बस इतनी सी बात थी

15-02-2022

बस इतनी सी बात थी

पाण्डेय सरिता (अंक: 199, फरवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

दोनों बेटियों के पास पेंसिल, रबड़, स्केल जैसे कुछ भी अनजान वस्तु देखकर माँ रूप में चिंतित मेरा प्रश्न होता था, “किसी का चुरा कर लाई हो क्या?” डाँटकर समझाते हुए कहती, “जाकर लौटा आना वरना बहुत मारूँगी मैं!”

मेरी पाँच वर्षीय बेटी को किसी त्योहार में पहले का रखा हुआ, बड़ी बहन का देन-लेन में प्राप्त कपड़ा पहना कर तैयार किया था। वैसे भी दूसरी बार गर्भावस्था में उसके पिता अक़्सर चिढ़ाया करते थे, “छोटी बहन इसकी आएगी तो इसके सारे कपड़े वसूल हो जाया करेंगे। एक की ख़रीदारी में दोनों का निपटारा हो जाया करेगा . . . है ना? . . . लड़का होने पर दोहरा ख़र्च होगा . . .  अलग-अलग ख़रीदारी करनी पड़ेगी।”

और दूसरी बार भी बेटी आ गई तो उपहार में प्राप्त कपड़ों के सदुपयोग का वाक़ई मौक़ा मिल ही गया। प्रत्येक त्योहार के नाम पर नए कपड़े ख़रीदना सम्भव तो था नहीं तो समयानुसार गाहे-बगाहे लेन-देन वाले कपड़ों का सदुपयोग कर लेती। 

तो आदतन उसकी प्यारी-प्यारी टूटी-फूटी अभिव्यक्तियों से अपना मनोरंजन करने वाली मेरी पड़ोसन ने छोटी बेटी को जान बूझकर चिढ़ाते हुए पूछा, "अरे ये कपड़ा तो तुम्हारी चचेरी बहन पहनी थी ना कभी?" 

अपनी आदतन, छठ पर्व में बनाए गए पारिवारिक विडियो और तस्वीरों में उन्हें दिखाया था। जिसमें मेरे देवर की बेटी अपनी फूआ के दिए हुए हू-ब-हू कपड़े पहनी हुई दिखाई दे रही थी। 

इस बात पर, कुछ भी जवाब नहीं सूझने पर, याद करने की कोशिशों के साथ बड़ी मासूमियत से बेटी ने सम्भावना व्यक्त करते हुए कहा, “हाँ, ऐसा वह पहनी तो थी पर . . . क्या पता? . . . हो सकता है मेरी माँ ने उसका कपड़ा चुरा लिया होगा।" 

अब तो वह हँसते-हँसते लोट-पोट हुए जा रही थी। बेटी की इस सम्भावना, शंका-कुशंका पर! . . . और आकर मेरे पास बेटी की विचारधारा से परिचित करवाया।  . . . सुनकर मैं भी हतप्रभ ख़ुद को हँसने से रोक नहीं पाई। 

दरअसल छोटी सी बात यह थी कि ननद के बच्चों के मुंडन में रिश्तों के प्रति समान आदर भाव दिखाने के लिए भाइयों के लिए एक जैसा कमीज-पैंट के कपड़े ख़रीदे थे। भाभियों के लिए एक ही क्वालिटी और कंपनी की साड़ियाँ थी पर रंग अलग। उसी प्रकार दोनों भाइयों की बड़ी बेटियों के लिए एक ही रंग और डिज़ाइन की कपड़े ख़रीदे थे। मात्र साइज़ का अंतर था। जो बड़े भाई के बेटी यानी कि मेरी बड़ी बेटी को छोटा पड़ गया था तो वह यूँ ही कोरा (बिना प्रयोग किए हुए) रख दिया था। मेरी बड़ी बेटी शारीरिक बनावट में अपने क़द-काठी में औसतन बलिष्ठ थी। जिसके परिणामस्वरूप रिश्तेदारों द्वारा दिए गए सारे कपड़े छोटे पड़ ही जाते थे। जिन्हें सँभाल कर रख दिया करती, और कुछ लेन-देन में निपटाने का प्रयास भी करती। 

तो वह कपड़ा, हमेशा की तरह जो लगभग डेढ़-दो वर्ष बाद उसकी छोटी बहन को पहनने उपयुक्त होने पर पहना दिया था मैंने। और सामाजिक व्यापार कुछ भी समझ नहीं आने पर जिसके लिए मुझे उसने चोरनी बना दिया था। 

अपने और मेरे बच्चों के प्रति प्रेममय समानता दर्शाने के लिए एक जैसे डिज़ाइन के कपड़े ख़रीदने की प्रवृत्ति तो मेरी बहनों में भी थी। 

परन्तु इस घटनाक्रम के बाद अब मैं सावधान हो कर मना करते हुए कहने लगी कि अरे एक जैसा मत ख़रीदना। एक जैसा ख़रीदना भी तो रंग अलग-अलग लेना। वरना मेरी बेटी फिर से मुझे चोरनी बनाने लगेगी। उसकी निश्छल बाल-मानसिकता पर सुनकर सभी हँसने लगीं। एक जैसा कपड़ा है मतलब उसकी माँ चुरा लाई है। जैसे कितनी बड़ी चोरनी हो उसकी माँ! 

1 टिप्पणियाँ

  • 14 Feb, 2022 10:39 AM

    बहुत सही वर्णन किया है, बच्चे कुछ भी कह सकते हैं हैं, कहाँ पर शर्मिंदगी की सामना करना पड़ जाए पता नहीं रहता

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