रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 16

राजीव बेटी के जन्म की ख़बर सुनकर, जल्द से जल्द आने का वादा कर निकल चुका था इसलिए राजीव और रागिनी के संवाद हुए दो दिन बीत चुके थे। दोनों को एक-दूसरे की फ़िक्र थी, जिससे एक-एक पल बड़ी मुश्किल से गुज़र रहा था। 

रात के साढ़े आठ-नौ बजे के लगभग चेन्नई-हावड़ा रूट होते हुए नज़दीकी बड़े रेलवे स्टेशन भागा-दौड़ा पहुँचा था। फिर वहाँ से शाम की लोकल ट्रेन से घर आया। 

मालिश के बाद दूध पिलाकर नवजात शिशु को तुरंत सुलाया गया था। जूतों की धमक पर नवजात ने आँखें खोल कर अपने पिता के धमाकेदार स्वागत की तैयारियाँ कर ली थी। आते ही जूते खोल, अपने कमरे में सारा सामान फेंक कर सांकेतिक रूप में पूछा, “माँ-बेटी कहाँ है?” 

प्रसूति कक्ष की तरफ़ इशारा किया गया। जिसे देख-समझ कर अंदर की ओर वह भागा। उसकी आतुरता देख कर माँ ने टोका, “अरे बेटा कहाँ-कहाँ से भटकता, भागता-दौड़ता पहुँचा है। प्रसूति कक्ष में ऐसे नहीं घुसते। पहले हाथ मुँह तो धो ले बेटा! फिर उसके बाद बच्चे को छूना।” सुनकर उल्टा पाँव लौट कर कुएँ पर स्नान कर, कपड़े बदल कर जल्दी से उस कमरे में भागा। 

“अरे बेटा पहले खाना तो खा ले। जाने कब का खाया-पीया होगा?” चिंतित माँ ने आवाज़ दी। 

“पहले तुम लोग खा लो। अभी थोड़ा रुक कर खाऊँगा,” माँ को टालते हुए उसने कहा और झट से उस कमरे की ओर भागा। राजीव की अनुपस्थिति में उपलब्ध देखभाल और प्रसव की कमज़ोरी रागिनी के चेहरे और शरीर पर साफ़-स्पष्ट झलक रही थी। 

जिसे देख-समझ कर बाँहों में भरते हुए राजीव ने कहा, “बहुत कमज़ोर हो गई हो!”

“आप आ गये हैं ना! बहुत जल्दी ठीक हो जाऊँगी।” 

“सूखे मेवे और फल हैं कि ख़त्म हो गए?” 

“पता नहीं। मैं तो यहाँ पर रखी गई हूँ, पूरे बीस दिनों के लिए।” 

“ठीक है जल्दी ला दूँगा। तुम्हारे लिए बहुत बढ़िया अनार लाया हूँ। कमज़ोरी दूर करने और शरीर में रक्त के लिए अनार बहुत फ़ायदेमंद होता है ना?” पत्नी को आश्वस्त करने के बाद छोटी मच्छरदानी हटाकर नन्ही बेटी को देखा जो पिता से परिचय प्राप्त करने के लिए आँखें खोलकर टुकुर-टुकुर देख रही थी। “अरे यह तो जगी हुई है” कहते हुए गोद लेने का प्रयास किया। 

जिसे देख-समझ कर रागिनी ने टोका, “अरे, रुकिए ज़रा सावधानी से। ऐसे लेते हैं बच्चे को!” कहते हुए उसने एक हाथ बच्ची के गर्दन पास सहारा देते हुए और दूसरे हाथ से बच्ची के कमर पास हाथ लगाकर बड़ी सावधानी और नाज़ुक भाव से उठाकर राजीव के गोद में दी। 

कुछ देर तक भाव-विभोर देखता हुआ मानसिक तुलना करता रहा और फिर पूछ बैठा, “अरे ये किसके जैसी है?” 

“बच्चे अपने जन्म से लेकर बड़े होने तक में जाने कितनी बार रूप बदलते रहते हैं। कभी आप जैसी लगेगी। कभी मेरे जैसी। आपके और मेरी पीढ़ी की अगली कड़ी है ये, जो बारी-बारी से दिखाई देगा इसके रूप-रंग और व्यवहार में, हमारे सात पुश्तों की झलक मिलेगी।” 

“ये तुम्हारे जैसी है।” 

“नहीं जी, ये आपके जैसी है। सभी तो यही कह रहे हैं।” 

“मुझे तो तुम्हारे जैसी लग रही है।” 

“अच्छा सुनो?” कुछ शरारत का मन बना कर, रागिनी को चिढ़ाने के लिए कान पास फुसफुसाते हुए राजीव बोला, “अरे यार! माना कि सात पुश्तों का प्रतिनिधित्व प्रत्येक शिशु करता है। पर, जिसके यहाँ माँ की बेईमानी का फल बच्चा . . . हो तो?” 

“जान ले लूँगी, शैतान की खोपड़ी! . . .” रागिनी ने चिढ़कर झपटते हुए कहा। 

“अरे वाह! बाघिन कमज़ोर है पर झपटना नहीं भूली।” 

दोनों के आपसी शरारत के क्रम में तब-तक बच्ची अपना नैपी गीला करके रोने लगी। 

“बकवास बंद कीजिए। देखिए आपकी बातें पसंद नहीं आई बेटी को,” कहकर उसका नैपी एवं अन्य गीले कपड़े बदलने लगी। 

बदलने में सहायता करते हुए राजीव अपने पास खींच कर बहुत क़रीब बिठाते हुए कहा, “अच्छा एक और दुविधा दूर कर दो ना मेरी!”

बैठने में होते दर्द और परेशानी की सिहरन के साथ रागिनी ने पूछा, “क्या?” 

“यही कि बच्चे, माँ या पिता पर हुए तब तो समझ आता है कि माता-पिता के जैसे हैं। पर दोनों में से किसी अन्य पर चले गए तब क्या?” 

सुनकर उत्पन्न खीझ को सँभालते हुए, रागिनी बोली, “परम प्रिय मेरे विद्यार्थी जी! बच्चे, माता-पिता के अतिरिक्त किसी अन्य चेहरे पर गए तो हमारे या आपके सात ख़ानदान के आनुवंशिक गुणों में से किसी की भी पुनरावृत्ति हो सकती है। या फिर जब स्त्री अपने मासिक स्नान के बाद जिसे भी देख ले उस माह में ठहरा बच्चा बुद्धि-विवेक या नाक-नक्श उसी जैसा हो सकता है। चाहे वो कोई भी हो अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार! इसीलिए मासिक स्नान के बाद पति को देखने की या ख़ुद को देखने की अनिवार्यता है। तभी तो बार-बार मैं ये दुहराती थी। अन्य सावधानियाँ इसके प्रति रखती थी।” 

“तुम्हें कैसे पता चला ये सब?” 

“मात्र पढ़ने के अतिरिक्त! आपकी अनुपस्थिति में मैं करती क्या हूँ? राजा रणजीत सिंह और उनके एक सिपाही पर आधारित कहानी में विस्तार से वर्णित है। जिसके आधार पर चर्चा है कि रजोनिवृत्ति स्नान के बाद स्त्री जिसे भी देखेगी उस माह ठहरे बच्चे पर उसका शारीरिक और मानसिक प्रभाव पड़ता है। इसके लिए कोई ज़रूरत नहीं कि बाहरी आदमी से सम्बन्ध ही बने।” 

चिढ़ाते हुए राजीव मुस्कुराया, “क्या सचमुच ऐसा होता है? कैसे भरोसा कर लूँ?” 

“आपको ख़ुद पर या मुझ पर या हमारी संयुक्त क्षमता पर कोई शक है क्या . . .?” 

“नहीं रे अक़्सर लोग तरह-तरह की बातें करते हैं या अफ़वाह उड़ाते हैं तो जिज्ञासावश पूछ बैठा।” 

“उदाहरण दूँ? . . .”

“हाँ।” 

“नाराज़ तो नहीं होंगे ना?” 

“बिलकुल नहीं।” 

“चलिए आपके घर में ही एक उदाहरण उपलब्ध है,” रहस्यमयी मुस्कान भरती हुई रागिनी बोली। 

“कैसे?” 

“अपने माता-पिता के चेहरे के विपरीत आपका भतीजा! क्या आपका बेटा है?” इस बार रागिनी के चेहरे पर  शरारत भरी मुस्कुराहट थी। 

राजीव ने कठोर दृढ़तापूर्ण शब्दों में कहा, “बिलकुल नहीं।” 

“आनुवंशिक पीढ़ियों से जुड़े रहने के अलावा एक ही घर में रहते हुए मासिक स्नान के पश्चात आप दिखें होंगे। इसलिए वह आप जैसा है। इस सम्भावना को तो स्वीकार करते हैं या नहीं?” 

कुछ सोचते हुए कंधे झटक कर राजीव ने कहा, “हो सकता है।”

“तो बस यही बात है। चलिए खाना खाकर सोने जाइए मालिक! आपके इंतज़ार में मुझे भी भूख लगी है।” सुनकर हँसते हुए, बच्ची को सुलाकर, हड़बड़ाहट में उठते हुए राजिव बोला, ”ठीक है। ठीक है। अभी लाता हूँ, यहीं पर हम दोनों का खाना।”

बग़ैर दूध और फल के रागिनी को बच्चे के छठियारी तक तीनों समय दाल-रोटी खाने में मिलने वाली थी। क्योंकि बच्चे के लिए तेल-मसाले के लिए मनाही रूप में माता को परहेज़ करना पड़ता है। नियम पालन करने की बाध्यता थी। माता रूप में जिसे, बच्चे का हित मानकर, स्वेच्छा से मानसिक रूप में स्वीकार कर लिया गया था। तेल-मसाले तो अन्य दिनों में भी सीमित-संतुलित खाने की आदत रही है। ऐसे में बच्चे के दूध की उल्टियों का सवाल ही न था बावजूद इसके वह सास की बकवास चुपचाप सुन लेती। 

‘दूध पीने से एक-दो टाँकें जो पड़े हैं, पक जाएँगे। फल खाने से गर्भाशय फूलकर विकृत हो जाएगा’ . . . और भी जाने क्या-क्या सच्ची-झूठी, मौन-मुखर, नियम और शर्तें लागू थीं। वह स्वीकार कर पालन कर रही थी। 

हमेशा की तरह रागिनी की बचत के पैसों से राजीव अपने जाने से पहले जो सूखे फल और मेवे रखकर गया था, वो दोनों ननद-भौजाई के प्रयोग में थे। पर रिश्तों की ईर्ष्यालु प्रवृत्ति में चाहे-अनचाहे प्रतिस्पर्धा आ ही जाती है। 

इस सोच के कारण कि उसके पिता के पैसों पर भाभी की मौज चल रही थी। भाई उसपर न्योछावर कर रहा था। सूखे मेवे एक-एक मुट्ठी निकालते ख़त्म भी हो जाते। पर सासु माँ एक व्यंग्य कर देती, “मेरी बेटी तो छूती भी नहीं है, कितना जल्दी खा कर ख़त्म कर जाती हो?” 

रागिनी मन मसोस कर रह जाती। सचमुच ख़ून खौल जाता। ‘जब अपनी कमाई खा रही है और आपकी बेटी को भी खिला रही तब ये हाल है। आपकी खाती तो पता नहीं क्या कर जातीं?’ विचार उद्वेलित करता पर मौन झेल सब कुछ पचा लेने का सफल-असफल प्रयास करती आगे बढ़ रही थी। 

दो अलग-अलग थालियों में खाना देखकर, तुलनात्मक लाभ-हानि विचारते फ़िक्रमंद राजीव ने रागिनी से पूछा, “ऐसा क्यों? माँ ने ये दाल-रोटी तुम्हारे लिए दी है! मेरे लिए ये इतनी सारी व्यवस्था! जो अन्य सभी के लिए है। प्रसूति के लिए तो भरपूर पोषणयुक्त आहार होना चाहिए। इस दाल-रोटी से तुम्हारा क्या होगा? यह तो उलटा मामला है। पौष्टिक आहार के बदले रूखा-सूखा? और जिसे कुछ से भी काम चल जाए वहाँ छप्पन भोग?” 

यह सुनकर व्यंग्यात्मक मुस्कान भर उतर आई उसके चेहरे पर। जिस सास को अपनी प्रसूति अवस्था में माँड़-भात तक की पहुँच रही हो, वह छप्पन-भोग तक भले ही पहुँच जाए, पर नियति से बदला बहू से लेने वाली नियत से कहाँ चूकने वाली है? समझ-जान कर भी स्पष्टीकरण करते हुए बोली, “बच्चे के लिए कुछ नियम हैं, शायद ऐसा इसलिए है।”

पानी छूकर देखा तो हल्का गुनगुना पानी देखकर रागिनी बोली, “प्रसूति रूप में ये हल्का गुनगुना पानी नहीं, मुझे पूरी तरह उबला हुआ पानी चाहिए।” फिर कुछ विचार कर खाते हुए पति से बोली, “माँ कितनी व्यवस्था करेंगी अकेली? मेरे लिए पानी उबाल कर ला देंगे क्या?” 

“ज़रूर ला दूँगा . . . गर्म-पानी से क्या होगा?” 

“गर्म-पानी प्रसूति को लगभग छह महीने तक देने से गर्भाशय सम्बन्धित समस्याएँ दूर रहती हैं। पेट नहीं निकलता। शुद्ध और स्वच्छ जल बाक़ी अन्य समस्याओं से भी माँ-बच्चे की रक्षा करता है।” 

“ठीक है . . . ठीक है . . . मैं हूँ ना! अब से तुम्हारी सारी व्यवस्थाएँ ख़ुद करूँगा। इसके लिए तुम्हें मेरी माँ-बहन पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं।”

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