माहौल
पाण्डेय सरितागहन रात्रि में एक छोटे से आधिकारिक क्वार्टर के चारों तरफ से सुरक्षित, रोशनी और दीवारों से घिरे हुए कमरे में, बड़ी बेटी अपनी छोटी बहन को बहुत बुरी तरह से डाँट रही थी। बग़ल के कमरे में सोती हुई माँ तक झल्लाहट भरी वो आवाज़ पहुँची, जिससे गहरी नींद उचट गई। बिछावन की दूसरी छोर पर पतिदेव भी गहन निद्रा में लीन थे।
स्थिति-परिस्थितियों से अनभिज्ञता में भी, उसका इस तरह अपनी बहन पर झल्लाना-चिल्लाना, माँ रूप में बहुत अप्रिय और अशिष्ट लगा।
अपनी उम्र और शारीरिक बनावट में बड़ा होने का धौंस व अधिकार वह ख़ूब जताती है। वैसे छोटी भी कम नहीं, वह भी अपनी शरारतों से बड़ी को अक़्सर उकसाती रहती है, और अंत में हारकर रोती हुई मेरे पास सहानुभूति बटोरने पहुँच जाती है।
कभी-कभी अनदेखा तो कर देती हूँ। पर, कई बार असहज होकर डाँट-डपट करके नियंत्रित करने का सफल-असफल प्रयास करना पड़ता है।
पति की नींद कहीं बाधित ना हो, यह विचार करने के साथ-साथ सावधानी पूर्वक ही सही उसको नियंत्रित करना भी आवश्यक था। अलसाई नींद में उठने की हिम्मत नहीं हुई, सो बिस्तर पे लेटे-लेटे वस्तुस्थिति से अवगत होने के लिए नरम लहज़े में पूछना पड़ा– "क्यों डाँट रही हो छोटी को?"
"जब देखो तब रात में इसको अकेले, बाथरूम जाने में डर लगता है। कभी पानी, कभी टॉयलेट के बहाने मुझे तंग करती रहती है।"
नींद बाधित होने पर उपजी खीझ और अनिच्छा जताती हुई बेटी ने अभिव्यक्त किया अपनी भावनाओं को।
"जाओ बहन के साथ।"
बहुत ही निश्चित शब्दों में एक दबाव भरा आदेश देना पड़ा। तब जाकर माहौल में शान्ति छाई। मैं उनींदी अवस्था में ही बिछावन पर लेटे-लेटे, रात्रि के अँधेरे में जलते बाहरी बल्ब की खिड़कियों से छनकर आती रोशनी की परछाईं में गुज़रती दोनों बहनों को जाते देख कर पुनः सो गई। सुबह होने पर पति देव की दैनिक हलचलों पर मेरी नींद खुली। बच्चों के स्कूली दिन के अतिरिक्त, साहब को अपने उच्च स्तरीय अधिकारी से भी महत्वपूर्ण भेंट करनी है।
"मुझे तनाव है। . . . मुझे तनाव है। . . . ऐ चुप रहो। . . . मुझे परेशान मत करो।" कह-कह कर जाने कितने दिनों से कुछ जान-बूझ कर कोई सिरदर्द बनाकर रखा है।
जिसका तनाव, एक भार बना कर, दिल-दिमाग़ के साथ, पूरे हाव-भाव और घर के माहौल पर घोषित आपातकाल रूप में थोपा गया है। पिता के आते ही, स्वाभाविक आज़ादी भूलकर, बेटियाँ भी भयवश खरगोश के बच्चों की तरह अपने कमरे में मौन दुबक जाती हैं।
नियमित दिनचर्या प्रारंभ करने से पहले आदतन बच्चों के कमरे में झाँक कर देखती हूँ। नवंबर की ठंडी सुबह की सिहरन में, पंखा अपनी पूर्ण गति पर घूम रहा है। बड़ी बेटी चादर में ख़ुद को पूरी तरह से लपेटे हुए है। सात फीट लम्बे-चौड़े बिछावन की दूसरी छोर पर किसी दीन-हीन असहाय बच्ची जैसी 'छोटी' ठंड से सिकुड़ी-सिमटी हुई है। अंदर आकर पंखा बंद करते हुए, बड़ी बेटी की ऐसी विचित्र असहज-लापरवाही पर मन क्षुब्ध हो उठा। तेरह साल की बच्ची अपनी छोटी बहन के प्रति इतनी असहज-असंवेदनशील कैसे हो सकती है?
ठंड लगने पर पंखा बंद कर सकती थी। चादर ओढ़ कर, छोटी को भी ओढ़ाना चाहिए था। पर, इतनी महत्त्वपूर्ण बातों की समझदारी जाने कब आएगी? संभवतः वो दया, प्रेम-भावना जो स्त्री को जन्मजात प्राप्त है, जैसी भावनाएँ इसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने बच्चों के लिए ही उत्पन्न होंगी। वह, जिससे भावशून्य है अभी तक। अपनी प्रत्येक गतिविधि में सीखाने-बताने के बावजूद असफल सिद्ध हो रही मैं।
आगे की दैनिक क्रियाकलापों में व्यस्त होकर, समय पर सब निपटाने की कोशिशों में लग गई। फिर देर हो जाएगी, यदि ना जगाऊँ तो? पिता को इससे मतलब ही नहीं, चाहे वो जब भी जगें। बच्चों को सुबह-सुबह समय पर उठाना कठिनतम कामों में से एक है। सुबह बेटियों को जगाने के बाद संयत भाव बड़ी बेटी से पूछी– "क्यों झल्ला रही थी अपनी बहन पर?"
वह आक्रोशित, शिकायत करती फूट पड़ी, "रात में जब मैं, बाथरूम जा रही थी तो साथ चलने के लिए जगाया था। उस समय जगाने पर हिली भी नहीं, और उसके ठीक एक घंटे बाद मुझे तंग करने लगी। बताओ तो ये कहाँ का न्याय है?"
"ठीक है...ठीक है। . . . तुम लोग उठो। जल्दी से तैयार होकर स्कूल के लिए निकलो।" सुबह-सुबह इस प्रकार के वाद-प्रतिवाद के लिए समय कहाँ है? सर्वोच्च न्यायालय में यदा-कदा अवकाश रहता है किन्तु माता-पिता रूपी पारिवारिक न्यायालय में कभी, कोई अवकाश नहीं। उपस्थित गुहार टालना पड़ा।
सब निपटाते हुए, जाने कितना चीख़ने-चिल्लाने पर, कुछ खिला-पिला कर, बच्चों को नियत समय पर स्कूल के लिए भेजना, एक चुनौती से कम नहीं। अपने आप में, यह रोज़ाना एक युद्ध है। इसके बावजूद फिर सुनने के लिए तैयार रहो- "आख़िर तुम करती क्या हो?"
बेटियों के मुँह में आख़िरी कौर डालने के बाद, झट से बाल झाड़कर, हड़बड़ाहट में जूते पॉलिश करके पहनाए थे।
अंततः अभी बच्चों के स्कूल निकलने के बाद दरवाज़ा बंद कर अंदर आई ही थी कि पतिदेव की फुल-पैंट नीचे गिरी हुई दिखी। तो सोचा, "संभवत धोने के लिए नीचे रख दिए होंगे। नहा कर आने पर उनसे ही पूछ लूँगी।" कौन सी पैंट धोने के लिए रखी गई है या कौन सी आयरन की गई? देखने का समय ही नहीं मिला था इसलिए अनभिज्ञता में तब-तक के लिए उठाकर बिस्तर पर रख दी।
नहा कर कमरे से गुज़रते हुए, पैंट को बिछावन पर देखकर, अनियंत्रित सातवें आसमान पर बैठा पुरुष, उस पैंट को हाथों में ले, लपेट कर फेंकते हुए पैर से फुटबॉल की तरह इतना ज़ोर से फेंकी कि घिसटती हुई कुछ दूर पर गिरी। शब्दों में आक्रोश एवं झुँझलाहट के साथ पतिदेव, अपना मनोवैज्ञानिक दबाव बनाते हुए एकमात्र क्रोध रूपी अस्त्र, पत्नी रूपी स्त्री पर बेवकूफ़ी, आलस्य और लापरवाही का आरोप लगाने के बाद अन्ततः बोले, "यही मुड़ा-तुड़ा पहन कर अपने सर्वोच्च अधिकारी से मिलने जाऊँगा? . . . किसी काम की नहीं हो तुम। . . . मत करना मेरा काम। . . . पहले कपड़े धोकर आयरन भी कर देती थी पर अब . . . ?"
"क्या करूँ? . . . घंटों घिसने-रगड़ने, पसीना बहा-बहा कर, मेरे करने पर भी तो हज़ार शिकायतें करते थे। . . . छिद्रान्वेशी बनकर ख़तरनाक सौ सास-ननदों की आत्मा लिए प्रताड़ना वाले भाव से त्रस्त होकर ही तो छोड़ दी। . . . ख़ुद करने के मज़े लो अब।"
फिर अपने व्यंग्यात्मक लहज़े को नियंत्रित करते हुए वाणी में संयत होकर हँस कर विवाद टालने के लिए स्थिति स्पष्ट करना चाही . . . फिर थोड़ा रुक कर कहा, "मैं पूछने ही वाली थी कि ये पैंट धोनी है क्या?"
पर, ये जवाब जले पर नमक छिड़कने जैसा पुरुष हृदय को और ज़हरीला प्रतीत हुआ। आग और भड़की पेट्रोलियम पदार्थों पर माचिस की जली तीली समान। परिणामस्वरूप क़दमों की तेज़ गति के साथ व्यावहारिक उद्विग्न भुनभुनाहट और बढ़ गई जिसमें जाने कितनी बे-सिर-पैर की शिकायतों का पहाड़ था। जाने कितने जन्मों का स्त्री विरोधी गुबार था।
कोई सुनवाई नहीं देखकर, असंयत हो, प्रत्युत्तर में बोलना पड़ा– "मुझसे लड़ने का मन छोड़ कर जिस काम के लिए जा रहें, श्रीमान जाइए।"
झल्लाते हुए बोले– "हाँ, हाँ चला जाऊँगा हमेशा के लिए तेरी जान-ज़िंदगी से भी।"
विवाद टालने के लिए आत्मसमर्पण करती हुई हाथ जोड़कर सफ़ाई दी– "हे प्रभु! मैं नहीं गिराई आपकी पैंट . . . या तो बच्चों से गिरी होगी . . . या फिसल कर हड़बड़ी में आपके टाँगने पर फिसल गयी होगी।"
पत्नी द्वारा आत्मसमर्पण करने पर, "बेकार का बकवास करने से फ़ुर्सत मिले तब तो कुछ करोगी? . . . किसी काम की नहीं ये औरत। . . . एक चादर-कंबल जिस पर बिछा कर आयरन करता था, वो भी सहेज कर छिपा दी। क्या ख़ाक आयरन होता ऐसे में? . . . बाथरूम में पानी टपकता है . . . कह-कह कर पूरा शावर तोड़वा दिया। . . . अच्छा चाहिए . . . अच्छा चाहिए की सनक में पड़ कर जो रहता है वो भी बर्बाद करवा देती है। . . . जो जैसा है, उसे वैसे रहने देने में क्या जाता है तेरा?" जली-कटी सुनाते हुए आयरन ढूँढ़ने लगे।
स्थिति नियंत्रण के लिए जब आयरन लेकर कपड़े को ठीक करने चली, तो दौड़ कर किसी बच्चे की तरह चिढ़ाने के भाव में, सुधारने का कोई अवसर न देकर हड़बड़ी में पहनते हुए आदमी अपना अहंकार तुष्ट करने लगा। जिस बात के लिए पूरा घर आसमान पर उठाया हुआ था, उस ग़लती को सुधारने का प्रयास असफल करते हुए ऐसे पलट जाएगा कोई? जिसे देखकर बड़ी मुश्किल से तो अपनी हँसी रोक पाई थी।
आधा-पौन घंटे पहले ही रसोई में जब खाना बना रही थी, तब श्रीमान जी ने अपने कपड़े आयरन करने के लिए पूछा था – "कहाँ है कंबल और चादर?" परन्तु, इसके लिए इतना समय कहाँ था कि उठ कर देने में पाँच दस-मिनट बर्बाद किए जाएँ। इसलिए रसोईघर से ही बोलकर पिता के सामने उपस्थित बेटी को आज्ञा दे कर तत्क्षण उस कंबल और चादर के प्रतिस्थापन में, अन्य चादर उपलब्ध करवाई थी।
मौसम का क्या है? बिन मौसम के बरसाती मौसम के कारण, चारों तरफ अस्त-व्यस्त कपड़े ही कपड़े बिखरे हुए थे। सब देख-समझ कर, श्रीमान जी के सामने ही अनावश्यक कपड़े समेट कर बक्से में डाल दिए थे। उस समय तो कुछ भी नहीं कहा था उन्होंने। अब आक्रोशित-क्षुब्ध होकर जिसकी शिकायत कर रहें। यत्र-तत्र अनावश्यक कपड़े समेटने के कारण कमरे कुछ व्यवस्थित भी लग रहे हैं। नहीं तो घर का कोना-कोना अजीब अव्यवस्थित लग रहा था। वैसे मुश्किल हर स्थिति में है, यथास्थिति रहने देती तब भी मुश्किल होती कि घर इतना अस्त-व्यस्त क्यों रखती हो?
बाथरूम में पानी टपकता रहता था नल से तो बनवाने की जगह अपनी इंजीनियरिंग से और बर्बाद करने वाला कौन था?... वह ख़ुद।
सोचती हुई.. सामने रहकर व्यर्थ का बकझक और छीना-झपटी में समय बर्बाद करने से बचने के लिए अस्त-व्यस्त कामों को समेटने के लिए रसोई में चली गई। जब तक गरमा-गरम भोजन परोसने के लिए थाली-प्लेट हाथों में लेकर खंगालने लगी, तब तक में अपनी फ़ाइलें सहेजते हुए पतिदेव ज़ोर से सुनाते हुए बोले– "खाना मेरा थैले में डाल दो...नहीं खाऊँगा अभी। अकेली मज़े करो पूरे दिन। . . . रात में बेटी को इतने ज़ोर से बोली कि मेरी नींद उचट गई। तभी से जगा हुआ हूँ। . . ना चैन से सोने देती है . . . ना जीने देती है।"
"बकवास बंद करो यार! . . . मैं बार-बार टाल रही विवाद, और ये हैं कि चढ़े जा रहे हैं मेरे सिर पर।" चिल्लाना पड़ा। ये धमकी हमेशा की है, जब भी वाद-विवाद होता है पति-पत्नी में, कुछ निश्चित शब्दों के बिना वाक्-युद्ध अधूरा रहता है। ये तो तय है कि पूरा हाथी निकल जाएगा पर पूँछ पकड़ कर लटक जाएँगे महोदय।
घर से समय पर भोजन करके निकलने पर पूरे दिन का एक अलग ही अनुशासन होता है। एक बार बाहर निकलने के बाद, जाने कितनी स्थितियों-परिस्थितियों की संवेदनशीलता प्रभावित करती हुई दोपहर या फिर दिन ढलने तक भूखे पेट रहने का आकस्मिक संयोग तक आ जाता है। परिणामस्वरूप टिफ़िन वापस आ जाता है, "क्या करूँ समय नहीं मिला" के जवाब के साथ।
इतनी सजगता और सावधानियों के साथ सैंकड़ों विवादास्पद मामलों को अनदेखा करने के बावजूद उफ़्फ़ ये अवांछित नकारात्मक स्थिति आ ही गई। ऐसे में गरमा-गरम खा कर घर से निकलने के लिए अभी एक शब्द भी बोलने का अर्थ है– एक अलग रसोई काण्ड! बढ़िया सा तीक्ष्ण अलग विषय युक्त 'हर में हरि कीर्त्तन' अर्थात् अलग विषय पर मौखिक भाषण। जो ख़तरा अभी मोल लेना सही भी नहीं।
स्थितियों की संवेदनशीलता भाँप कर खाने का डिब्बा बैग में डालने के लिए जैसे ही उनके थैले की चेन खोली तो कुछ भयंकर दुर्गंध फेफड़ों में अकस्मात् प्रवेश की। ध्यान से देखती हूँ, तो जाने कितने दिनों की, क़ीमती खादी की सफ़ेद गमछी बरसात में गीली हुई, थैले में रखी पड़ी है। जिसे निकाल कर साफ़-सफ़ाई के अतिरिक्त उस समय अन्य कोई उपाय ही नहीं था।
गमछी निकालते हुए देखकर, पुरुष अभिमान फुत्कारता हुआ, "रहने दो। मैं ख़ुद ही सँभाल कर डाल लूँगा।"
जाने कितने दिनों से पड़ा था जो निकाल कर धोने के लिए देने का फ़ुरसत नहीं है महाशय जी के पास। एक ग्लास पानी जिनसे सँभलता नहीं। जो ख़ुद लेकर ना पी सकता है, ना पिला सकता है। पानी पिया हुआ गिलास वहीं पास में रख कर ढुलका देता है। बड़ी-बड़ी बातें कैसे फेंक लेता है ये पुरुष अभिमान? सोचती हुई, वहीं टेबल पर खाना-पानी रखकर, गंदी गमछी निकाल कर धोने के जगह पर रख दी। दूसरी गमछी प्रतिस्थापित कर, बेवज़ह की बातें टालने के लिए, वहाँ से हटने में ही भलाई थी। अतः वहाँ से हटकर नहाने चली गई।
वापस आकर देखती हूँ, पूरे दिन भर के लिए, मुझे अकेले ऐश-मौज करने के लिए छोड़कर, इस शान्ति कुञ्ज से श्रीमान जी जा चुके थे। मैं एक गृहिणी और स्त्री, दोनों रूप में सोचती हूँ, "स्त्री के हाथ में मात्र इंतज़ार का, बिना आवाज़ वाला ख़ाली झुनझुना है। जिसमें कोई स्वर नहीं। पुरुष के लिए, चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी, अंटा मेरे बाप का। हर मनमानी मेरी मर्ज़ी, चाहे कुछ भी जाए आपका। जिस माहौल का तनाव वह देकर गए हैं, मैं टूट-बिखर जाऊँ या ख़ुद को दृढ़ इच्छाशक्ति के बलबूते मज़बूत रखूँ? बच्चों की सुरक्षा के लिए पारिवारिक-सामाजिक रीति-रिवाज़ों में जीवित रहते हुए। ये मुझ पर निर्भर है। पुरुष का क्या है? अपने दिमाग़ का बोझ मेरी ओर स्थानांतरित कर पाँच मिनट के अंदर, हँस-बोलकर प्रफुल्लित हो जाएगा। इस परवाह से परे, एक झटके में ही कि घर पर वह क्या देकर आया है? इस संसार का महानतम् पति तिल का ताड़ कर, अपनी पत्नी को कितना अपमानित करके आया है?
3 टिप्पणियाँ
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Pandey sarita ji ki kahani Mahol sundar bhasha shaili me likhi sundar rachna hai.
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गीतिका सक्सेना जी इतनी सुन्दर समीक्षा के लिए सादर आभार
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हर घर में प्रतिदिन होने वाले घटनाक्रम। पढ़कर सत्य कथा सी मालूम हुई। आपकी लिखी हुए आखिरी पंक्तियां पूर्णत: सत्य हैं।