रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 47

 

दूर्गा-पूजा के बाद जो राजीव और रागिनी का त्रिवेंद्रम जाने की योजना बनी थी उसकी चर्चा तो किसी कारणवश पीछे व अधूरी ही रह गई थी। 

इधर राघव और रानी की बेटी जन्म के बाद छठीयारी के बाद ही राजीव के मामाजी की, बीमारी से जूझते हुए पंचतत्व में विलीन होने की ख़बर मिली। उन्हें शुगर के साथ-साथ आँखों में, लीवर, किडनी, ब्लडप्रेशर और भी बहुत सारी तकलीफ़ें थीं। स्वाभाविक आलस्य और आर्थिक कृपणता की वजह से जिन्हें वह अब तक जानबूझ कर अनदेखा करते रहे थे। 

बाहर रहते हुए जो विधि-विधान बताया गया था उसे पूरा करने के बाद पूर्व-निर्धारित योजना के तहत त्रिवेंद्रम की यात्रा पर रागिनी और करुणा के साथ राजीव निकले थे। त्रिवेंद्रम से कुछ दूरी पर स्थान ‘थुम्बा’ के लिए जाना था। जो संभवतः बस से एक-देढ़ घंटे की दूरी और ऑटो से लगभग पौन घंटे की होगी। 

बार-बार फोन पर पूछते हुए किसी तरह कैंप पहुँच पाए थे। सरकारी संस्थानों की विशिष्टता होती है कि शहर से दूर कहीं अंदरूनी हिस्से में अक़्सर स्थापित रहता है। रागिनी तो शान्त थी पर राजीव ऊब गया था। वहाँ पहुँचते-पहुँचते जो परेशानियाँ हो रही थी वह बार-बार रागिनी पर ज़ाहिर कर रहा था। 

ख़ैर केरल के ऊपरी उत्तरी छोर कर्नाटक के बॉर्डर से उसकी राजधानी तक के अनन्त सौंदर्य को निहारते हुए वो वहाँ पर किसी तरह पहुँच पाए थे। 

रागिनी की छोटी बहन मेघना जो कितना भी समझदारी दिखाने का प्रयास करे पर अपने से बड़ों की दृष्टि में हमेशा ही नासमझ नन्ही बच्ची रहती है। कम से कम मेघना की अपनी सोच में यही धारणा है कि उसके बड़े उसके ज्ञान और समझ का सही आकलन नहीं कर पाते हैं। इसलिए वह हमेशा असंतुष्ट रह कर खीझ-झल्लाहट व्यक्त करती रहती है। 

अपने विभागीय विश्रामालय (रेस्ट हाऊस) में सारी व्यवस्था कुछ आवश्यकता से अधिक ही करके रखी थी। कुछ बरतन और राशन की अत्यधिक ख़रीदारी, जिन्हें देखकर रागिनी आश्चर्यचकित रह गई। 

इस प्रकार के फ़ालतू ख़र्च करने की क्या ज़रूरत थी? हम यहाँ मात्र एक सप्ताह के लिए आए हैं। जिसमें से अधिकांशतः समय तो हमारा बाहर-बाहर घूमने में ही व्यतीत होने वाला है। अनावश्यक ख़र्च का दबाव वो ले लेगी, मेघना की इसी आदत के कारण राजीव और रागिनी आना नहीं चाहते थे। “क्यों नहीं आ रहे आप लोग?” बुलाने के लिए वही ज़बरदस्ती अड़ी हुई थी। 

हे भगवान! राशन पर ये ढ़ाई-तीन हज़ार का बिल बनाकर बैठी है। वैसे भी उसके अकाउंट में कम ही बचत पूंँजी रहती है। अनावश्यक ख़र्चों के कारण इधर-उधर से उधारी की ज़रूरत पड़ जाती है। सोचती हुई रागिनी अपना सिर पीटने लगी। ये साल 2008 की बात है जब उसका वेतन संभवतः साढ़े सात-आठ हज़ार रुपए था। राजीव से एक डेढ़ हज़ार रुपए के अंतर में मात्र था। पर राजीव की कमाई में उसका परिवार और अन्य व्यवस्थाएँ भी आराम से संचालित हो रहीं थीं। किन्तु मेघना का जो देखा जाए तो कम भी नहीं था बावजूद अक़्सर उसका अकेले में भी घट जाता था। 

किसी तरह हाथ में आई उस रसीद को देखकर राजीव ने, रागिनी को मुस्कुराते हुए आश्वस्त किया, “फ़िक्र मत करो बाक़ी सब मैं सँभाल लूंँगा।”

बीस-इक्कीस वर्ष की उम्र में छोटी-सी नौकरी तो मिल गई थी। पर व्यावहारिक और सांसारिक बुद्धि की समझ भी रहे ये ज़रूरी तो नहीं? घरेलू-पारिवारिक सम्पूर्ण ज़िम्मेदारियों से मुक्त लड़की मात्र अपने फ़ैशन-शौक़-शृंगार पर व्यस्त रहती थी। उसकी कमाई का अनावश्यक फ़ायदा साथ की अन्य लड़कियाँ उठाती थीं। जिसका सबसे बड़ा गवाह बना कन्याकुमारी के लिए निकलने से पहले सारी पैकिंग में अन्य आवश्यक सामग्रियों में साबुन भी था बड़ा-सा महँगा सुगंधित जिसके विश्वास में रागिनी आश्वस्त रही। पर गंतव्य तक पहुँचने के बाद नहाने और हाथ धोने के लिए रागिनी ने जब साबुन माँगा तो पता चला कि वह तो उसकी किसी सहेली को आवश्यकता पड़ी इसलिए उसने ले लिया। 

सुन कर मुस्कुरा कर इतना ही बोल पायी, “एक बच्चा लेकर निकलने वाली माँ और मौसी उसकी कितनी कुशल है? इस बात का पता चल रहा है।” . . . और उन दोनों की बातों को सुनकर तत्क्षण राजीव को साबुन ख़रीदने के लिए दौड़ना पड़ा था। 

प्रत्येक समाज में कुछेक नाजायज़ फ़ायदा उठाने वाले होते हैं। तो कुछेक फ़िक्रमंद हो कर सावधान करने वाले, समझाने वाले भी रहते हैं। 

मेघना की मूर्खता, मासूमियत या भोलापन जो भी था जिसे देख-समझकर कुछेक अति आत्मीयतापूर्ण भाव में उसे समझाती थी। 

जिसकी एक से एक क़िस्से-कहानियाँ वहाँ के अड़ोस-पड़ोस की चाचियाँ, भाभियाँ रागिनी को सुनाने लगीं। 

“अरे मत पूछो। सार्वजनिक सम्पत्ति रूप में मेघना के खरीदे हुए मैचिंग पर्स, कपड़े, जूते-चप्पल, सर्फ-साबुन-शैम्पू, क्रीम-पाउडर-लिपस्टिक जैसी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति पर सारी लड़कियाँ उपयोग करती हैं। तुम्हारी बहन अच्छा कहलाने के लिए खाने-पीने से लेकर पहनने-घूमने में हमेशा सब ख़र्च करती रहती है। 
अपने घर में काम करती भी है या नहीं? मैडम यहाँ पर सबके लिए चाय-दूध गर्म कर कर के देती रहती है। साफ़-सफ़ाई के नाम पर अकेली अभियान चलाती है।” 

पूछने पर रागिनी मुस्कुरा दी। घर पर किसी काम के नाम पर चिल्ला कर सिर पर घर उठाने वाली लड़की अनजान जगह पर अनजाने लोगों के बीच में मित्रता के लिए इतना कुछ सीख गई है। आश्चर्य की बात है। 

मेघना तो बहुत अच्छी लड़की है। बहुत अमीर परिवार से है ना? इसे किसी चीज़ की कमी क्या है? जैसी बातें उसके सामने कहने वाली पीठ पीछे मूर्खता का मज़ाक उड़ाती हैं। 

“माता-पिता को पैसे देती भी है या नहीं? वो लोग उससे कुछ भी हिसाब-किताब लेते भी है या नहीं?” फ़िक्रमंद चाची ने पूछा। 

हालाँकि मेघना का स्वभाव रागिनी से अज्ञात रह सकता है भला? जन्म से लेकर अब तक के प्रत्येक गतिविधि से वह अच्छी तरह परिचित है। वही नहीं बल्कि उसके माता-पिता भी। पर सभी मौन स्वतंत्रता दिए हुए हैं कि चाहे जो भी करो अपनी कमाई, अपने हिसाब से। 

जहाँ सभी के पास कामचलाऊ सेलफोन था। अकेली मेघना के पास सबसे क़ीमती वाला था। उनमें से ही किसी ने ईर्ष्याखोरी और लालच में मेघना का कमरे में चार्जर पर लगा नोकिया का क़ीमती बीस हज़ार का स्मार्टफोन चुरा लिया। जिसमें जाने कितनी तस्वीरें थीं। विडियो सुविधाओं के साथ कई फ़िल्मों के गाने डाउनलोड थे। उस समय यह बड़ी बात थी। 

रागिनी के पास एक से एक मज़ेदार रहस्योद्घाटन हो रहा था। वह आश्चर्यचकित हो कर सुनती हुई मुस्कुराती हुई प्रतिक्रिया दे रही थी। 

“तुम लोगों को क्या बताया था उसने?” चाची ने पूछा। 

यही कि उसका स्मार्टफोन टॉयलेट के कमोड में गिर कर बर्बाद हो गया था। जिसके कारण दो-तीन सप्ताह तक वह किसी से बात नहीं कर पा रही थी। सचमुच मेघना ने, रागिनी और अपने पूरे परिवार से यही तो कहा था। जिसपर सभी ने विश्वास भी कर लिया था। 

चौदह हज़ार का है ये वाला तब उसे नया फोन ख़रीदना पड़ा था। सुनकर रागिनी मौन रहकर आत्म विवेचना कर रही थी। ज़िम्मेदारियों और गैरज़िम्मेदार जीवन में मात्र यही अंतर है। राजीव अभी तक वही अपना पुराना मोबाइल लेकर काम चला रहा था। जो नौकरी पर आने के तुरंत बाद न्यूनतम दर पर ख़रीदा था। अपनी सीमित कमाई से घर-बाहर सभी जगह का निर्वाह करने की ज़िम्मेदारी थी। 

मेघना अपने शौक़ पूरा करने के लिए कुछ करती तो है और ग़लत रूप में नुक़्सान का भागी बन जा रही है। जिसके लिए डाँटने-समझाने का भी तो वह अपने आप में अधिकार नहीं समझती। हाँ, यह सच ही तो है। वह अपनी कमाई को कब और कहाँ कैसे सदुपयोग या दुरुपयोग करेगी? इसका निर्णय उसका स्वयं का होगा या माता-पिता समझेंगे। विवाहिता बड़ी बहन रूप में वह इतना अधिकार नहीं रखती। वैसे भी मेघना किसी की सुनती कहाँ है? 

ख़ैर मोबाइल फोन पर बात चली है तो एक-दो छोटी-सी बात और भी याद आ गई। साल 2005 के वर्ष समाप्ति तक में बाज़ार में नया स्मार्टफोन आया था। जिसका भूत नवयुवकों पर ख़ूब तूफ़ान बन कर छाया था। सामर्थ्यवान घरों के लड़कों ने इसके लिए ख़ूब अनशन शुरू किया था। जिसकी अनेक मनोरंजक उड़ती ख़बरें सुनाई देती। 

कुछ उसी प्रकार के शौक़ के तहत ही तो मेघना अपनी कमाई का लगभग तिगुणा ही तो कहा जाएगा। जो भी समझा जाए व्यय या अपव्यय किया था। 

जब राघव की पत्नी रानी पहली बार अपने ससुराल से मायके जाने लगी तो अपने पति से नये मोबाइल फोन की ज़िद कर बैठी। चाहे कुछ भी हो जाए मुझे तो एक मोबाइल चाहिए ही चाहिए जैसे उसकी जेठानी रागिनी रखती है। जब उसके पास रह सकता है तो मेरे पास क्यों नहीं? 

राजीव अपने ट्रेनिंग के दौरान रागिनी से हज़ारों किलोमीटर दूर रहकर एकमात्र मोबाइल के ज़रिए जुड़ा रहता था। हालाँकि उस अकेले मोबाइल से सारे नाते-रिश्तेदार जुड़े हुए थे। बावजूद चाहतों और आकांक्षाओं की कोई सीमा है? 

राघव और रानी के लिए ऐसी कोई विवशता ना रहने के बावजूद भी यहाँ कारण स्वाभाविक स्त्रीगत ईर्ष्याखोरी थी। अपने मायके में प्रभाव भी ज़माना था। 

अपनी पत्नी की ज़िद पूरा करने की बहुत कोशिशों के बावजूद भी वह पूरा नहीं कर पाया था। क्योंकि उस समय वहाँ के दुकान पर उसके निश्चित बजट का कोई भी मोबाइल उपलब्ध नहीं था। जिसके लिए वह चार-पाँच बार चक्कर काट चुका था। 

अन्ततः अगली सुबह की ट्रेन छूटने की नौबत भी आ गई थी। क्षुब्ध और नाराज़ अभिमानीनि रानी अपनी असंतुष्टि व्यक्त करती हुई गई थी। इस पर राघव भी ख़ुद में असंतुष्ट था कि अपनी पत्नी की ये इच्छा पूरी नहीं कर पाया। कैसा पति है वह? 

अन्ततः जब रागिनी, राजीव के साथ जाने लगी तो वह अधिकार रानी को देकर गई थी। रागिनी के जाने के बाद ठीक वैसे ही फोन की घंटी रानी के कमरे में भी बजने लगी थी। अब वह मालिकिन बनकर संचालित करने लगी।

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