रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 13

इधर सप्ताह भर से दर्द बढ़ गया था। रह-रह कर दर्द उभरता और चला जाता। माँ-बेटी द्वारा घर में एक अलग कमरा प्रसूति गृह रूप में पूरा ख़ाली करके साफ़-सफ़ाई किया गया। उस कमरे में न्यूनतम आवश्यकता भर व्यवस्था की गई ताकि साफ़-सफ़ाई और छुआ-छूत वाले झमेले की सीमा किसी हद तक क़ायम रहे। 

एक बड़ी लकड़ी की चौकी पर साफ़ कंबल और चादर डाल दी गई। दादी अपने बेटे की परछाईं रूप में पोते को देखने के लिए आतुर थीं। हालाँकि पोती की सम्भावना के लिए भी तैयार कर दी गई थीं। उनमें पहली संतान रूप में सहज-स्वीकार्य भाव था। दादी ना भी स्वीकारें तो भी माता-पिता को बेटे-बेटी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला था। उनके लिए शारीरिक-मानसिक स्वस्थ बच्चा सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी। 

दिन भर में एक बार हाल-चाल जानने के लिए राजीव, रागिनी के पास उपलब्ध नोकिया मोबाइल पर कॉल कर लेता। जो रागिनी के लिए ही कभी 5700₹ की अपने ट्यूशन के जमा पैसों से ख़रीदारी की थी। जो कि छोटी रक़म नहीं थी। 

उन दिनों मोबाइल बहुत कम लोगों के पहुँच की चीज़ थी। जिसके पास मोबाइल होता बहुत प्रभावशाली माना जाता। प्रारंभिक दिनों में प्रति मिनट कॉल दरें भी बहुत महँगी थीं। कर्ता और प्राप्तकर्ता दोनों के पैसे कटते थे। 

राजीव का रागिनी के प्रति इस प्रकार की छोटी-बड़ी कोशिशों के कारण ही सास की कटाक्षपूर्ण टिप्पणी का सामना करना पड़ता था। और भी एक कहानी है उसी मोबाइल पर जिस पर चर्चा करना रोचक होगा। 

भारत के किसी कोने में परीक्षा के लिए गए राजीव से संपर्क का एकमात्र आवश्यक माध्यम मोबाइल था। राजीव के पास मोबाइल है। यह बात उसके निकटतम लोगों को ही पता थी। 

समयानुसार कम आर्थिक स्थिति की वजह से प्रयोग ना करने की आपसी समझदारी भरा क़दम या बंद रखने की कुछ विवशता थी। आवश्यकता पड़ती तो गाहे-बगाहे पैसे रिचार्ज करवाया जाता नहीं तो रहने दिया जाता।

किसी दिन राजीव के चचेरे भाई उसके घर आए। जो अपने परिवार के साथ किसी तरह खेती-किसानी, मेहनत-मज़दूरी करते हुए बमुश्किल जीवनयापन वाली आर्थिक स्थिति वाले थे। 

बातों-बातों में ‘मोबाइल कैसा होता है’? कहकर देखने के लिए माँगा। देखते-देखते नियत बदली तो प्रयोग करने का तरीक़ा सिखाने के लिए बोले; प्रयोग करते हुए और हिम्मत बढ़ी तो राजीव से माँगकर लोगों में धौंस जमाने के लिए गाँव लेकर चले गए। 

रागिनी इन सब बातों से अनभिज्ञ थी। इतने दिनों में ना ज़रूरत पड़ी और ना ही दोनों में भूलकर भी इस विषय में कभी कोई भी चर्चा हुई थी। 

रागिनी के परिवार वाले अक़्सर फोन करके हाल-चाल ख़बर लेते रहते। बड़ा परिवार होने से गाहे-बगाहे कॉल आती रहती। अड़ोसी-पड़ोसी के मोबाइल पर और बदले में बीस-पच्चीस जो भी क़ीमत दर का संदेश मिलता तत्क्षण चुका दिया जाता। पर सबकी सहयोगी मन-मानसिकता सदैव एक सी नहीं रहती। ऐसे में कभी-कभी बहुत ज़्यादा ज़रूरी पल को दूसरे अनदेखा-अनजाना कर टालने का प्रयास कर देते हैं। फोन पर फोन; बहन करती रही। STD पैसे भी कटने के बावज़ूद बात ना होने पर वह खीझ कर डाँटने लगी। 

बात किसी तरह रागिनी तक भी पहुंँची। मान-स्वाभिमान रूप में रागिनी ने आहत होकर हर महीने मोबाइल रिचार्ज करवाने का निर्णय लिया। तब तक स्कूल में पढ़ाने लगी थी तो राजीव को फ़रमान जारी कर दिया, “लीजिए यह पैसे! मेरा मोबाइल रिचार्ज करा दीजिए।”

पर मोबाइल पास हो तब तो, रिचार्ज करवाने की नौबत आए। 

सवाल-दर-सवाल खुलते परत सारा भेद फूटा। फिर एक महाभारत राजीव-रागिनी के बीच में उठना स्वाभाविक था। रागिनी की अनभिज्ञता में मोबाइल को गए महीने गुज़र चुके थे। आज उसे पता चल रहा। सारी खीझ उसे इसी बात की हो रही थी। पति-पत्नी के रिश्ते में बात-विचार की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है जो जोड़ने के लिए अत्यावश्यक कड़ी है। आज बिना पूछे-बताए आप मोबाइल दिया है कल कोई और वस्तु दे देंगे। ये कहाँ तक उचित होगा? 

“उन्हें ज़रूरत थी!” 

“आपको नहीं है? . . . आपकी पत्नी को नहीं है? . . . ज़रूरत तो और भी उन्हें बहुत कुछ की है। क्या-क्या देंगे दानवीर कर्ण? आपकी ये दानशीलता मुझे पसंद नहीं आई। क्या आप दूसरों के लिए ख़रीदे थे या मेरे लिए? इस मोबाइल के लिए आप व्यंग्यात्मक एक से एक भयंकर बातें सुने हैं या मैं?” 

“मेरा चचेरा भाई ले गया तो क्या हो गया? मैं उसे ना नहीं कह पाया।” 

“ठीक है! आपके भाइयों को मैं पसंद आऊँगी तो मुझे भी दे देना। कल दोस्तों को उधार बाँट देना क्योंकि आप ना . . . नहीं कर सकते हैं। जिसके पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना असंभव है। आपसे भी गई-गुज़री स्थिति में जीवन-यापन कर रहा, जो सिर्फ़ नशे एवं दिखावे वाली, प्रर्दशन-प्रियता की तुष्टि के लिए माँगा और आप सौंप दिए। एक बार भी मुझसे पूछना उचित नहीं समझा आपने! मुझसे बात करने के लिए मेरी माँ-बहन किसी और के भरोसे क्यों रहे? आज और अभी लाकर दीजिए मेरा मोबाइल!” 

गर्भावस्था का उद्वेलन; पारिवारिक दबाव; पति-पत्नी का असंतुलन; आहत आत्म-सम्मान! सबकी खीझ एक ही बार में राजीव का ग्रह बनकर उतरी। मुख्य विपक्षी की भूमिका लिए सासू माँ अपने बेटे के पक्ष में रागिनी के विरुद्ध आंदोलन कर अपनी समझ भर बोलती रहीं। जनसमर्थन जुटाई रखीं। 

अपनी नौकरी से सम्बंधित काग़ज़ी कामों के लिए समय मिलने पर राजीव जब अपने गाँव गया तभी मोबाइल आ पाया। जो रिचार्ज शुरू हुआ तो अनवरत होता गया। साढ़े तीन सौ रुपए की मासिक ख़र्च नियत था इसके अतिरिक्त रागिनी अपने पैसे से पॉवर पैक कराती रहती। अलग-अलग कंपनियों की कॉल दरें अलग-अलग एक दूसरे का प्रतिस्पर्धात्मक दर अलग, यह भी एक मुसीबत था। सबसे परे अभिन्न हिस्सा बन गया था जब-तक कि 999 रुपए आजीवन लाईफ़-टाईम इनकमिंग सुविधा शुरू नहीं हुई थी। उस नौ सौ निन्यानवे के लिए भी आम आदमी को सौ बार सोचना पड़ता था। उस फोन का ज़बरदस्त फ़ायदा राजीव का पूरा ख़ानदान बेशर्मी की हद तक उठा रहा था मिसकॉल पर मिसकॉल मार कर लोग फोन करवाते। फोन से संबंधित कटाक्षपूर्ण व्यवहार करने वाली माँ-बेटी भी उचित-अनुचित लाभ ले रही थीं। 

हाँ, तो बात हो रही थी, प्रसूति कक्ष की तैयारियों और रागिनी के प्रसव-वेदना की। जिसकी फ़िक्र में राजीव रात को एक बार ज़रूर कॉल ज़रूर कर लेता। रागिनी के सिरहाने में रखा मोबाइल बज उठता। 

एक बार में एक-दो-ढ़ाई मिनटों की बात ही सही दोनों पति-पत्नी के आश्वासन के लिए राहत भरे पल होते। दोनों एक-दूसरे के प्रति फ़िक्रमंद प्रार्थना करते। हे ईश्वर सब अच्छा-अच्छा करो! यहाँ संतान और रोज़गार, दोनों ख़ुशी एक साथ जो मिलने वाली थी। 

शाम से बढ़ते दर्द की बात रागिनी बोली . . . तो सुनकर राजीव ने कल होने वाले मेडिकल चेक-अप के बारे में बताया। दर्द की छटपटाहट में भी रागिनी, राजीव के मेडिकल जाँच के लिए सकारात्मक परिणाम की उम्मीद कर रही थी। राजीव की चिन्ता होनेवाले माँ-बच्चे के प्रति बरक़रार थी। 

पूरी रात मुश्किलों भरी रही। सुबह-सुबह डॉक्टर के लिए दौड़े लोग। तीन-चार सरकारी-निजी डॉक्टरों के यहाँ से ख़ाली हाथ लौटकर आना पड़ा। प्रशिक्षित धाय पल-पल की सहयोगिनी बन कर साथ थी।

गर्भाशय में पानी की कमी है। पानी चढ़ाना पड़ेगा। घर पर ही हॉस्पिटल वाला माहौल था। जल्दी से जल्दी व्यवस्था की गई। एक-एक मिनट हज़ार गुणा भारी प्रतीत होता। जीवन-मृत्यु का संघर्ष बन कर सामने खड़ा था। अकेला पुरुष सदस्य देवर दवा एवं अन्य व्यवस्थाओं के लिए भाग-दौड़ कर कर रहा था। नशे में धुत्त ससुर जी आते-जाते लोगों के लिए उस समय भी अपनी आदतन, चाय-नाश्ता-मिठाइयाँ खिलाने में व्यस्त थे। 

प्रसव में अभी और समय है। सुनकर डरती हुई उफ़्फ़ और कितनी देर होगी? अब मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। 

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