रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 25
समय बढ़ रहा था। करुणा धीरे-धीरे लेटे रहने वाली बच्ची से उलटती-पलटती, बैठना सीखने लगी। जैसे नींद खुलती, माँ के चेहरे पर चूमती, नाक काटती। आँखों, नाक, कान में उँगली डालती। माँ उठ! माँ उठ! कहकर अपने मांसल हाथों से चटाक-चटाक मारती। या माँ के सिर से ख़ुद टकरा जाती और फिर . . . रोना शुरू . . . माँ ऽ ऽ . . .। धीरे-धीरे बैठने के बाद घुटनों के बल चलने का प्रयास भी अद्भुत रूप में शुरू।
छह महीने के बाद बाहरी भोजन के रूप में दाल पानी, साग पानी, हलवा, खीर खिलाने का कठोर प्रयास में रागिनी भयंकर रूप में असफल रही। बच्ची इतना कठोर मुँह बंद करे कि खोलना मुश्किल। मुँह में किसी तरह ज़बरदस्ती डाल भी दिया गया तो पाँच-पाँच मिनट तक कंठ पास जमा रखती और जैसे ही अवसर मिला नहीं कि उगल कर मुँह से बाहर . . . दो-चार चम्मच खाने-खिलाने में आधा घंटा समाप्त। खाना खिलाने वाली माँ रागिनी और ना खाने की ज़िद में अटकी करुणा का विचित्र संघर्ष!
कटोरी चम्मच पर तब तक जेठानी के बच्चों की गृद्ध दृष्टि लगी रहती।
”आंटी! . . . आंटी! . . . खा लें हम?” सुनकर!
करुणा के प्रति, फ़िक्रमंद माँ रूप में खीझती। “ले जाइए बेटा!” कहकर दे देती। और वो बच्चे प्रेम से ईश्वरीय प्रसाद समझकर खाते। ऐसा ही अक़्सर होता। रागिनी बड़े यत्न से अपने ज्ञान-विज्ञान के साथ विविध प्रयोग करती हुई स्वाद बदल-बदल कर खिलाने का असफल प्रयास करती।
एक दिन पड़ोसन के बहन की बेटी साथ सम-वयस्क बच्ची के साथ देखा-देखी में करुणा ने पहली बार सेरिलैक्स का घोल खाया। खिलानेवाली, बहुत जल्दी ही अपनी धारणा बना कर माँ रागिनी समक्ष अपनी प्रतिक्रिया दे रही, “कहती हो कि बेटी नहीं खाती है। कंजूसी करने पर बेटी क्या खाएगी? कभी सेरिलैक्स खिला कर देखो। गट-गट खाई है मेरे घर पर।”
एक बेचैन माँ और क्या चाहे? किसी तरह बेटी खाना शुरू तो करे? उसी समय पैकेट पर लिखित सूचना देख-समझ कर, पर्स उठाकर बाज़ार दौड़ी रागिनी! विचार करती हुई झट से लाकर रख दी। कुछ तो अपनी पसंद से वह खाएगी। बेटी के सो कर उठने पर, घोल कर खिलाने की कोशिश की। पर फिर असफल रही। उन पड़ोसन को चम्मच कटोरी देकर कहा, “लीजिए अब खिलाइए।”
वह जो बड़ी-बड़ी बातें कर रही थी ख़ुद हतप्रभ रह गईं। एक-दो चम्मच बड़ी मुश्किल से खाकर उल्टी कर दी। माता के हृदय में इसी तरह बाद के अन्य प्रयासों की असफलताओं के कारण एक अलग चिन्ता और खीझ उभरती। वह सेरिलैक्स का पैकेट जिस तरह खुला वह जेठानी के बच्चों ने और कुछ श्वेता की बेटी ने वसूल किया।
घर की घी चुपड़ी रोटियों के टुकड़े में वह स्वाद नहीं मिलता; जो उन पड़ोसन की रोटियों में होती। बिना दाँत के भी वह मसूढ़ों की सहायता से नन्हा-नन्हा टुकड़ा कुतर कर के खा लेती।
दूसरे घर भी आसपास थे पर उसे किसी से कोई मतलब नहीं था बस उनके घर के लिए सरपट भागती सरकती, घुटने के बल चलती हुई। इस क्रम में पीछे-पीछे मुड़कर देखती कि कहीं कोई आ तो नहीं रहा? जब कोई आते हुए नहीं दिखाई देता तो बड़े आराम से आगे बढ़ती। पर जैसे ही देखती कि कोई पीछे से आ रहा तो घुटनों के बल चलती हुई सरपट भागती। अपनी विजित मुस्कान के साथ जो उनके घर में घुसने के बाद ही थमती। महान ससुर जी के द्वारा घर के बग़ल में गोतिया का परिवार बसाया गया था। जिसके परिवार द्वारा जान-बूझकर कर अपने घर का सारा गंदा पानी, नाली में गिराने के बदले में बीच सड़क पर लुढ़का दिया जाता। ताकि आने-जाने में बच्चे को परेशानी हो। जिससे बच्चे को क्या? वह तो निष्पाप हृदय वहीं जाए, जहाँ से प्रेम मिले।
प्रत्येक आधे घण्टे पर कपड़े बदल कर माँ रागिनी हाथ-मुँह साफ़ करती रहती। बच्चे नक़लची होते हैं। चाहे हाव-भाव से या ध्वन्यात्मक जिस रूप में ही सही। यह बात अबोधपन से ही उभरने लगी थी। करुणा को गोद में लिए जैसे भी रागिनी करती; वह बहुत ध्यान से देखकर आमने-सामने अनुकरण करती जाती।
उन्हीं दिनों एक घटना घटित हुई थी। एक बिल्ली के बच्चे हुए थे। जिनमें से एक बहुत ही शरारती उछल-कूद मचाता रहता। एक दिन छत की मुँडेर पर खेलते हुए, दो मंज़िलें से नीचे गिरा; सो कभी नहीं उठा और उसकी माँ म्याँऊ-म्याँऊ करती अपने बच्चे को ढूँढ़ती रहती। जो जीवित थे उसके साथ-साथ आगे-पीछे करते। पर वह बच्चा तो गिर कर मरा और साफ़़-सफ़ाई करने वाले के द्वारा फेंकवा दिया गया था। परन्तु आसपास चक्कर लगाती; आवाज़ देती हुई माता बिल्ली उसे ढूँढ़ती रहती। बिल्ली के थन से दूध जैसा गिरता हुआ प्रतीत होता। ये पूरे मुहल्ले के लिए चर्चा का विषय बना हुआ था।
बहुत ग़ौर से करुणा उसे जिज्ञासु दृष्टि देखती और पूछने पर “माऊँ” कहकर नक़ल करने की कोशिश करती।
“कौन है वह बेटा?” पूछने पर इधर-उधर देखकर; माऊँ कहकर दुहरा देती।
पड़ोस की एक लड़की मीरा, जिससे करुणा बहुत घुली-मिली हुई थी। वह अक़्सर आकर करुणा को अपने घर ले जाकर खेलाती और रोने पर या थक कर सो जाने पर वापस दे जाती। अलग-अलग परिवार की होने के बावजूद दोनों को एक साथ देखने पर एक-दूसरे की परछाईं सी प्रतीत होतीं।
लोग मज़ाक में कहा करते, “करुणा को कौन कहेगा कि रागिनी और राजीव की बेटी है? ये तो मीरा की बेटी लगती है। शादी के बाद इसे दहेज़ में ले जाएगी मीरा! है ना मीरा?”
सुबह-शाम रागिनी अपनी गर्भावस्था में सोते-जागते मीरा को ही तो देखती थी। जिसका प्रभाव करुणा के रूप-रंग पर पड़ना स्वाभाविक था।
एक सन्ध्या, जब रागिनी घरेलू कामों में व्यस्त थी। जाने कब सो कर उठी, करुणा ग़ायब थी। उसे ढूँढ़-ढूँढ कर सभी थक गए थे। कमरे से घर-बाहर, चारों तरफ़ खोज लिया गया। रागिनी घबराहट में, अपनी बेटी के लिए अब रोने ही वाली थी।
छत की मुँडेर पर रक्षात्मक सीमेंट की बनाए गए घेरे से झाँकती हुई करुणा की तभी आवाज़ आई, “माँ ऽ ऽ माँ ऽ ऽ”।
आवाज़ छत से आ रही थी। करुणा जाने कब एक-एक सीढ़ियों को चढ़ती हुई पच्चीस-तीस सीढ़ियाँ चढ़ गई थी। एक माँ रूप में रागिनी के लिए जो सोच-समझ कर भी डराने वाली बात थी।
“मेरी बच्ची!” कहकर दौड़ने वाली थी कि तभी बेटी की सुरक्षा का ध्यान आया और फिर ख़ुद को संयत रख कर धीरे-धीरे आगे बढ़ी। ताकि बच्ची घबराहट या ख़ुशी में सीढ़ियों से उतरने के प्रयास में नीचे गिर ना जाए। माँ को देखकर वह विचित्र विजित मुस्कान में उछल पड़ी।
गोद में उठा कर कहा, “हे ईश्वर! कुछ भी हो सकता था। फिसलने का ख़तरा या कुछ भी . . .?” सोच कर रो पड़ी। और इसके बाद अन्य परेशान लोगों को सांकेतिक सूचना दे दी कि बच्ची छत पर सुरक्षित है।
सभी अचंभित थे कि इतनी छोटी बच्ची छत पर कैसे पहुँच गई? जो अभी तक मात्र सात से आठ महीने की है। हालाँकि रागिनी शाम को अक़्सर गोद में लिए करुणा को छत पर ही गुज़ारती थी। पर अकेली करुणा?
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