भोला सर/शर्मा सर

01-01-2023

भोला सर/शर्मा सर

पाण्डेय सरिता (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता! 
कहहिं सुनहिं बहू बिधि सब सन्ता!! 

हम भारतीय भी विचित्र हैं। कुछ महान काम भले ही करें न करें पर किसी यशस्वी पुरुष या महान व्यक्तित्व से येन-केन-प्रकारेण अपना नाम जोड़ कर उस कीर्ति-विभूति के कुछ छींटे अपने ऊपर छिड़क कर उस पुण्यलाभ का बड़भागी बनने का प्रयास करने लगते हैं। मेरा यह लघु प्रयास भी संभवतः कुछ ऐसा ही हो। फिर भी अपनी इस लघु ढिठाई की हिम्मत कर रही हूँ। 

हम दोनों पति-पत्नी उनके असंख्य विद्यार्थियों में से एक रहे हैं। उनके पढ़ाए विद्यार्थी देश-दुनिया भर में फैले हुए हैं। जिनके हृदय में वह आज भी आदर के साथ विराजमान हैं। 

आज के समय में बाहरी आडम्बर से भरी जीवनशैली जितनी अशान्ति फैला रही है कम से कम तीस-चालीस साल पहले तक बिलकुल भी नहीं थी। थी भी तो अपने सीमित रूप में थी। 

गौर वर्ण, लम्बा क़द, आकर्षक व्यक्तित्व में धोती-कुर्ता पहनावे में पूरी सादगी, निष्ठा और तन्मयतापूर्वक साधक रूप में कोई, कैसे जीवनयापन करता है, इसका एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण उदाहरण रूप में हैं शर्मा सर, भोला सर अर्थात्‌ इंद्र देव शर्मा। अधिकांशतः लोगों को उनका पूरा नाम शायद ही पता होगा। आज से बारह साल पहले तक क्रियाशील भोला सर या शर्मा सर युवाओं के बीच सुप्रसिद्ध पहचान रूप में हैं। 

बिहार के नालन्दा ज़िले के परवलपुर थाना अंतर्गत सोनचरी गाँव में पिता रामचंद्र सिंह और माता रामसखी देवी के पुत्र रूप में 02/10/1943 में जन्में बालक की सौम्यता और भोलेपन के साथ घुँघराले बालों में लम्बी-लम्बी जटाएँ रहतीं। अपने वंशजों में ऊँची पीढ़ी होने के कारण वह बाल्यावस्था से ही गाँव के गोतिया में सबका बाबा था। अत: सभी उन्हें भोला बाबा कहते। प्रणाम करने पर वह बालक भी “जय-जय” करके सबका अभिवादन स्वीकार करके आशीर्वाद देता। वही आदत आज भी है। 

भोला की प्रारंभिक शिक्षा और मैट्रिक तक की पढ़ाई गाँव के बड़े मठ में सम्पन्न हुई हिन्दी माध्यम से जहाँ वह स्कूली शिक्षा के साथ-साथ कृषि विज्ञान भी सीख रहा था। सन्‌ 1960 में वह मैट्रिक प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। बिहार के सर्वोच्च अंक प्राप्त करने वालों की सूची में शामिल थे‍। जिसके कारण आज भी गाँव के उस विद्यालय में उनकी तसवीर लगी है। जन्मतिथि से संबंधित एक घटना तो जोड़ना आवश्यक होगा। बालक के मैट्रिक के लिए जब रजिस्ट्रेशन होने लगा तो स्कूल के लिपिक शत्रुघ्न सिंह ने स्नातक में दो साल फ़ेल होने का अपना कड़वा अनुभव याद कर बालक की जन्मतिथि में दो साल बढ़ा दिए। सन् 02/10/1945 कर दिया ताकि एक-दो साल फ़ेल होने पर भी समय ना बर्बाद हो। 

गाँव की पाठशाला में कृषि शिक्षा पर अत्यधिक ज़ोर देने के कारण उनके पिता असंतुष्ट थे कि खेती-बाड़ी, किसानी तो गाँव पर रहकर कभी भी सीखी जा सकती है। 

अंततः प्री-यूनिवर्सटी की पढ़ाई अँग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने के लिए पिता ने पटना कॉलेज भेजा। वहाँ के तेज़ विद्यार्थियों में इनकी गिनती थी। मिंटो हॉस्टल में रहकर पढ़ते हुए प्री-यूनिवर्सटी प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण की। अर्थशास्त्र में पार्ट 1 भी प्रथम श्रेणी रहे। इस प्रकार स्नातक और परास्नातक द्वितीय श्रेणी से सफल हुए। पटना विश्वविद्यालय अँग्रेज़ी माध्यम था। जिसके कारण संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन भी अँग्रेज़ी में ही होता था। 

देश में इमरजेंसी काल घोषित हुआ था तो सरकार के विरुद्ध आवाज़ उठाने के कारण उस कॉलेज के पाण्डेय नाम का कोई विद्यार्थी गोली-बारी में मारा गया था। जिसके कारण पटना का बीआईएन कॉलेज ख़ूब सुर्ख़ियों में था। युवावस्था की जोशिली दुनिया और ज्ञान का अथाह सागर इन्हें राजनीति की ओर मोड़ रहा था। घर पर भी तो कांग्रेसी पिता लगातार अपनी समाजसेवी विचारधारा के कारण निर्विरोध मुखिया चुने जाते। गाँव में किसी की बेटी का ब्याह है तो बाज़ार जा कर ज़ेवर-गहने ख़रीदारी करने की ज़िम्मेदारी इनकी। ज़मीन-ज़ायदाद का मामला है तो ज़िम्मेदारी इनकी। सिर्फ़ अपना जीवन, अपने बच्चे की सीमारेखा के पार परोपकारी भावना तो संस्कार और विरासत में मिली थी। 

अकाल के समय में भी अपना खेत सूख रहा बावजूद किसी विधवा की खेत की ओर पानी मोड़ देते रहे ताकि उसके बच्चे भी जीवित रह सकें। 

उसी विरासत के अग्रगण्य पुरोधा युवा इंद्र भी बन रहा था। पर कम्यूनिस्ट बन कर। छात्रजीवन में ही इनके सहपाठियों और मित्रों ने मिलकर एक राजनीतिक समूह बनाया था जो लाल सलाम, कम्युनिज़्म का प्रतिनिधित्व करता और सरकार का यथासंभव विरोध करता। उस विरोध का एक उदाहरण था कि पटना के खादी भंडार में आग लगा दी गई। पुलिस कार्रवाई से बचने के लिए गाँव चले आए। गाँव में भी राजनीतिक दल की स्थापना हुई और उसके लिए चंदा एकत्रित कर सहयोगी प्रयासों वाली बात पिता तक पहुँची। जिससे उनके स्वाभिमान को ठेस पहुँची, “अकाल जैसी विषम परिस्थितियों में भी पूरा परिवार सक्षम रहा। भीख माँगने की नौबत नहीं आई पर यह क्या है? जो इस तरह खुलेआम भीख माँग रहे हो। ऐसा करते तुम्हें शर्म नहीं आ रही।” पूरे गाँव वालों के लिए भी यह विस्मय की बात थी कि कितना पढ़ने में तेज़ विद्यार्थी था जाने क्यों भीख माँग रहा? पिता कम्यूनिस्ट विचारधारा के पूर्णतः विरोधी, बस क्या, बेटे को आख़िरी धमकी दे दी, “अब इस घर से तुम्हें एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी। आत्मनिर्भरता का अपना रास्ता देखो।”

छठवीं कक्षा में पढ़ते हुए ग्यारह वर्ष की उम्र में ही उनकी पहली शादी हुई थी। पत्नी जिनकी ब्रेन हेमरेज होने के कारण सन् 1962 में आकस्मिक मृत्यु हो गई। 05/06/1964 में दूसरा विवाह गिरिजा देवी से सम्पन्न हुआ। 

अर्थशास्त्र में परास्नातक युवा के लिए पहली प्राथमिकता तो अध्ययन-अध्यापन ही रहता है। बावजूद घर-गृहस्थी चलाने के लिए खेती-बाड़ी भी आज़मायी। पर देखो मुसीबत, सारी मेहनत पर सन् 1966 के अकाल ने पानी फेर दिया था। “क्या कृषि करने के लिए इतना पढ़ने-लिखने में समय बर्बाद किया? जब खेती-बाड़ी ही करनी थी तो मैट्रिक के बाद ही करते। इतना पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं थी।”

पिता के मुख से सुन वह कई कॉलेजों के रिक्तियों वाले आवेदन पर बरबिघा कॉलेज पहुँचे। पहुँचने पर पता चला कि जो कर्मचारी है उसके पुनर्नियुक्ति के लिए यह आवेदन दिया गया था। उसके बाद भभूआ कॉलेज गए तो पता चला कि उस कॉलेज के सेक्रेटरी का भतीजा या भगना नियुक्त हो चुका है। हर बार योग्यता भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ जा रही थी। 

अगली बार लखीसराय कॉलेज की वेकेंसी देखकर साक्षात्कार के लिए पहुँचे। अंत में पता चला जो इस पद पर पहले से स्थापित है उसीके पुनर्नियुक्ति के लिए यह रिक्ति की वेकेंसी आवेदन दी गई थी। साक्षात्कार ले लिया गया ताकि अनुभव तो बढ़ेगा। प्रिंसिपल और सेक्रेटरी साक्षात्कार से प्रभावित भी हो गए। 

रोज़गार के लिए संघर्षरत इसी साक्षात्कार में, इस बार लेकिन गंगा पार किसी कॉलेज में 150 रुपए प्रतिमाह वेतन पर किसी दूसरे कॉलेज में नियुक्ति का अवसर मिला। जब तक वहाँ काम शुरू करते इससे पहले मैट्रिक बेसिक पर भारतीय रेलवे के आर.एम.एस. में चयन हो गया। जिसमें 210 रुपए प्रति माह सरकारी नौकरी से एक बँधे-बँधाए रोज़गार का साधन प्राप्त हुआ। अपने बहनोई के सलाह पर कॉलेज की डेढ़ सौ की प्राइवेट नौकरी के बदले आर.एम.एस. की सरकारी नौकरी को प्राथमिकता दी गई। यह नौकरी जहाँ लोग स्नातक वाले भी नहीं थे। ये तो परास्नातक थे। अपनी शैक्षणिक अनुपयोगिता कहीं ना कहीं हृदय को कचोट रही थी। अब रोज़ी-रोटी का प्रश्न तो समाप्त हो गया था। पर सरस्वती का वरदपुत्र शिक्षा रूपी साधना के लिए असंतुष्ट था। तभी गोमोह में रहते हुए पण्डित जवाहरलाल नेहरु मेमोरियल कॉलेज के लिए किसी स्थायी सहयोगी रूप में प्रोफ़ेसर की आवश्यकता जताई गई। क्योंकि पैसे के अभाव में वहाँ कोई भी पढ़ानेवाले टिक नहीं पाते थे। मित्रा सर का प्रस्ताव स्वीकार कर सन् 1975 में अवैतनिक प्रोफ़ेसर रूप में जुड़ गए। सुबह के छह से नौ-साढ़े नौ तक मुफ़्त, अवैतनिक सेवाभाव कॉलेज और दस से चार आर.एम.एस. की नौकरी। उसके साथ अपनी घर-गृहस्थी बाल-बच्चे (तीन बेटे एक बेटी) धैर्यपूर्वक सीमित संसाधनों में ही असीमित प्रयास सब कुछ संचालित हो रहा था। 

महिलाओं की उच्च शिक्षा सम्बन्धी सीमित संसाधन गोमोह जैसे छोटे जगह पर सत्तर से अस्सी के दशक में सबसे बड़ी समस्या थी। जिसके लिए बुद्धिजीवी लोगों के एक सार्थक प्रयास से अल्प व्यवस्थाओं के बीच बालिका विद्यालय गोमो प्रांगण में पण्डित जवाहरलाल नेहरु मेमोरियल कॉलेज, गोमोह महिला कॉलेज की स्थापना हुई। जिसके संस्थापक संयोजक आर.के. शर्मा रेलवे में टीटी थे। संस्थापक सचिव सत्यनारायण दुधानी थे। 

उनके सहयोगियों में आशीष कुमार मित्रा बालिका विद्यालय और आज़ाद हिन्द के प्रधानाध्यापक थे। राम दरश गुप्ता जो बालिका उच्च विद्यालय में शिक्षक थें लिलि घोसाल के सेवानिवृत होने पर बाद में प्रधानाध्यापक बने और पण्डित नेहरू कॉलेज के प्राचार्य रूप में भी रहे थे। ए.आर. रहमान, यदुनंदन तिवारी, डॉ. सुबोधचंद्र तिवारी, मोहनलाल भगत, रामानंदन झा, के.पी. ठाकुर, विभूति भूषण चौधरी, इंद्र देव शर्मा जैसे कुशल, पूर्ण समर्पित प्रोफ़ेसर थे। नित्यानंद शुक्ला प्रधान लिपिक रूप में जुड़े। इसके अतिरिक्त अन्य लोगों का सहयोगी साथ भी मिला। सभी अपने-अपने कार्यक्षेत्र में से बचे समय में घर-घर घूमकर विद्यार्थी एकत्रित करते। ख़ाली समय में भी सोते-जागते, उठते-बैठते उनके मन-मस्तिष्क में कॉलेज ही रहता। ताकि धनबाद आने-जाने की परेशानियों  के कारण, दूरी स्त्री शिक्षा में रुकावट न बने। उन सभी का यह उद्यम घर फूँक कर तमाशा देखने वाली बात घर-परिवार वालों को लगती। वर्तमान का कॉलेज उन्हीं चंद साहसी लोगों का सार्थक प्रयास, नींव बनकर मज़बूती दे रहा था। सुबह के छह से दस बजे तक स्कूल के समय से पहले तक के समय में महिला कॉलेज और उसके बाद दस बजे से स्कूल चलने लगा। यह क्रम तब तक चला जब तक बालिका विद्यालय निजी तौर पर चल रहा था। 

जब जगरनाथ मिश्रा बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने बहुत सारे शिक्षण संस्थानों का सरकारीकरण किया था। जिसके तहत ही गोमोह का आज़ाद हिन्द स्कूल और बालिका स्कूल भी निजीकरण से लेकर सरकारी स्कूल में परिवर्तित हुआ। अब फिर से एक बार कॉलेज के स्थान की समस्या हुई। जंगलकोठी के किसी ख़ाली स्थान में दो-चार दिन चली। आज़ाद हिन्द स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक ने वहाँ के प्रधानाध्यापक से बात कर कॉलेज को वहाँ स्थानांतरित करवाया। वहाँ के बड़े कैंपस में अब महिला-पुरुष दोनों के शिक्षा की वैकल्पिक व्यवस्था हुई। 

अभी भी समय का वही रूप रहा जब स्कूल के समय के अनुसार तालमेल बिठा कर कॉलेज चलता रहा। एक सीमित समय में अर्थशास्त्र और संस्कृत में से बहुत कुछ समझने में आने वाली समस्याओं के कारण विषय सम्बन्धित जटिलताओं को समझा देने के लिए अक़्सर लड़कियाँ उनसे अनुनय करती। अब उसके लिए भी वह एक समूह बनाकर किसी के घर पर एकत्रित होतीं। अपनी व्यस्ततम दिनचर्या में से समय निकाल कर जहाँ जाकर उनका मार्गदर्शन करते। निशुल्क यह भी मात्र चाय-पानी तक सीमित रहता। यह निशुल्क सेवा 1997-98 तक चली। जब पण्डित जवाहरलाल नेहरु मेमोरियल कॉलेज अपने वर्तमान रूप में स्थापित हो चुका था। उसके मान्यता प्राप्ति के लिए आकाश-पाताल एक करने वाला अथक प्रयासों का परिणाम था और अपने विकास के चरण पर आगे बढ़ने लगा था। 

कॉलेज और उसके विद्यार्थियों के प्रेम ने शर्मा सर को ऐसे बाँधा कि हर-बार वह अपनी नौकरी में मिलने वाली पदोन्नतियों के लिए होनेवाली परीक्षा में सम्मिलित नहीं होते। जिसके कारण उनका और कॉलेज का सम्बन्ध सौतन की तरह पत्नी को प्रतीत होता। क्योंकि पत्नी को नाम-यश-वैभव की महत्वाकांक्षा थी। और उनकी इच्छा के विरुद्ध अपने नाम भोला को सिद्ध करते हुए वैरागी बने हुए थे। जिसके कारण श्रीमती जी इस नाम की सार्थकता में बसी निरर्थकता से भी चिढ़ थी। 

बच्चों में सबसे छोटी बेटी थी। जब तक सोकर उठती, पिता कॉलेज जा चुके रहते। दिनभर के भटकाव के बाद घर पहुँचते बेटी सो चुकी रहती। इस प्रकार पिता को देखे बिना हफ़्ता गुज़र जाता। अपने बेटे, पिता की अनुपस्थिति में गली-गली घूमते। जिसका ताना श्रीमती जी देती। और वह सब बर्दाश्त कर शान्त, परम शान्त बने रहते। अपनी ऊर्जा बचा लेते। पिता की विद्वता की परछाईं बच्चों के लिए सुरक्षा कवच का काम करती। अरे! यह तो शर्मा सर का बेटा-बेटी है। जिसका आकस्मिक और अप्रत्याशित लाभ मिल जाता। कहीं, कोई उन बच्चों को तंग नहीं करता। 

सन् 1997-98 की बात है। मान्यता प्राप्त कॉलेज में शिक्षण और सरकारी सेवा दोनों एक साथ नहीं हो सकता, इस आधार पर नई अनुभवहीन नियुक्तियाँ हुईं। और अनुभव को विदाई दे दी गई। परिणामस्वरूप स्नातक पहले वर्ष के अर्थशास्त्र स्नातक के पाँच में चार विद्यार्थी फ़ेल होकर औंधे मुँह गिरे। उस वर्ष हम पाँच विद्यार्थी थे। राजेश कुमार, राजकुमार मंडल, नम्रता श्रीवास्तव, मैं, और एक कोई लड़का जिसका नाम भूल रही हूँ—संभवत: आत्माराम चौरसिया। जो मुश्किल से किसी तरह अनुकंपा में पाँच अंक प्राप्त कर पास हुआ था। 

लड़कों का क्या? वह तो कहीं आ-जाकर अपना कार्य सिद्ध कर लेते। पर सर के कॉलेज छोड़ने पर अधिकांशतः लड़कियाँ अब विचित्र उलझन में फँस गई थीं। पुनः उनके घर दौड़ी गईं और ट्यूशन पढ़ाने के लिए ज़िद करने लगीं। अब तक वह अपने एक कमरे वाले सरकारी निवास से निकलकर दो कमरे वाले दुर्गापाड़ा वाले आवास में आ चुके थे। ज्ञान का स्थान पाने के लिए जहाँ एक कमरा चौकी और बेंच के साथ सुशोभित था। लकड़ी की चौकी पर बिछे पतले गद्दे पर सूती चादर और बिछावन से लगे बेंच पर बैठ कर पढ़ते विद्यार्थी! 

सेवानिवृत्ति के बाद मैंने देखे हैं बड़े टेबल के चारों तरफ़ मोढ़ा डाल कर पढ़ते विद्यार्थी! 

सामर्थ्यानुसार अब बच्चे स्वेच्छा से 100-150-200 रुपए देने लगे थे। जो सामर्थ्यवान थे तो कोई 300 रुपये भी देते। किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं। पढ़ाने का शुल्क पूछने पर, वह साफ़ स्पष्ट शब्दों में कहते, “देखो भाई! यह विद्या मेरे लिए जीविका का साधन तो है नहीं। अपने व्यस्त दिनचर्या से जो भी समय निकालकर कभी आधा घण्टा, कभी पौन घण्टा कभी एक घण्टा भी समय दूँगा। संभवतः कभी समय न भी दे पाऊँ। अत: जो भी उचित लगे दीजिए। सामर्थ्य ना हो तो मत दीजिए। किसी सीमा से मैं बंधनमुक्त हूँ।”

सन् 2005 में आर.एम.एस. से सेवानिवृत होकर 2008 तक गोमोह में पुरानी बाज़ार के खत्री-वाच के सामने वाले रेलवे क्वार्टर में रहते हुए पढ़ाते रहे। उसके बाद वह स्वास्थ्यगत कारणों से धनबाद के निकटतम क्षेत्र में अपने बेटे पास रहने भूली आ गये। तो साल भर बाद तक गोमोह से लड़कियाँ यहाँ भी आती रहीं। लगभग 34-35 साल तक माँ सरस्वती की सेवा में कभी किसी विद्यार्थी को ना नहीं कहा। यथासमय-यथासंभव सहायता और मार्गदर्शन करते रहे। 

पारिवारिक सहमति से पैतृक सम्पदा में बँटवारे के लिए सन् 2009 में अपने पैतृक गाँव चले गये। तब से 10 मार्च 2020 तक सोनचरी में रहे। 11 मार्च 2020 कोरोना संकट काल से अब तक वह अपनी धर्मपत्नी और बेटे के परिवार के साथ भूली में ही हैं। आज भी उनके जीवन में भौतिक साधनों की सीमित उपयोगिता है। 

हालाँकि इस पूरी कहानी में असंख्य ऐसे पात्र हैं जो समय-समय पर जुड़ते जाएँगे और मैं इस कहानी को विस्तार दूँगी। कहानी . . .? या धारा जो भी समझा जाए। 

गोमोह के सन् 1991-92 के बाल विकास विद्यालय में पढ़ने के क्रम में शीनू और रूमा दो बहनें मिली थीं। जो दोनों मुझसे दोस्ती के लिए प्रतिस्पर्धा करतीं। दोनों बारी-बारी से मेरा ध्यानाकर्षित करतीं, “दीदी आप मेरी सिर्फ़ मेरी दोस्त हैं ना?” मुझसे साल-दो साल छोटी बहनों का वह प्रतिस्पर्धात्मक सम्बन्ध बाद में पता चला। पर उस समय तो सहज-सामान्य बचपना समझते हुए दोनों को प्रसन्न कर देती, “हाँ मैं तुम्हारी दोस्त हूँ। सुनकर वह दोनों कभी ख़ुश हो जातीं। कभी मेरे लिए लड़-झगड़ भी लेतीं। मैं अपने बड़े होने के अधिकारभाव से उन्हें मना भी लेती। उस समय मुझे इतना ही पता था कि विद्वान प्रोफ़ेसर कोई शर्मा सर हैं जिनकी ये भतीजियाँ हैं। पर, उन दोनों के उस लगाव के अतिरिक्त मेरे लिए कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं था। ठंड के मौसम में रूमा की आँखें लाल हो जातीं तो मैं अपने फ्राक या शॉल को मुँह का भाप देकर सेंकती। श्यामल शीनू और गौर रूमा कुछ भी पसंद करतीं तो एक साथ, नापसंद भी करतीं तो एक ही साथ। ख़ैर 1993 में मैं बालिका उच्च विद्यालय चली गई उसके बाद दोनों से कभी नहीं मिल पाई। सन् 1994-95 में मेरे पड़ोस में गुड़िया दीदी को पढ़ाने के लिए आए शर्मा सर से पहली बार मिली। शिक्षा के प्रति कोई सहायता की उदार पेशकश भी मिली। कोई आदरणीय उपलब्ध है इसका यह मतलब थोड़े ना है कि उन्हें इस्तेमाल किया जाए। 

मेरा स्वाभिमान उन्हें अनावश्यक तंग करने की अनुमति नहीं दे रहा था। कॉलेज में पढ़ते हुए भी यथासंभव मैं ख़ुद से लड़ती-पढ़ती रही। उन्हीं के पढ़ाने के भरोसे धनबाद आने-जाने की परेशानियों से बचाव के लिए अन्य कोई विकल्प न रहने पर अर्थशास्त्र ले लिया। इसी क्रम में पढ़ते हुए पिता की नौकरी से बर्ख़ास्तगी झेलने की विवशताएँ भी आई। पूरी तरह आर्थिक अभाव और मानसिक विचलन जनित आत्महीनता बोध का झटका तो था ही पी.ऐन.ऐम. कॉलेज से सर का हटना भी मुझे और भी ध्वस्त कर गया। मैं जानती थी कि वह मेरे या किसी भी विद्यार्थी के लिए उदार हैं। मेरे गोतिया के बाबा के सहपाठी और सहकर्मी भी हैं। 

हमारे लिए अर्थशास्त्र की डॉ. सुमन की किताब जो सहज-सामान्य थी, उसके बदले ऐम. सेठ की किताब लाद दी गई। उतनी जर्जर आर्थिक अवस्था में भी जो बड़ी मुश्किल से पटना से मँगवायी गई थी। पहला पेपर अँग्रेज़ी में मिला। दूसरे पेपर की किताब हिन्दी में . . . और भी बेड़ा गर्क . . . और मैं ख़ूब-ख़ूब छटपटाहट में हाथ-पैर मारकर भी जीवन में पहली बार फ़ेल . . .

“बिना पैसे दिए उनसे भी मैं नहीं पढ़ूँगी। मतलब नहीं पढ़ूँगी।” ज़िद पर अडिग रही। इसी तरह स्नातक के तीसरे वर्ष में चली गई। अब अवांछित पर एक पेपर गणित देखकर हाथ-पाँव फूलने लगे। आर्थिक मजबूरी के साथ-साथ धनबाद की दूरी, जहाँ प्रो. सरोज झा पास आकर, ढाई सौ रुपए ना दे पाने की विवशता भी तलवार की तरह सिर पर लटकी थी। 

ख़ैर निरुपाय होकर मैं ट्यूशन के लिए अन्य विद्यार्थियों के साथ शामिल हुई। वैकल्पिक विषय में गणित के बदले सैंद्धान्तिक अर्थशास्त्र में किसी तरह 56% से उत्तीर्ण की थी। ट्यूशन में सहपाठी संजय, वर्तमान मेरे श्रीमान जी सरोज झा पास पढ़ते हुए तीन पेपर गणित के कारण किसी तरह 60% तक गिरते-पड़ते पहुँच पाए थे। और यही गणित ने उनकी नैया परास्नातक में भी पार कराई। शर्मा सर के कहने पर ही अपनी पढ़ाई के साथ संजय गोमोह की स्नातक और परास्नातक अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों में अधिकांशतः लड़कियों को सन् 2001 से 2006 अप्रैल तक गणित पढ़ाया। और सभी विद्यार्थी बेहतरीन परिणाम के साथ उत्तीर्ण भी हुए . . . अपने जीवन में मैं तो अर्थशास्त्र की अन्य कोई उपयोगिता नहीं पाती। बस इतना ही कि अर्थशास्त्र ने मुझे मेरा जीवनसाथी एक सहपाठी रूप में दिया। 

नहीं तो मेरा प्यार! मेरा समर्पण तो हिन्दी या संस्कृत भाषा और साहित्य मात्र था। पर उसके रास्ता उस वर्ष पी.ऐन.ऐम. कॉलेज से बंद हो चुका था। यानी हिन्दी और संस्कृत में स्नातक नहीं था। 

साल 2000 अक्टूबर से 2001 अप्रैल तक सर के यहाँ पढ़ कर स्नातक पूरी की। स्नातक की परीक्षा के साथ स्कूल में पढ़ाने लगी। हालाँकि सन् 1998 से ट्यूशन पढ़ाकर अपने घर-परिवार की कुछ-न-कुछ आर्थिक मदद कर रही थी। 

परास्नातक की ज़िद मेरी ही थी। अपनी पढ़ाई, स्कूल और ट्यूशन की भाग-दौड़ में विचित्र स्थिति! परास्नातक अर्थशास्त्र की लंगड़ी लड़ाई में घिसटती, सन् 2000-2002 का सेशन देर होते हुआ 2001-2004 हो गया। मैंने तो 2005 तक में पूरी की। मेरा संघर्ष भुक्तभोगी के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं जान सकता। 

शिक्षा के प्रति इतनी दिवानगी पर उनके घर-परिवार में क्या कोई असंतुलन था? 

सवाल उठना भी स्वाभाविक है। उनकी घर-गृहस्थी में पूरी तरह संतुलन और सामंजस्य बनाए रखने का मौन प्रयास करते। पर पत्नी की दृष्टि में अपना और अपने बच्चों का विकास महत्त्वपूर्ण रहता। इसके विपरीत शर्मा सर के शिक्षा का सर्वांगीण विकास महत्त्वपूर्ण था। वह विद्वान अर्थशास्त्री पति के अनार्थिक स्वभावगत विशेषताओं से खीझी रहतीं। जिसके कारण श्रीमती जी की शिकायतों का पहाड़ रहता पर सब सुनकर भी वह अनसुना कर मौन रहते। श्रीमती जी की सोच रहती कि बेटी है तो आवश्यतानुसार पढ़-लिख जाए, बस इतना ही पर्याप्त है। क्या ज़रूरत है उसे धनबाद हॉस्टल में रखकर विज्ञान में स्नातक करवाने की या पटना हॉस्टल में रख कर मेडिकल की तैयारी कराने की? 

पर पिता रूप में वह अपने दृढ़ निर्णय पर अडिग रहे। श्रीमती जी तो यह कभी समझ ही नहीं पाई कि अपनी तरक़्क़ी, अपना विकास उपेक्षित रख विद्यार्थियों की पढ़ाई की चिन्ता में अपना सिर खपाना कहाँ की बुद्धिमानी है? देख-देख कर कुढ़-कुढ़ कर तो एक बार भयंकर बीमार भी पड़ गई थीं। 

माता-पिता रूप में दोनों पति-पत्नी अपने बच्चों के संबोधित दादा यानी “भैया” और माँ थी “दीदी!” सुनकर लोग विस्मित हो जाते और पूछ बैठते। यही सवाल मैं भी उनकी बेटी जो मुझसे उम्र में बड़ी हैं से पूछ बैठी, तो बोली-व्यवहार, रूप-रंग में अपने पिता की आकृति बेटी ने स्पष्ट किया कि बचपन में हम नानी घर में अपनी माँ के लिए सभी से दीदी संबोधन सुन-सुन कर दीदी कहने के अभ्यस्त हो गए। उसी प्रकार ही पिता को भी सभी दादी घर में दादा यानी भैया कहते थे तो देखा-देखी सुनकर हम भी दादा कहते रह गए। इस प्रकार संसार का अद्भुत ऐसा घर हुआ जहाँ माता-पिता भैया-दीदी का संबोधन पाएँ। विषम से विषम परिस्थितियों में भी चीखना-चिल्लाना कभी नहीं, आक्रोशित ऊँची आवाज़ कभी नहीं। कोई नहीं सुन पाया। उनकी बेटी के शब्दों में, अपने पिता से ज़्यादा सौम्य और आकर्षक व्यक्तित्व मुझे इस संसार में कहीं कोई मिला ही नहीं। 

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