रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 9व्यस्तता और भाग-दौड़ में थकान होने लगती अक़्सर। सुबह के ठीक आठ से दस बजे के बीच रागिनी को चक्कर आने लगते तो ख़ुद को सँभालने के लिए बच्चों के बीच में कक्षा में बेंच पर बैठ जाती।
कुछ पल में आंतरिक बेचैनी उभरती, पसीने के साथ अँधेरा छा जाता और फिर क्षणिक अचेतन अवस्था! ये स्थिति, प्रारंभिक दैनिक बुरा अनुभव बनकर गुज़रता। डॉक्टर इसे सुनकर कहते, “स्वाभाविक और सामान्य सी बात है।” जिस पर कोई आत्मनियंत्रण की सम्भावना नहीं थी। गर्भावस्था के अन्य अनुभवों के साथ स्वीकार करते, जीने की विवशता थी।
समय के साथ परीक्षा भी नज़दीक आ रही थी जिसके लिए भी एक अलग उद्वेलन दिल-दिमाग़ में सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते हावी रहता। जिसमें यथासंभव राजीव का सहयोग हिम्मत देता। अपनी तैयारियों के बहाने बाहर वह भी घरेलू तनाव से मुक्ति के लिए दोस्तों के बीच बैठा रहता।
चौथे महीने में डाक्टरी जाँच और सलाह की बात सुनकर सास भड़क उठीं।
“डॉक्टर पास नहीं जाना है। डॉक्टर पास नहीं जाना है।”
कारण क्या है भाई? पूछने पर हर बार, हर किसी को अपनी बेटी की उदाहरण देकर कि किस तरह पैसे के लालच में डॉक्टर जच्चा-बच्चा के लिए जाने-अनजाने जीवन भर का दर्द दे देते हैं। जिन्हें इस मामले में वह दुहराए जाने के लिए तैयार नहीं है।
वास्तव में हुआ क्या था कि रागिनी की ननद श्वेता अपने गर्भावस्था के दौरान नियमित डाक्टरी सलाह और जाँच में रही थी। पूरी जागरूकता और सावधानी के साथ बावज़ूद आठवें महीने का पहला या दूसरा सप्ताह ही चल रहा था कि कपड़े पर ख़ून की एक-दो बूँदें दिखीं। घर में बड़े-बुज़ुर्गों की अनुपस्थिति में अब क्या किया जाए? पति-पत्नी इस उधेड़-बुन में, फिर क्या? आनन-फ़ानन में डॉक्टर के पास दिखाने चले गए।
वहाँ जैसे गए, सच्ची या झूठी ये तो डॉक्टर ही जाने? तुरन्त आनन-फ़ानन में आज ही बच्चा ऑपरेशन करके निकालना पड़ेगा। गर्भाशय की थैली फट गई है। बच्चा गर्भनाल में फँस गया है। नहीं तो जच्चा-बच्चा की जान को ख़तरा हो सकता है। इतनी सारी बातें बोल दी गईं अस्पताल प्रबंधन द्वारा कि घबराहट में उनकी बातों में आकर, झट से पैसे की व्यवस्था करके ज़बरदस्ती शल्यक्रिया द्वारा, समय से बहुत पहले जन्म करा दिया गया।
ख़बर सुनकर यथासंभव जो जहाँ था वहाँ से अपनी-अपनी व्यवस्था करके दौड़ पड़ा था। जो बच्चा अभी और भी समय लेता, माँ के गर्भाशय में पालित-पोषित, परिपक्व होने में, वो अपने आठवें महीने के पहले-दूसरे सप्ताह में ही निकाल दिया गया था।
बेटे जन्म की ख़ुशी में गीला नैपी बदलते किसी ने ग़ौर नहीं किया कि बच्चे की मूत्र नली ठीक से विकसित नहीं हो पाई है। कपड़ा गीला तो होता पर मूत्र-त्याग में होने वाली लड़कों के सामान्य गतिविधियों जैसी कोई बात नहीं दिखाई देती। लगभग सप्ताह भर प्राइवेट अस्पताल में रहने के बाद जच्चा-बच्चा दोनों घर आ गए।
सास-ननदें, जेठानियाँ, भाई, अपनी माँ सभी से घिरे हुए, मायके-ससुराल के भरे-पूरे परिवार के भावनात्मक संरक्षण में श्वेता और उसके बच्चे का देख-भाल किया जा रहा था।
बधावा बज रहा था। सभी के आनंदित पलों में छठीयारी और पार्टी की भरपूर तैयारियों के साथ मेहमानों के खाने-पीने का भरपूर प्रबंधन सम्पन्न ही हुआ था कि उसी रात से बच्चे की तकलीफ़ों का उजागर होना भी विचित्र संयोग माना जाएगा।
बच्चा दर्द से रोए जा रहा था, आधी रात के बाद, पेशाब रुक जाने से बच्चे का पेट फूल गया था इसलिए अस्पताल ले जाकर पाइप लगा कर पेशाब उतरवाने का प्रयास किया गया।
श्वेता का ऑपरेशन वाला शरीर था सो उसकी छोटी ननद अपनी गोद में भतीजे को लेकर भाग-दौड़ करती रही। “हे ईश्वर, मेरी लाज रखना!” की याचना और कामना करती हुई प्रत्येक पल मातृत्व भावना लिए जीती-जागती रही। अपने छह महीने के दूध-मुँहे बेटे को मायके में छोड़कर, श्वेता के दूध के भरोसे।
कुछ दिन वहीं के स्थानीय अस्पताल में इलाज चला, वहाँ से निराशा हाथ लगने पर, फिर उसके बाद पटना में भर्ती कराया गया। जहाँ बच्चे का ऑपरेशन पर ऑपरेशन!
दादा-दादी के द्वारा स्वास्थ्य सुधार और बच्चे के भावी जीवन के नाम पर यथासंभव रुपए-पैसे की व्यवस्था की जाती रही।
प्रत्येक दिन की शुरूआत, उसके लम्बे जीवन की प्रार्थना करते हुए अपने-बेगानों के संवेदनाओं का पात्र बना रहा वह शिशु! बावजूद जब-तक बच्चे की नौ महीने की अवधि पूरी होकर जन्म लेने का समय आने वाला था तब-तक इस दुनिया से जाने की बारी आ गई।
लगभग पैंतालीस दिनों के जीवन के संघर्षों में वो नन्हा बच्चा जाने कितनी दर्द-पीड़ा और चीड़-फाड़ का सामना किया। ये ईश्वर की नियति या डॉक्टर के लालच में, किसका परिणाम? इसका निर्णय कर पाना असम्भव रहा।
इस मृत्युलोक के कष्ट को भुगतने के साथ, अपने इलाज के नाम पर दादा-दादी की जमा पूँजी वसूल कर, अपनी माँ के साथ, फूआ के दूध का क़र्ज़ लेता हुआ, अपनों का सेवा-सत्कार लेकर नन्ही सी जान-जिंदगी! कार्तिक छठ के नहाय-खाय के दिन पूर्ण-विराम लग गया। प्रथम संतान रूप में श्वेता की गोद सूनी करके, ओह! जो दु:ख पुनरावृत्ति रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी माता और मातामही को भी सहन करना पड़ा था। विचित्र विडम्बना कभी ऐसा ही तो रागिनी की माँ के साथ भी तो हुआ था।
एक बुरा सपना मानकर बच्चे के जन्म के नाम पर लिया-दिया गया उपहार और विडियो-रिकॉर्डिंग अफ़सोस मात्र बनकर रह गए। जिसका भय सास के मनो-मानसिकता पर सवार, एक भूत बनकर रागिनी के जीवन को प्रभावित करने वाला था।
जिसका अंजाम अच्छा या बुरा किस हद तक होगा? संदिग्ध था सभी के लिए। फिर क्या सास के दबाव में भगवान भरोसे गर्भस्थ शिशु और उसकी माँ रख दी गई थी, आदिम युग की दुनिया जैसी।
इधर समय भी अपनी गति से गुज़र रहा था। अपनी पढ़ाई पूरी करने की दीवानगी में वो पूरी समर्पित होकर परीक्षा देने लगी। जो सेंटर, शहर के कॉलेज में पड़ा था। जिसके लिए वह राजीव को बहुत मुश्किल से तैयार किया था, मात्र इस भय के कारण, किसी भी तरह साथ चलने के लिए ताकि वह बेहोश होकर यहाँ-वहाँ अकेली किसी अनजान जगह पर ना गिर पड़े। उसे अकेली किसी अप्रत्याशित स्थिति से ना गुज़रना पड़ जाए?
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