रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 39

 

करुणा जो अब तक उन्मुक्त आज़ाद पंछी थी इस प्रकार के आकस्मिक प्रतिबंध के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी। जिसके कारण खिड़कियों पर चढ़कर पिंजरे में क़ैद पंछी की तरह वह और भी हो-हल्ला मचाने लगी थी। बाहरी दुनिया की आक्रामकता के प्रति ढाई साल की बच्ची को क्या बता कर डराया या समझाया जाए? 

रागिनी बहुत संयत स्वर में करुणा से बोली, “अभी हम-दोनों बाहर नहीं घूमेंगे! क्योंकि मारने के लिए बहुत सारे गंदे लोग डंडा लेकर बाहर घूम रहे हैं। वो लोग मुझे भी मारने लगेंगे। तब तुम क्या करोगी?” सुनकर वह थोड़ा सहम कर शान्त हो गई। और जब उसके पिता अपने ड्यूटी पर जाने लगे . . . तो बड़ी ही मासूमियत से हाथ पकड़ कर बोली, “पापा . . . पापा! . . . आप भी बाहर मत जाओ . . . गंदे लोग डंडा मारेंगे।”

अब कमरे की सीमा में क़ैद करुणा के खेल-खिलौने एक सीमा तक ही मनोरंजन कर पाते थे। इसके अतिरिक्त उसने अन्य घरेलू सामानों जैसे बोतल-छूलनी-चिमटा-कटोरी-ग्लास आदि से खेलना प्रारंभ कर दिया था। 

एक दिन हड़बड़ाहट में रागिनी बाथरूम में अपने पैर धोने के लिए बाल्टी से पानी उलटने लगी। पैरों के फिसलन के साथ कुछ अजीब सा तैलीय अहसास हुआ। वह अंचभित-हतप्रभ होकर बल्ब जला कर देखा तो पानी पर कुछ तैलीय पदार्थ की परत तैर रही थी। नारियल तेल की गंध पूरे बाथरूम में व्याप्त थी। कहीं बेटी . . . नेबर्बाद तो नहीं कर दिया? 

जाकर देखती है तो, हे भगवान! कल ही एक लीटर ख़रीद कर लाया हुआ तेल जिस बोतल में भरकर रखा गया था, वह तो लगभग लगभग अस्सी प्रतिशत तक ख़ाली पड़ा है। उस बोतल में तेल के साथ में पानी तैर रहा। दिन भर तो माँ-बेटी एक दूसरे के साथ ही आगे-पीछे करती रहती हैं। पर जाने कब पलक झपकते ही उसने बोतल पानी के नल में लगाकर बहा दी। 

ओह ये ज़रूर खाना बनाने में जब व्यस्त थी रागिनी ने तभी किय होगा बेटी! . . . और उसके बाद कितनी शराफ़त से आकर गोद में सो गई जैसे कुछ भी तो नहीं हुआ है। 

“बेटी की मस्ती का अब बिल फटेगा माँ पर,” सोचती हुई मासूमियत से सराबोर बेटी को सोई हुई देखकर तनाव के बावजूद हँसी छूट गई। 

बाहर नल पर एक बड़े से पत्थर पर सार्वजनिक रूप से कपड़े धोने की व्यवस्था थी। पता नहीं क्यों? बाथरूम में कपड़े धोने पर चाहे जिस वजह से भी हो, विचित्र काई जम जाती। जिसके अति फिसलन से रागिनी और करुणा कई बार गिर गई थीं। अन्तत: काई के फिसलन से परेशान होकर सबकी तरह रागिनी भी बाहर ही कपड़े धोने लगी। ऐसी व्यवस्था वहाँ के अमीर–ग़रीब प्रत्येक घर में थी। 

एक भरी दोपहरी की बात है। सुबह से ही भीगो कर रखे कपड़े धोने के लिए जैसे ही रागिनी बाहर आई, माँ के साथ-साथ करुणा भी कुँलाचे मारती हुई बाहर भागी। 

पता नहीं क्यों? रागिनी बेटी को गोद में उठा कर घर में ले जाकर बिछावन पर बिठा कर उसके पास ढेरों सारी तस्वीरों की अलबम रख दीं। जिन्हें देखना उसका पसंदीदा काम था। “तुम सारी तस्वीरें देखो तब तक तुम्हारे साथ इन्हें देखने मैं सारे कपड़े धोकर आती हूँ।”

बेटी को बहलाकर अभी आकर कपड़े साफ़ करना शुरू ही किया था कि कुछ अजीब सी सरसराहट पास से अनुभव की। ध्वनि की दिशा में देखने पर एक बहुत ही विशाल विषधर कालसर्प गुज़रते हुए देखकर आश्चर्यचकित सुन्न रह गई। ज़ोरों से धक-धक! धक-धक! हृदय उछल कर दिमाग़ में बज रहा था। कलेजा मुंँह को आना इसे ही तो कहते हैं। बचने के लिए अकस्मात् घबराहट में झट से उस ऊँचे पत्थर पर चढ़ गई थी। चढ़ने के क्रम में घुटने में चोट भी आई। 

वो तो अच्छा हुआ कि इस अप्रत्याशित गतिविधि में आमने-सामने दोनों में से किसी को भी बाधा नहीं पहुँची। वह बहुत पास से होता हुआ गुज़र गया और उसके घर की तरफ़ से गुज़रते हुए झाड़ियों में खो गया। रागिनी उसे गहन झाड़ियों में विलीन होता हुआ देखती रही। 

“हे भगवान! वो तो अच्छा हुआ कि मैं बेटी को अंदर ले जाकर बिस्तर पर बिठा आई थी। नहीं तो . . . जाने क्या से क्या होता?” सोच कर सिहर उठी। 

टीवी समाचार और अख़बार रोज़ाना मारपीट, हो-हल्ला की घटनाओं से भरा पड़ा रहता। जिससे भावुक संवेदनशील लोगों की अलग ही ख़ून सूखने वाली बात थी। जाने घटनाक्रम कब शहर से होता हुआ गाँवों तक पहुंँच कर दंगा रूप ना ले ले। 

अक्षता-अक्षिता के अतिरिक्त मुहल्ले में अब बच्चे उतनी आज़ादी से बाहर निकल कर शोरगुल नहीं करते थे। अक्षता-अक्षिता जुड़वाँ बहनें थीं। जिनकी माँ, किसी निजी क्षेत्रीय बैंक में कार्यरत दिन भर बाहर ड्यूटी पर रहती थी। जो अपने शराबी पति के शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना से आहत स्वाभिमान, अपने बच्चों के साथ यहाँ अलग रहती थी। 

आख़िरी तीसरे गर्भ रूप में, अक्षता वहीं गाँव के अस्पताल में जन्मी थी। जबकि प्रसूति माँ, जया की हालत गंभीर होने पर आधे-पौने घंटे बाद अक्षिता मंगलोर के अस्पताल में जन्मी थी। जिनसे अब तक का परिचय था। 

जिनका सबसे बड़ा भाई था और फिर उसके बाद बहन थी। आर्थिक-सामाजिक-पारिवारिक सुरक्षात्मक कारणों से दोनों भाई-बहन मंगलोर के अपने नानी घर में पल बढ़ रहे थे। 

तीन बेटियों और एक बेटे की फ़िक्र के साथ वह अपने ही ससुराल के गाँव में भाड़े पर अपने से पाँच-छह वर्ष बड़े ऑटो-रिक्शा चालक मामा के सहयोग पर रहती थी। वैसे दक्षिण भारतीय समाज में मामा-भगिनी का विवाह सामाजिक सर्वमान्यता प्राप्त है। उसी गाँव में उन मामा का भी परिवार रूप में शिक्षिका पत्नी और करुणा के सम-वयस्क एक नन्ही बेटी थी। 

विशाखा और उसकी माँ के मुख से सुना था कि जया की मददगार रहने के कारण मामा और मामी में आपसी विभेद और झगड़े ख़ूब होते हैं। जिससे तंग होकर और कुछ अक्षता-अक्षिता के सुरक्षात्मक फ़िक्र में मामा अक़्सर यहाँ घर पर होते थे। 

दोनों बच्चियों के साथ यदि कोई पुरुष है तो स्वाभाविक रूप में उनका पिता ही होगा की सामान्य धारणा के तहत अनजाने में ही रागिनी किसी बात पर जया से बातचीत के क्रम में चर्चा की थी तब जया ने स्पष्ट किया था, “वो पुरुष बच्चियों के पिता नहीं हैं। बल्कि मेरे मामा हैं। बच्चों के पिता से मेरा अभी संबंध-विच्छेद चल रहा है।”

रागिनी द्वारा कारण पूछे जाने पर, “मेरा पति पहले बहुत प्यार करता था। अरब में कमाते हुए बहुत अच्छे से हमें रखता था। पर जाने क्या हुआ कि सब छोड़-छाड़ कर . . . शराब . . . के चक्कर में फँसकर कर मुझे मारने-पीटने लगा।” कहकर चुप हो गई। और उस मौन को ज़्यादा कुरेदने की ज़रूरत एक स्त्री रूप में ना रागिनी को थी, ना जया को। 

अपने पिता के बदले, माँ के मामा के सान्निध्य में दिन भर आगे-पीछे चहकती, उछलती-कूदती-खेलती बड़ी हो रही थीं। जिन्हें बच्चियांँ अंकऽलऽ! संबोधित करतीं। 

वहीं के उपलब्ध सामाजिक सुविधाओं में पल-बढ़ रही थीं। सरकारी स्कूल में पढ़ कर आने के बाद दोनों बहनें अपने हिसाब से वहीं घर के आसपास खेलती-कूदती। बीमार रहने पर कमरे के किसी कोने में ज़मीन पर ही सो जातीं। 

चाहे कोई भी मौसम हो, सालों भर का एक चक्र था। सुबह के साढ़े छह से सात बजे तक जो भी सम्भव होता जया, मोटे लाल चावल के भात के साथ मछली या सब्ज़ी कुछ भी पका कर चली जातीं। शाम के साढ़े छह से सात बजे तक लौट कर आती। पानी गर्म करके नहाने-धोने के बाद खाना बना कर खा-पीकर सो जाने का नियमित दैनिक क्रम चलता। 

दक्षिण भारत में सुबह के बदले में शाम को नहाने की जनमानस में आदत है। सालों भर गर्म पानी से नहाना और मसालेदार गर्म पानी पीने की आदत है। वहाँ के लोग रात-आधी रात कभी भी केले खाने में माहिर हैं। केलों में लाल केले की अपनी विशेषता है। साधारण केले की तुलना में एक केले की क़ीमत कई गुना ज़्यादा होती है। नारियल तेल में तले हुए केरल के केले के चिप्स, पूरे देश-दुनिया में विख्यात हैं। 

वहाँ के नम बरसाती मौसम में अलग वातावरण अलग परिवेश था। उस वातावरण के विपरीत उत्तर भारतीय शैली अपनाने के कारण स्वास्थ्य संबंधित समस्याएँ होने लगतीं। ठंडा पानी पीने और नहाने से करुणा अक़्सर बीमार पड़ जाती। उसे लेकर बार-बार डॉक्टर के पास जाने की रागिनी के लिए नौबत आ जाती। 

आरम्भिक जाँच करते हुए डॉक्टर ने रागिनी से पूछा, “बच्ची ने क्या खाया था?” 

“बहुत मना करने के बावजूद केला, कल शाम को खाया है,” रागिनी ने कहा। 

सुनकर डॉक्टर ने हँसते हुए कहा, “दक्षिण भारत में केला खाने से कौन बीमार पड़ता है भला? अच्छा मज़ाक कर लेती हो मैडम!” 

सुनकर रागिनी आश्चर्यचकित रह गई थी। इसी को धारणाएँ कहते हैं जो स्थान विशेष पर बदल जाती हैं। 

अभी पन्द्रह से बीस दिन पहले की ही तो बात है। राजीव ने समुद्र तट जाने के क्रम में, रास्ते में पड़ने वाली दुकान से आवश्यकता से अधिक आइसक्रीम ख़रीदी थी। रागिनी के मना करने पर भी दोनों पिता-पुत्री ने दो से तीन आइस-क्रीम खा कर गर्मी में बालू पर खेलते हुए ख़ूब मस्ती की थी। इसके परिणामस्वरूप करुणा को मिज़ल्स हो गया था। जिसके कारण वह शारीरिक-मानसिक तौर पर बहुत कमज़ोर हो गई थी। 

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