझ ना पड़ता।

उन्हीं बड़ों के संरक्षण में पूरी तरह आश्रित पल बढ़ खा-पी कर मोटा रहे हैं बच्चे! ऐसे में बाबा ने डाँट दिया, “ऐ क्यों बाबू को मार रहे? बहुत बदमाश हो गए हो।” परिणामस्वरूप बच्चे ठिठक कर शान्त हो गए किन्तु उनकी माता का विद्रूप नाटक शुरू, ” बोलले तो बोलले काहे . . .? हँ . . .! हँ हमनी के, अउर हम्मर बुतरुअन के देख के बुढ़वा-बुढ़िया जर्रो है। सब के देखो हिए; फूटलो अँखियाँ ना सोहा है एखनी के। मर हेरा जाए हम्मर बुतरुअन। एही नियतिया है एहनी के . . .? जब देख बिष बोअते रहो है।” दाँत कटकटा कर हाथ-पैर मार-मार कर उछल रही।

ससुर तो बच्चे को एक वाक्य बोल कर पुन: बाज़ार का रास्ता नाप गए। सासु माँ कहीं रिश्तेदारी में कुछ दिनों के लिए गई थी। राजीव की अनुपस्थिति में राघव और रागिनी के सामने यहाँ और भी बहुत कुछ अनाप-शनाप गाली-गलौज देर तक चलता रहा। पत्नी उफन कर नंगा नाच कर रही है पति चुपचाप अनावश्यक बकवास बड़े प्रेम से सुनकर शान्तचित्त, मौन सहमति जता रहा है। घर का अशान्त वातावरण देखकर, देर तक सुनने के बाद रागिनी, जेठानी के सामने जाकर बड़ी मुश्किल से ही सही संयत होकर बोली, “भाभी! जब बुढ़वा-बुढ़िया आपको और आपके बच्चों को देखकर जलता ही है; तब सर्वस्व न्योछावर आप ही पर और इन्हीं पर हो रहा है। अभी राजीव के बच्चे ऐश-मौज कर रहें ? . . . कि राघव के ?. . . कि आपके . . .? क्यों ख़ून जला रहीं है अपना . . .? अभिभावक रूप में बोल ही दिए तो क्या हो गया? इतना हल्ला झूठ-मूठ का ज़रूरी है क्या . . .?” सुनकर भी वह शान्त नहीं हुई। यह देखकर जेठ की तरफ़ जाकर अनुनय की, “क्या भैया आप भी देख रहे हैं? बात का बतंगड़ बना कर तील का ताड़, राई का पहाड़ हुए जा रहा है। जाकर समझाइए ना!”

सुनकर, “हम्मे की बोलिए? ठिक्के तो बोलो है उ!” कहकर पल्ला झाड़ लिया। घर की अशान्ति में रागिनी और राघव थोड़ा असहज थे। अड़ोस-पड़ोस चारों तरफ़ अपयश फैला कर इधर सपरिवार नाश्ते, दोपहर और रात्रि के खाना यथासमय भरपेट खा कर बरतन सरका कर पुन: नाराज़गी का नाटकीय चादर ओढ़ लेते। माता-पिता सरबस खाकर निरबस करने पर तुले हुए हैं। बच्चे पूर्ववत बाबा के लाए हुए फल-मिठाइयाँ, बादाम, लड्डू और पेड़े का रसास्वादन कर रहे हैं। शराब की मादक गंध के बावजूद बच्चे, बाबा के पॉकेट लालच में और भी तलाश रहे हैं। उनके इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। घर के संपूर्ण राशन-पानी, रख-रखाव, रिश्ते-नाते की ज़िम्मेदारी राघव पर थी क्योंकि पिता के व्यवसाय का वही उत्तराधिकारी था। यहाँ राजीव अभी तक बेरोज़गारी झेलता संघर्षशील विद्यार्थी था। पर हाँ, अपनी उपस्थिति में बौद्धिक और शारीरिक सहयोग से नहीं चूकता था। जेठ की कमाई का वास्तविक सुख मात्र पत्नी और बच्चों के लिए था। ऊपरी कमाई रूप में पूर्ण बचत। खर्चें थे भी तो कहाँ? पत्नी की साड़ी ज़ेवर-गहने और शृंगार पर। किसी के पास कोई साड़ी, चूड़ी, शृंगार का कोई सामान नया दिख गया तो आनन-फ़ानन में बाज़ार से आना चाहिए नहीं तो ख़ैर नहीं। एक साड़ी एक महीने के बाद अगले महीने नहीं दिखने वाली; चाहे पाँच सौ की रहे या हज़ार की। घर के किसी सदस्य का कोई क़ीमती सामान, रुपए हाथ लग जाए तो झट से ग़ायब कर देने की प्रवृति माँ-बच्चों में। राजीव-राघव और बाबा के पॉकेट से कई बार पैसे ग़ायब हो जाते। पर मन मसोस कर रह जाना पड़ता।

ससुर, पति और देवर की लाई किसी वस्तु का उपयोग सार्वजनिक रूप में होता जबकि कुछ भी खाने-पीने का सामान जेठ छिपा कर उसके सामने से ले जाते। जेठानी और उनके बच्चों के अतिरिक्त एकमात्र वही थी अभी तक ऐसे में यह हाल है कि उनको अपने अगल-बग़ल, आगे-पीछे छिपाकर ले जाना पड़ता है वह भी समोसे-कचौड़ी जैसे छोटी-छोटी वस्तुएँ? 

यह मानसिक कुंठा नहीं तो और क्या? सब देख-समझ कर रागिनी को हँसी आती थी। कृतघ्नता का चरम हद और क्या होगा? जो परिवार द्वारा प्राप्त निन्यानबे प्रतिशत सुख-सुविधाओं को सम्पूर्ण समेट शून्य करके बड़ी बेशर्मी से कह जाता, “हम कोई के एक पैसा भी नहीं जानो हिए।”

अपने द्वारा किया गया एक प्रतिशत योगदान पर ऐसे अहसान जताते जैसे उस एक में सौ प्रतिशत वाली अहसान तले सम्पूर्ण परिवार चल रहा। इस सम्पूर्ण सृष्टि के कर्ता-धर्ता वह दोनों पति-पत्नी ही हैं। ”जहाँ ज़रूरत सौ रुपए देने की है वहाँ पाँच रुपए फेंकने के पहले ख़ूब कलह मचालो उसके बाद पिंड छुड़ालो” का उनका आदर्श ख़ूब काम आ रहा था। जिसपर दोनों क़ायम थे और हैं भी। आरोप-प्रत्यारोप करते वह दोनों या उनके बच्चे कुछ भी बिगाड़ दें। नाश दें। वह उनका अधिकार है। पर, बचाव में तुम एक शब्द मत बोलना वरना आँधी-तूफ़ान आ जाएगा। घनघोर उपद्रव पूरे परिवार में छोटी-छोटी बातों पर मचता रहे। अभिमान इतना कि हाथी की तरह चींटी रूप में मसल दें इतनी शक्ति! इतना ताव! इतना उबाल! 

जन्म उपरांत जीवन में करुणा पहली बार और आख़िरी बार ताऊ की कमाई का जानती है वह भी दादी के घिघियाने पर नब्बे रुपए का फ्राक आया, “हे बेटा ला दीहँ बुतरुआ खातीर। हम पैसा दे देबै बेटा। पहिल त्योहार! पहिल बरस है एकर जीवन के।”

होली के अवसर पर वह घिघिआहट रागिनी को एक पैसा ना भाया था। पर सास की चिरौरी और ज़िद के कारण स्वीकार करने की विवशता आई थी। कहा जाता है, “निकुटी से लो तो लो पर उकटी का नहीं लेना चाहिए।”

यह है महान व्यक्तित्व! 

जिसका आसान शिकार माँ-बेटी को बनाया जाता। इन सारी घटनाओं में एक साहसिक क़दम रागिनी का ये था कि वह इस घर में आते ही स्पष्टवादी शब्दों में कह दिया था कि वह ना तो माँसाहारी है और ना माँसाहारी भोजन से संबंधित कार्यों में कोई सहयोग करेगी। चाहे कुछ भी हो जाए, जब भी कुछ ऐसा रसोई में बनेगा तो पूरी तरह साफ़-सफ़ाई करके देने के बाद ही वह रसोई में क़दम रखेगी। 

एक शाम रसोई के कामों को निपटाने के बाद दादी से वापस लेकर बेटी को कमरे में दूध पिलाने की कोशिश की, पर वह निढाल होकर सो गई। तो उसकी माँ ने आराम से सोने के लिए छोड़ दिया। 

उसके बाद वो अन्य घरेलू कामों को जल्दी से निपटाने लगी। रात के लगभग नौ बजे तक में भयंकर चीख के साथ करुणा जगी और करुण-क्रंदन जो ठानी . . . सो विराम ही ना ले। 

रोते-रोते आधी रात हो गई। उसको बहलाने-फुसलाने के सारे प्रयास निरर्थक साबित हो रहे थे। क्या किया जाए? सोच-समझ से बाहर था कि आख़िर क्या हुआ?

पूरा मुहल्ला इकट्ठा कर ली। सभी अपना-अपना विचार व्यक्त कर रहे थे। पर बेटी का रोना ना थमा। 

तभी एक महिला बोली, “कहीं (बच्चे की हँसुली फँस तो नहीं गया) गर्दन की हड्डी इधर-उधर तो नहीं हो गया? शाम को आप जो गर्दन पकड़ कर उठाई थी ना?” 

उसने याद दिलाया पूरे ज़ोर से झकझोरती हुई दादी को। 

रागिनी जो बेटी की हालत पर स्तब्धता में रुआँसी थी। वो पूरी स्थिति के बारे में जानकारी ली तो पता चला कि शाम को जब माँ रसोई के कामों में व्यस्त थी, दादी, पोती को लेकर बाहर चबूतरे पर अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं के साथ बैठी बातों में तल्लीन थी। तभी बगल वाली कोई महिला ने ध्यान दिलाया, “अजी इस बच्ची का गर्दन तो बहुत छोटा है।” (इस बात पर ध्यान दिए बिना, पूरी तरह से हृष्ट-पुष्ट बच्चे की गेड़ियाँ तो वैसे ही बनी रहती है) तो फिर क्या किया जाए? पर भी विचार-विमर्श हुआ। 

जैसे उसने करके दिखलाया; पुनरावृत्ति स्वरूप में उसी क्रम में पोती का सिर पकड़ कर दादी ने टाँग दिया था। 

दादी के मुखारविंद से जिसके बारे में तब से अब तक में एक भी शब्द इस विषय पर नहीं फूटा है।

कोई अन्य दोषी होता तो अबतक फाँसी टाँग चुकी होती, सर्वोच्च न्यायालय का जज बनकर, “हाय-हाय मार डाली बच्चे को!” (कहती छाती पिटती हुई) 

ख़ैर भेद फूटा तो झट से बच्चे को लेकर सभी हँसली बिठाने वाली धाय के यहाँ दौड़े। 

आधे-पौने घंटे बाद लौटने पर शान्त बेटी रह-रह कर सिसकियाँ भर रही थी जो अपनी माँ के गले लिपट कर शान्त हुई थी। तब जाकर जान में जान आई थी सभी की। 

एक बार सासू माँ के मायके में कुछ विशेष आयोजन के कारण कुछ दिनों के लिए मायके जाने की विवशता आई, तो किया क्या जाए?

ठीक है जाइए मैं सँभाल लूँगी! आश्वस्त करके भेज दिया। इधर जेठानी गाँव के गोतिया के घर के विवाह आयोजन में व्यस्त अपने बाल-बच्चों के साथ भरपेट खाना खाकर पूरे दिन भर के लिए ग़ायब हो जाती, और शाम ढले रात के खाने के लिए वापस लौटतीं।

घर में छोटे बच्चे के साथ घरेलू काम की विवशता से उनको क्या? घर में एक नौकरानी है ही, जो मुफ़्त में उपलब्ध है, से ज़्यादा वाली और कोई भावना नहीं थी उस दिमाग़ में। 

गर्म तपती रसोई में कोई जीवित है भी या मर गया? देखने-समझने के लिए, झाँकने से भी कतराते हुए निकल जातीं। 

एकाध बार मदद की कर्त्तव्यशीलता समझाने पर टका सा जवाब सुना दिया था बड़ी बहू ने, सास को, “मैं क्यों मदद करूँ? मेरे समय में कौन मदद करता था?” 

ससुर जी के मुफ़्त वाले होटल में पाँच-पाँच सदस्य अपने, तुम्हारे कल भी थे और आज भी आधे-परिवार में खाने वाले का विचार करने का कष्ट भला कौन पाले? 

ज़बरदस्ती वाला स्वार्थी और झगड़ालू स्वभाव जिसमें कर्त्तव्यहीन अधिकार की प्रबल भावना-संभावना थी। 

मौक़ा मिला नहीं कि अशान्ति मचाने को तत्पर सास-ससुर सभी से। वैसे में, ये नई सदस्य से पंगा लेने का कोई अवसर नहीं मिल रहा था जो कि बेटी की माँ थी। 

प्रतीक्षारत शाम होने लगी अंत में थक-हारकर बेटी को पड़ोसन के पास बिठाकर जल्दी-जल्दी काम निपटाने की कोशिश कर ही रही थी कि सीढ़ियों से नीचे गिरकर मुँह फोड़े (नये दाँत से होंठ कटने के कारण) पड़ोसन! लहुलुहान करुणा को गोद में वापस पटक गई। 

“देखो ना। सीढ़ियों पर चढ़ते हुए गिर गई करुणा।”

देखकर फ़िक्रमंद और क्रोधित मन, अशान्त तो हुआ लेकिन आत्मसंयम बरतने में ही भलाई थी। 

बावजूद इसके सत्य बोलना भी ज़रूरी था। त्याग और बलिदान बेटी की क़ीमत पर अस्वीकार करती हुई, रागिनी सारे काम छोड़ बेटी को गोद में उठाकर बैठ जेठानी की प्रतीक्षा करने लगी। 

“जब आएँगी तभी काम होगा वरना आज भूख-हड़ताल! सभी के लिए हल्ला-बोल! या तो घर का चूल्हा-चौका सँभालो या मेरा बच्चा!”

देर शाम ढले भूखी-प्यासी तेज़ क़दमों से लौटती बाल-बच्चों समेत जेठानी हाथ-पैर धोते हुए पूछती हैं, रसोई की तरफ़ देखते हुए, “क्या बनाई है रात के खाने में माँ-बेटी?”

सुनकर संयमित पर निर्भीक रागिनी ने कहा, “बेटी मुँह फोड़कर, माँ के साथ आज अनशन पर बैठी है। जिसको खाना है वो पूरा मदद करने के बाद ही खा पाएगा। नहीं तो भूखे पेट शुभ-रात्रि!”

स्थिति की गंभीरता को भाँपते हुए चुपचाप जेठानी फटाफट मदद करने के लिए आगे बढ़ी तब जाकर पूरी व्यवस्था हो पाई। 

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