रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 38

 

लेकिन रोज़ाना किसी को भी अपनी बच्ची की वजह से तंग करने के लिए रागिनी का स्वाभिमान स्वीकार नहीं कर पा रहा था। आख़िर बच्ची रूप में बेटी, माता-पिता की ज़िम्मेदारी है! इस तरह उसकी वजह से दूसरे क्यों परेशान हो भला? 

जिसके कारण कभी-कभी होटल से ख़रीद कर इडली-डोसा-सांभर-वड़ा, उपमा अक़्सर ले आता। पर, स्वास्थ्य की दृष्टि से विचार करने पर घर का स्वाद और होटल के बने व्यंजनों में बहुत ज़्यादा अंतर होता है। रोटी-चावल की तुलना में दक्षिण भारतीय व्यंजनों को राजीव तो दो वर्ष पहले से ही स्वीकार कर चुका था। देखा-देखी सीमा-नीमा, अक्षता-अक्षिता के साथ अब करुणा भी पसंद करने लगी थी और आसानी से खा लेती। 

घर पर बने रोटी-भात के नाम पर करुणा जाने कितने नख़रे करती। रागिनी को माँ रूप में कितनी कहानियाँ गढ़नी पड़ जातीं। 

बंद कमरे में खिलाने की कोशिशों पर खिड़कियों पर चढ़कर करुणा चिल्लाने लगती, “ओ नानी माँ! . . . आओ ना! . . . विछाखा मौसी आओ ना! . . छीमा-नीमा दीदी आकर बचाओ मुझे! अछता-अछिता आओ ना! . . .। मेरी माँ मुझे खाना खिला रही . . .। नहीं खाने पर . . . मार रहीं . . .॥मुझे नहीं खाना! . . . अच्छा खाना नहीं है . . . पूड़ी-सब्जी नहीं चाहिए . . . पराँठे नहीं खाना मुझे! . . . वाक् . . .। उल्टी करने का नाटक करती। 

“इतनी सुन्दर गोरी-चिट्टी बच्ची है। कहीं नज़र ना लग जाए। इसे जहाँ-तहाँ घुमाकर खाना खिलाना ठीक नहीं।” . . . कहकर विशाखा की माता जी अक़्सर रोकती-टोकती रहती थी! 

ऐसे में क़ैद करुणा! . . . चिल्ला-चिल्ला कर पूरे मुहल्ले को इकट्ठा करने लगती। नियमित जिससे पूरे मुहल्ले का मनोरंजन भी होता और एक अलग सिरदर्द रागिनी का होता। 

करुणा की अनिच्छा और रागिनी के अति दबाव पर खीझते हुए झल्लाकर, राजीव ने करुणा को खाना खिलाने के नाम पर ही तो कई बार प्लेट और थाली में दिया गया खाना तक फेंक दिया था। जिसकी शुरूआत पालघाट से ही हुई थी। पीरियड के दौरान पेट दर्द या बुख़ार जैसे किसी भी समस्या से बीमार माँ, करुणा को भूखी-प्यासी रहने के बावजूद भी भोजन के प्रति अरुचि देखकर बहुत असहज और चिंतित हो जाती थी। एक दिन पिता पर दबाव बनाया, “कृपया समझिए मेरी मजबूरी! आप ही इसे खिला लीजिए ना। हम-आप भूख लगने पर बोल कर भावनाओं को व्यक्त कर सकते हैं। पर, ये नन्ही बच्ची अपने भूख-प्यास की सीमा से अपरिचित है तभी तो ऐसे करती है।”

राजीव ने एक-दो बार उसके मुँह में कौर डालने की कोशिश किया। पर करुणा के बालपना में, माता जैसी उदारता विशेषकर भोजन के प्रति पिता में कहाँ से आती? 

“अरे यार छोड़ दो! अनावश्यक ज़ोर ज़बरदस्ती सही नहीं। डाँट-डपट कर खिलाने से क्या फ़ायदा? जब भूख लगेगी तो बच्ची खा लेगी ही . . .” कहकर टाल-मटोल कर रहा था। पर माता का कोमल हृदय बच्ची के भूख को अस्वीकार नहीं कर पा रहा था। 

“आप अच्छे से खिलाने की कोशिश कीजिए ना,” एक आख़िरी विनती माँ रूप में रागिनी ने किया। दोनों के बीच में असहज-असंतुलित पिता! . . . फिर क्या? वहीं एक ही झटके में सारा प्लेट का खाना ग़ुस्से में खीझ कर तमतमाते हुए फेंका। 

“मेरे पास और कोई काम नहीं है क्या? जो दोनों माँ-बेटी उलझा कर रख दी है।”

संवेदनशीलता इस मामले में माता और पिता की अलग-अलग होती है! . . . जिस ज्ञान का प्रारंभ उस दिन हुआ था। 

समूचे कमरे में चावल-दाल-सब्ज़ी बिखर कर पसर गयी। आक्रोशित पिता को देखकर बेटी एक तरफ़ सहम कर खड़ी हो गई। बीमार रागिनी का काम आसान कर दिया था राजीव ने, बहुत ही अच्छे पति और पिता रूपी . . . पुरुष ने! कई गुना ज़्यादा जटिल काम अपने कुत्सित, घृणित रूप में बिखरा हुआ एक-एक दाना! उस कमरे में आधे-एक घण्टे तक पड़ा रहा . . . अब करती रहो . . . और भूखी-प्यासी बेटी डरी-सहमी अपनी माँ की गोद में चिपक कर सो गई। बच्ची को किसी की नाराज़गी या प्यार से क्या? एक अलग कहानी रचाकर अब समझते रहो! तुम दोनों पति-पत्नी शान्ति रखो या लड़ो-मरो। 

अब इस प्रकार के रोज़-रोज़ के झगड़े से तंग आकर एक ही उपाय बचा कि जो पसंद करती है उस वक़्त मात्र वही खिलाया जाए। जो कठिन तो था पर असंभव नहीं। 

उसने दक्षिण भारतीय व्यंजन बनाने के लिए सीखना ज़रूरी समझा। बदले में थोड़ा-थोड़ा करके ज्ञान विशेष के अदान-प्रदान माध्यम रूप में अन्य लोगों को भी उत्तर भारतीय व्यंजनों को बनाने की तकनीक सीखाने लगी थी। 

विशाखा और उसकी माँ के निर्देशानुसार इडली-डोसा बनाने के लिए मऊ बनाना सीख रही थी। (मऊ-अरवा चावल तीन-चौथाई उड़द दाल के साथ आठ-दस घंटे तक भिगो कर अच्छी तरह पीस कर पूए की तरह का तैयार घोल होता है। जिसे पीसने के बाद भी एक दिन या उससे भी ज़्यादा देर तक नमक और सोडा डाल कर खमीर उठने के लिए छोड़ा जाता है) 

मंगलोर जाकर नॉन-स्टिकी तवा राजीव ख़रीदने गया था। प्रेस्टीज तवा लाकर कहता है, “बड़ी ज़ोरों की भूख लगी है। अभी ज़ल्दी-ज़ल्दी डोसा खिलाओ।”

सुनकर रागिनी ने हँसते हुए स्पष्ट किया, “श्रीमान जी! . . . विशाखा की माँ के अनुसार आज के ताज़े मऊ से तुरंत डोसा नहीं बनता है . . . डोसे के लिए आपको कल तक इंतज़ार करना पड़ेगा जी।”

अधीरता में ये रागिनी का टाल-मटोल मान कर, छह सौ रुपए के नए तवे को पिछवाड़े ले जाकर राजीव ने आहत अभिमान फेंक दिया। “कितना महँगा है ये तवा!” कुछ देर पहले तक जिसकी महँगाई पर बार-बार रागिनी को अहसास जता रहा था। अकस्मात् बिना बात-विचार के ही, ना झगड़ा, ना विवाद! बावजूद उसे असंतुष्ट फेंकते हुए अंशमात्र भी मोह नहीं आया। 

रागिनी अनभिज्ञ-अनजान किसी काम को करने में व्यस्त थी। तभी करुणा आकर बोली, “माँ! . . . माँ! . . . देखो पापा फेंक दिया।”

“क्या फेंक दिया बेटा?” 

“पापा . . . नया वाला . . . वो नया वाला . . . फेंक दिया।”

“जाकर उठा लाओ बेटा जी!” सुनकर झट से दौड़ी गई और पैकेट समेत जाने कहाँ से तवे को उठा लाई। 

जिसे देखकर आश्चर्यचकित और हतप्रभ, “हे भगवान! ये क्या? . . . आपने कब और क्यों फेंका इसे? . . . कुछ भी कारण तो हो?” 

रागिनी के प्रश्न करने पर असंतुष्ट और क्षुब्ध होकर राजीव ने अपनी शिकायत दर्ज की, “आज मैं मन बनाकर आया था कि डोसा ही खाऊँगा! . . . और तुमको, मुझसे क्या? . . . टाल-मटोल करती रहती हो! आज से मैं कभ्भी भी; . . . कुछ भी नहीं बनाने को कहूँगा। देख लेना! . . . आलसी औरत!”

“क्या ये अजीब आपका बचपना है? आपकी ज़िद के कारण . . . मैं डर जाऊंँगी। पर . . . कुछ तरीक़े हैं . . . जिनके हिसाब से करना पड़ता है। अभी मैं सीख रही हूँ . . .। आज मैंने पूछा तो विशाखा की माँ ने मना किया है . . . तभी तो मैंने आपको बोला कि कल बनाऊँगी; आज नहीं।” 

जिसे अस्वीकार करते हुए राजीव ने समझने से मना किया, “जाओ . . . जाओ . . . सारे तुम्हारे नख़रे और बहाने हैं . . . मैं सब समझता हूँ . . . जाओ आज मैं कुछ भी नहीं खाऊँगा,” कहकर पुरुष अभिमान मुँह-फुलाकर, अनशन कर के बिछावन पकड़ लिया। 

जिसे देख-समझ कर ग़ज़ब द्वंद्व में रागिनी अब करे भी तो करे क्या? विशाखा की माँ ने आज बनाने से मना किया है। और उसका पति डोसे के लिए अनशन पर बैठा है। 

एक नन्ही बेटी है, जिसे मात्र एक बार प्यार से समझाने पर बहुत ही सहजता से समझ-मान जाती है। पर यहाँ तो उसके ज़िद्दी पति की बात है . . . सोच-सोच कर हँसी भी आए और रोना भी। अब करे भी तो क्या करे? फिर उसे ख़ुश करने के लिए रागिनी ने किसी तरह आधे-अधूरे तैयार मऊ में ही पहले से उपलब्ध खट्टा दही मिलाकर ख़ूब फेंट कर टेढ़ा-मेढ़ा डोसा और चटनी बना कर . . . शाम ढले . . . रूठे हुए राजीव के सामने प्रस्तुत किया। 

“देखिए . . . खा लीजिए . . . पहली बार जैसे-तैसे ज़बरदस्ती बनाया है! . . . . . . सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके लिए! . . . अब बिना किसी नाज़-नखरे के खा लीजिए! . . .प्लीज़!” आधे घण्टे तक आरती उतार कर . . . किसी तरह राजीव को मनाया। तब जाकर दोनों पिता-पुत्री खाकर संतुष्ट हुए और घर का शीत युद्ध समाप्त हुआ। 

अब रागिनी, करुणा को अपने साथ ही एक अलग प्लेट में निकाल कर खाना देने लगी और एक प्रतियोगी भावना डाल कर कहती, “देखती हूँ कौन खायेगा पहले? . . . माँ कि बेटी? तुम या मैं? . . . करुणा या रागिनी? . . . अच्छी या गंदी?” और इस तुलनात्मक विभेद का सफल परिणाम सामने आने लगा था। बावजूद अभी भी विशाखा के घर के खाने की प्राथमिकताओं में शामिल था। 

मजेश्वरम रहने के दरम्यान ही कर्नाटक में बढ़ते धर्मान्तरण के विरुद्ध साल 2008 में धार्मिक-राजनीतिक विवाद के कारण मंगलोर में चर्च के बाहर तोड़-फोड़ की घटनाएँ बढ़ने लगी थीं। जिसके कारण वहाँ की राजनैतिक सरगर्मियों के साथ सामाजिक वातावरण में भी तनाव व्याप्त रहने लगा था। अनजान-अजनबी दुनिया में अपने घर-परिवार से दूर रहकर सुरक्षित रहना एक चुनौती से कम नहीं। 

जिसके कारण राजीव का करुणा की सुरक्षा के प्रति चिंतित होना स्वाभाविक था। ऐसे में उसने रागिनी को समझाया कि अभी बाहरी संपर्क कम से कम रखा जाए। चाहे वह विशाखा का परिवार और मकान मालिक का ही परिवार क्यों न हो? अब तो आज़ाद पंछी करुणा को एक प्रतिबंधित क़ैद मिली। 

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