माँ का संस्कार

15-12-2021

माँ का संस्कार

पाण्डेय सरिता (अंक: 195, दिसंबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

जन-शताब्दी ट्रेन की सीटों पर यथास्थान लोग बैठे हुए हैं। यात्रियों में हर उम्र और अवस्था के लोगों की मौजूदगी है। वातानुकूलित यान की शान्ति में, कोई, किसी अधीनस्थ या नौकर को फोन पर डाँट रहा है। आवाज़ में बहुत कठोरता सुनाई दे रही है। कर्ण-कटु शब्दों की व्याख्या इतनी है कि स्त्री अस्तित्व और अस्मिता पर प्रश्न चिह्न लिए एक-एक शब्द में पुरुष अहंकारी भाव था। 

जाने कितना बड़ा कामदेव है कि सभी की माँ-बहन की संतानों का मौखिक पिता बनने का ठेकेदार बन रहा। एक बार, अनेक बार . . .  शब्दों का पिघलता लावा दोनों कानों में दहकता हुआ प्रतीत हो रहा था। 

मन दहकने को हो आया था, लगा कि जाकर कनपटी झनझना आऊँ। कहीं से भी किसी की कोई विरोधी प्रतिक्रिया नहीं आने पर अनवरत बौछारें जारी हैं। सहनशीलता की हद के पार जाने पर अपनी जगह पर खड़ी होकर आवाज़ की दिशा में देखने पर पता चला कि देखने में सुदर्शन और सभ्य वेश-भूषा में, अश्लील शब्दों का स्वामी, असभ्य व्यक्तित्व यही कोई पच्चीस-तीस वर्ष तक का पारंपरिक दबंगई दिखाने में अभ्यस्त बिगड़ैल युवक ही उद्घोषक कलियुगी कामदेव था। जिसके द्वारा प्रत्येक श्रोता की माँ-बहन खुलेआम नंगी सुशोभित हो रही थी। 

वह तल्लीनता में विच्छिन्न भ्रमित बुद्धि की जयघोष किए जा रहा था। ध्यानाकर्षित करते हुए उसे टोकना बेहद ज़रूरी था। ”कौन है रे जंगली? जो इस तरह माँ की . . . बहन की . . . किए जा रहा। एक तुम्हीं हो यहाँ अकेले या और भी लोग हैं यहाँ पर . . . तब से सुन रही हूँ बकवास किए जा रहे हो . . . खींच कर दूँगी थप्पड़। अब एक भी शब्द बोले तो . . . सूअर का बच्चा . . . !"

आख़िरी तीन शब्द घोर वितृष्णा युक्त थे। 

परिणामस्वरूप बरसाती पानी की तरह वह आक्रामकता के स्तर से धीरे-धीरे उतरता शान्त हुआ था और शब्दों में सावधानी से, सजगतापूर्वक नरमी बरतने लगा। 

ज्ञान-अज्ञान की प्रत्येक सीमा से परे सचमुच बहुत घृणा उपजी थी, सामंती सोच में फँसे युवक और उसके माता-पिता के प्रति। 

पुरुष पिता . . .?  क्या, कितना ज़िम्मेदार है? 

यह तो गहन मंथन का विषय है ही परन्तु माँ के लिए यह एक दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आने वाली बात है। 

बहुत अयोग्य माँ होगी, जिसका बेटा घनघोर असुर बुद्धि है। जिसमें सन् 2020 आज के इस प्रजातांत्रिक समाज में जैसे किसी मध्यकालीन सामंत की आत्मा चली आई थी। 

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