स्वार्थ

15-08-2021

स्वार्थ

पाण्डेय सरिता (अंक: 187, अगस्त द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

मेघना एक विवाह समारोह में शामिल होने के लिए अपने दो बच्चों के साथ तैयार हो रही थी और उन्हें देखकर उसकी बहनों के बच्चे उछल रहे हैं, "हम भी जाएँगे। हम भी जाएँगे।"

ठंड का मौसम, पैदल देढ़-दो किलोमीटर की दूरी जाना है और फिर वापस भी आना है। उसके बाद नियत समय पर लौट कर पचास किलोमीटर की दूरी पर स्थित वासस्थान के लिए, पौने दस बजे रात की रेलगाड़ी भी पकड़नी है। 

नियमित समय पर रेलगाड़ी रही तो बहुत बढ़िया। पहुँचते-पहुँचते ग्यारह बज जाएगा। नहीं तो आध-पौन घण्टे यूँ ही गए अस्त-व्यस्त रेलवे असंतुलन के नाम पर। 

बिछावन पर जाते-जाते आधी रात होनी ही है। अगले दिन सुबह-सुबह स्कूल में बच्चों की परीक्षा भी है। स्थिति और परिस्थितियों की विविध नियम और शर्तें लागू थीं। 

एक हो तो ले भी ले साथ, पर यहाँ चार-चार बच्चे। उससे अच्छा किसी को भी न लिया जाए। किसी एक को ले जाने का अर्थ है किसी विशेष को विशेषाधिकार प्रदान करना और अन्य किसी को उससे वंचित रखना। इसलिए थोड़ी नरमी से हँसते हुए, "कोई नहीं जाएगा। खाना न पीना, ग्लास तोड़ना बारह आना।" अर्थात् उसका आशय था कि मुश्किल से एक पूरी भी तो खाना नहीं आता इन्हें, और फिर हड़बड़ी में मुँह में खिलाने का अलग लफड़ा। 

वैसे अन्न के प्रति आरंभ से सुसंस्कृत-अनुशासित बच्चों को बहुत अच्छी तरह आता है कि अन्न बर्बाद ना किया जाए। एक-एक दाना ईश्वरीय अंश है। उतना ही लो ताकि खाकर सदुपयोग हो जाए। बावजूद ये बच्चों की फ़ौज देखकर तो कोई भी डर जाएगा। सच भी तो है, चार वह ख़ुद हुए और ये चार। गिनती के आधार पर तो कुल जने आठ आदमी किसी एक परिवार से शिष्टाचार और सामाजिकता की दृष्टि से तो बिलकुल अजीब और अशोभनीय लगता है। 

वह तो अपने बच्चों को भी नहीं ले जाती, पर समयानुसार साल में एक से दो विवाह पार्टियाँ मुश्किल से किसी अति घनिष्ट मित्र-संबंधियों के यहाँ का अवसर मिलता है। नहीं तो पति की छुट्टी, समारोह स्थल की दूरी, बच्चों का स्कूल, चाहे परीक्षा, सुविधा-असुविधाओं का विचार, किसी न किसी कारण के बहाने बहुत कुछ सोचते-विचारते-टालते हुए अक़्सर गुज़र ही जाता है। 

सारा तमाशा देखते हुए मेघना की माँ ने उसके पति से कहा, "ये बचपन से ही है ऐसी। अपने छोटे भाई-बहनों के साथ कभी नहीं जाती थी कहीं, किसी भी पार्टी में, या तो अकेली जाती थी . . .” 

सुनने के पश्चात आकर एकांत में अपनी पत्नी मेघना से पति रोहित ने कहा, "क्या कह रही हैं तुम्हारी माँ? तुम ऐसा क्यों करती हो? क्यों मना करती हो बच्चों को? ले चलो ना। बच्चे कितने उत्साहित हैं। तुम इस तरह कठोर मत बना करो। कितना बुरा लगता है?”

फिर बच्चों से बोले, "चलो-चलो हम सभी चलेंगे पार्टी में। जल्दी तैयार हो जाओ सभी।” जिसे सुनकर बच्चों में उत्साह की लहर दौड़ पड़ी। विजित भाव लिए झट-पट तैयार होने लगें। 

अन्ततः सभी के तैयार होने पर दो वर्षीय नन्हें को छोड़ कर सभी गए। यद्यपि सबसे ज़्यादा वही उतावला था। जनवरी के सर्द मौसम का प्रभाव देखकर बहुत मुश्किल से रोका गया था, जिसके कारण वह देर तक रोता रहा। कोई नहीं जाता तो बड़ी बात नहीं होती, पर अन्य तीन गए हैं। उस नन्हें दिल-दिमाग़ में उत्सुकता का पहाड़ खड़ा करने के लिए इतना ही पर्याप्त है। 

मेघना की सोच इस विषय में हमेशा सकारात्मक ही रही है बावजूद नकारात्मक दृष्टि से छोटे भाई-बहनों की शिकायतें अक़्सर सुन कर अनसुना करती रही। पर, माँ न समझे इससे बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा? सोचती हुई गहन मंथन करने पर बाध्य हुई थी– क्या वाक़ई मैं इतनी स्वार्थी हूँ, अपनी माँ और भाई-बहनों की दृष्टि में? कभी भी मेरी सोच और समझ से क्या परिचित नहीं हो पाए वो? प्रत्येक बात के दोनों पक्षों पर विचार करना भी तो ज़रूरी है। आख़िर स्वार्थ क्या था मेरा? छोटों को अवसर देना? अनावश्यक उनके साथ शामिल ना होना? या ना करना?

अक़्सर आदमी कई बार अपने आर्थिक और सामाजिक कारणों से कुछ सीमाओं में बँध जाता है। जिस पर विचार करना अति आवश्यक ही नहीं एक सामाजिक दायित्व भी तो बन जाता है। कई बार चाहे-अनचाहे कटौतियों के साथ कुछ समारोह सम्पन्न होते हैं। ये उनकी आर्थिक संकुचित विवशता भी तो हो सकती है। कभी-कभी कुछ लोगों की स्वाभाविक कंजूसी भी होती है। व्यवस्था करेंगे सौ की, पर न्यौता दो सौ से पाँच सौ लोगों को कर देंगे। उपहार के स्वार्थ जैसी अनोखी मानसिक प्रवृत्तियों से भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। सस्ती ख़राब व्यवस्था के कारण सामूहिक विषाक्त भोजन के शिकार भी तो जाने-अनजाने लोग बनते हैं। ज़रूरी नहीं कि प्रत्येक रिश्ता-परिचयात्मक संबंध उतना ही गहरा और आत्मीयतापूर्ण हो। सामाजिक जीवन में कुछ रिश्ते या परिचय औपचारिक भी तो होते हैं, जिसका ध्यान और सम्मान करना ज़रूरी है। 

हमारे निम्न मध्यवर्गीय समाज में किसी भी विवाह या अन्य समारोह में भोजन बर्बादी बहुत ही आम बात है। चाहे इसे लापरवाही या मूर्खता जो भी कहा जाए? एक घृणित अपराध से क्या यह कम होगा? सबसे बुरी बात कि लोग खाने के टेबल पर ऐसे टूट पड़ते हैं, जैसे जन्मों की भूख आज और अभी, किसी बहाने से मिटा लेंगे। 

अतृप्त लिप्साओं की भी हद होती है यार! कई बार खाने और खिलाने वालों के द्वारा ऐसी अप्रत्याशित स्थितियांँ-परिस्थितियांँ उत्पन्न कर दी जाती हैं कि भोजन, बारातियों से पहले ही स्थानीय मेहमानों द्वारा चट कर गए या बर्बाद कर दिए गए। फिर ऐसे में तो मान-सम्मान और प्रतिष्ठा की भी बात बन जाती है। 
स्थानीय दुकानों से तब लड़की के पिता को भोजन की या राशन की आकस्मिक व्यवस्था करनी पड़ गई थी। वो तो बाज़ार-दुकान और दुकानदार नज़दीक उपलब्ध था तो सँभाल ली गई संबंधित आपातकालीन समस्या। नहीं रहने पर क्या होता?अक़्सर ऐसी कई घटनाएँ या बातें देखने-सुनने में मिल ही जाती हैं।"

मेघना जब इतनी समझदार हो गई तो इन बातों पर बहुत ग़ौर करती हुई अनावश्यक भीड़ का हिस्सा बनने से कतराने लगी। खाने पर कोई निमंत्रण दिया है तो इसका ये मतलब थोड़े ही है कि पूरा घर-परिवार उठ कर चला जाए? इस तरह फिर दूसरों के सीमित संसाधनों का दुरुपयोग कर सत्यानाश किया जाए?

अपनी समझ से अपने छोटे भाई-बहनों को अवसर देने के उद्देश्य से वह बचपने वाली भावना से मुक्त, पार्टी में शामिल होकर खाने के प्रति लालच से दूर रहने लगी।"जाओ तुम लोग जाओ मैं नहीं जाऊंँगी" कहकर हमेशा टाल जाती। 

सचमुच ऐसा ही होता था कि सभी को भेज कर अपने पढ़ाई या किताबों-कहानियों में व्यस्त रहकर, संतुष्ट रह कर सामाजिक दुनिया से कटी हुई दूर रहती। इस तरह का ये परिपक्व उदारतापूर्ण उसका बौद्धिक समझदारी भरा त्याग था। पर, उसके अपनों की दृष्टि में, अपने छोटे भाई-बहनों के प्रति असंवेदनशील-असहिष्णुता भरा, भावनात्मक लगाव की कमी उजागर होने वाली हीनता का परिणाम दिखता। 

पर हाँ, जब निकटतम सहपाठी-सहेली के घर की बात होती तो अपनी माँ के साथ अकेली चली जाती। जो उसका स्वार्थ समझा जाता। 

आज न एक-दो बच्चे रहते हैं दस-पन्द्रह वर्षों से। नहीं तो बीस साल पहले तक किसी भी घर में चार-पाँच बच्चों से कम शायद ही होते थे। हँसते हुए उन दिनों में वह कहती अक़्सर "कोई निमंत्रण दिया है तो इसका ये मतलब नहीं कि पूरी पलटन लेकर धावा बोलकर किसी का भी बेड़ा ग़र्क़ करने का बीड़ा उठाया जाए हर बार। कभी भी, किसी के लिए समस्या नहीं बनना मुझे।"

ख़ैर अब तो अन्ततोगत्वा लोगों की सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक व्यवस्थागत स्थितियों में बहुत बदलाव आया है। इसके साथ-साथ मानसिक और वैचारिक बदलाव भी तो आया है। 

3 टिप्पणियाँ

  • 16 Aug, 2021 04:59 PM

    काश! हमारा समाज भी स्वयं को भूलकर दूसरों का भला चाहने वाली मेघना जैसे 'स्वार्थी ' लोगों वाला बन जाये।

  • 12 Aug, 2021 08:34 PM

    बढ़िया कहानी, सारगर्भित भी. शुभकामनाएं

  • 10 Aug, 2021 09:28 AM

    Bahut sunder rachna

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