रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 3राजीव की सघन व्यस्तता में उनके साथ ही स्थानीय बस सेवा द्वारा माँ-बेटी पालघाट का क़िला घूमने गई थी। यह क़िला फ्रांसीसी अभियंताओं के सहयोग से निर्मित हुआ। अपने सामरिक महत्त्व के कारण कई युद्धों का गवाह रहा था। वर्गाकार क़िले के चारों तरफ़ विशाल दीवार और गढ़ हैं। इसमें हनुमान जी का एक मंदिर है जहाँ पर उड़द दाल के बड़े का माला पिरो कर चढ़ावा चढ़ता है। यह रागिनी को अपने आप में विशेष लगा।
लौटते समय रास्ते के किनारे पर लगी दुकानों पर अनेक खाद्य पदार्थों में से एक चीज़ जो रागिनी अनभिज्ञ थी वह था ताड़ का फल, जो कभी नहीं चखा था। लाकर नित्या ज़बरदस्ती उसके हाथ में थमा गई।
जिसे चखकर राजीव को दिखाने और चखाने के लिए रागिनी ने चुपके से अपने थैले में रख लिया। उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में ताड़फल या कोवा और कटहल का कोवा थोड़ा कड़ा या जुआया हुआ रूप रहता है। जो रागिनी को बिलकुल नहीं भाया पर सत्या-नित्या और उसकी माँ अभ्यस्त होने के कारण बहुत ही चाव से लेकर खाए जा रही थीं। उन्हें देखकर करुणा भी खा रही थी। राजीव वह ताड़फल देखकर रागिनी की अनभिज्ञता पर ख़ूब हँसा। उसके बाद अनवरत लाने लगा। पिता-पुत्री बड़ी प्रेम से खाते और रागिनी को भी खाने के लिए कहते पर वह इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर देती। इस क्रम में राजीव उसे चिढ़ाना नहीं भूलता।”हे भगवान! इस औरत को ताड़फल के बारे में पता नहीं।”
मुहल्ले में पास के गणेश मंदिर जो क्वार्टर के आध-एक किलोमीटर दूर स्थित था। वहाँ जाकर प्रसाद खाना तो करुणा का प्रिय काम बन गया था। आंटी ले जा रही हैं हम! कहकर टहलने के बहाने तीनों अक़्सर सुबह-शाम ग़ायब हो जाती। समय-कुसमय विचारे बिना उत्तर भारत में तो जब चाहे लोग मंदिर के कपाट खुले रहने पर पूजा के नाम पर घंटी टनटनाने लगते हैं। इसके ठीक उलट, सुबह-सुबह साढ़े सात बजे तक में ही वहाँ के मंदिर का पट बंद हो जाता पूजा-पाठ के बाद और फिर शाम के पाँच बजे खुलता। जहाँ पर कला और संस्कृति को विकसित करने का प्रत्येक सम्भव प्रयास होता रहता था।
वहाँ की संस्कृति की भव्यता का प्रथम परिचय वार्षिकोत्सव रूप में था। केले के पौधे से सुसज्जित विस्तृत, चित्ताकर्षक पांडाल और स्वादिष्ट प्रसाद तो विचित्र आकर्षण था। जिसकी चर्चा वह अब तक सुनती आई थी सौभाग्यवश परिचित होने का अवसर भी मिला। केले के पत्ते पर सूजी के केसरयुक्त हलवा, इडली, डोसे, सादा भात, इमली पुलाव, नीबू पुलाव, लड्डू, पापड़, अचार, खीर, सेवई, चना-नारीयल का सुंडल और भी अन्य दक्षिण भारतीय व्यंजन एक साथ सुलभ हुए थे।
उन रास्तों और क्वार्टर में मौजूद आम्र वृक्षों पर कोयल की कूक और बहुत बड़े-बड़े आम अक्टूबर-नवम्बर के मौसम में भी विचित्र अनुभवी दृश्य रचते हैं।
अक़्सर कच्चे आम लेकर सत्या-नित्या हाज़िर हो जातीं जिन्हें ऊबाल कर गुठली निकाल सूखी मिर्च और जीरे को घी में छौंक कर चीनी या गुड़युक्त मीठी चटनी बना कर रागिनी उन्हें खिलाती।
सत्या-नित्या के बताने पर रागिनी और राजीव, करुणा को लेकर श्री एमूर भगवती मंदिर गए थे। जो ओलवाकोड रेलवे स्टेशन से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर है। इस मंदिर में देवी हेमाम्बिका की संयुक्त शक्ति, सरस्वती रूप में सुबह में, लक्ष्मी रूप में दोपहर और दूर्गा रूप में शाम को पूजा होती है। देवी द्वारा यहाँ घी के दीपक और चंदन स्वीकार किया गया है।
यह मंदिर दक्षिण भारत के चार मुख्य अम्बिका मंदिर में एक है। देवी बालाम्बिका जो कन्याकुमारी, देवी लोकाम्बिका लोकानरकावु बडकर में हैं, देवी मूकाम्बिका मंगलुरु में और देवी हेमाम्बिका पालघाट में हैं। केरल की सुरक्षा के लिए जिनकी स्थापना का श्रेय परशुराम जी को दिया जाता है।
जनश्रुतियों के अनुसार नाम्बुदीरी और कुरुर परिवार की कुलदेवी रूप में सघन जंगलों के बीच में देवी का मंदिर था। समय के साथ बुढ़ापे में असमर्थ होने पर नाम्बुदीरी के भक्ति से प्रसन्न होकर देवी ने स्वप्न में आकर कहा, “मैं तुम्हारे घर के पास के तालाब में आकर प्रकट होऊँगी।”
फिर क्या सुबह-सुबह तालाब के बीच में दो सुंदर हाथ प्रकट हुए जिन्हेंं देखकर भावविभोर नाम्बुदीरी तालाब में कूद पड़े और जाकर देवी के उन हाथों को पकड़ लिया। उसी समय वह पत्थर में परिवर्तित हो गए। उन्हीं की याद में मंदिर बना दिया गया, जो तीन तरफ़ से पानी से घिरा हुआ है।
मंदिर परिसर में पैर रखने से पहले करुणा की दृष्टि वहाँ के प्रांगण में रहते हाथियों पर पड़ी और वह चिल्ला उठी, “हाथी! . . . हाथी!”
ये हाथी भगवान गणेश के प्रतीक रूप में पूजा समारोह और उत्सवों की शोभायात्रा के काम में आते हैं।
करुणा की जिज्ञासाओं को शान्त करते हुए उसे गोद में उठा कर रागिनी बोली, “पहले देवी का दर्शन कर लेते हैं फिर लौटते हुए जी भर कर हाथी देखती रहना बेटा!”
मंदिर प्रांगण में अंदर की ओर पहुँच कर उत्तर भारतीय परम्परा के अनुसार रागिनी ने सिर पर पल्लू जैसे ही किया कि वहाँ के पुजारी ने झट से पीछे से खींच दिया और कहा ये हिन्दू परंपरा नहीं बल्कि इस्लामी रिवाज़ है। यहाँ इस मंदिर में जब इंदिरा गांँधी भी आई थी तब भी हमने उन्हें करने नहीं दिया था। आप ये जो पंजे की आकृति देख रही हो ना? इसी मंदिर के प्रतीक चिह्न रूप में, काँग्रेस का चुनाव चिह्न लिया गया है।
इसमें कोई संदेह नहीं उस दिन के बाद तो सिर पर पल्लू रखना सचमुच भूल गई रागिनी। देवी की कृपा प्राप्त करके कुछ घंटे रुक कर बैठने के बाद, वापस लौटी।
रागिनी के हाथों का पका हुआ उत्तर भारतीय व्यंजन जैसे-छोले-कचौड़ी, लिट्टी-चोखा, आलू भरी हुई रोटी के साथ विविध भरावन वाली रोटियाँ, नमकीन, पूआ-ठेकुआ, गुलाब-जामुन, समोसे . . . और भी बहुत कुछ। पर, सबसे अलग . . . अचार का विशेष स्वाद पाकर नित्या, समूचे मुहल्ले में, “आंटी का खाना बहुत स्वादिष्ट होता है।” . . .
प्रचार-प्रसार सुनकर, झुंड बनाकर औरतें उत्तर भारतीय व्यंजनों के प्रति आकर्षित होकर बनाने, के लिए सीखने आने लगीं।
सबसे मज़ेदार रहा उन स्त्रियों को रोटी बनाना, सीखाना। वो अक़्सर आकर बड़ी ग़ौर से आटा गूँथने के क्रम में प्रत्येक गतिविधि देखतीं और अचंभित होतीं, “हे भगवान ऐसे होता है . . . हम तो ऐसे करती हैं इसीलिए ख़राब हो जाता है ना?”
बहुत कठोर पत्थर की तरह आटा गूँथने के कारण और पकाते समय भी पलटने में ग़लत तरीक़े के कारण रोटी बहुत ही अजीब रूखी-सूखी रोटी बनती। जिसके कारण वहाँ के सामाजिक जन-जीवन ने रोटी से स्वाभाविक नफ़रत पाल लिया था।
नियमित दिनचर्या की सहजता ही किसी भी काम को सुलभ और आसान बनाती है। जिसके अभाव में असंगतियाँ उत्पन्न होती हैं। जो रागिनी दक्षिण भारतीय व्यंजनों के प्रति अनुभव करती थी तो वही दक्षिण भारतीय स्त्रियाँ अपनी संस्कृति और उपलब्ध संसाधनों के प्रति पूर्ण कुशल गृहिणी थीं।
रागिनी की रसोई में देख-देख कर सबने अपनी-अपनी रोटियों की गोलाइयों और नरमी में थोड़ा-बहुत सुधार कर लिया था।
वहाँ के लोग बासी जलेबियाँ दस-पन्द्रह दिनों पुरानी खाते थे। एक दिन गरमा-गरम जलेबियांँ देखकर राजीव ने ख़रीदने के लिए पैसे दिए तो दुकानदार ने अस्वीकार कर दिया था।
रागिनी भी वहाँ की महिलाओं की संगति में उपमा, साँभर, दक्षिण भारतीय चटनी और अन्य छोटे-मोटे व्यंजन बनाने लगी थी। भोजन में काला सरसों, लाल मीर्च, हींग, करी पत्ता, चना दाल और उड़द दाल का संतुलित मेल उपयोग कर स्वाद परिवर्तित करने लगी।
साल के आख़िरी दिन कॉलोनी में सभी के घर से प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से पाँच-पाँच रुपए एकत्रित करके आधी रात को नव वर्ष की पार्टी की जाएगी। हमेशा की तरह पूर्व नियोजित योजना बतलाई गई रागिनी को।
मुझे बिना परेशान किए, तुम दोनों माँ-बेटी, जो मर्ज़ी करना। समझी! . . . राजीव तो दिन भर का थका-हारा शोरनूर ड्यूटी से आने के बाद किसी भी प्रकार के फ़ालतू के हस्तक्षेप से अस्वीकार कर सो गया।
रात के नौ बजते ही करुणा को ज़बरदस्ती नित्या गोद उठा ले जाने लगी तो रागिनी ने उसे ऊनी स्वेटर-पजामा के साथ टोपी पहना कर सुरक्षा के ज़बरदस्त व्यवस्था के साथ भेजा था।
अन्य घरेलू कामों को निपटाने के बाद जब रागिनी, रात्रि की सिहरन के बीच शॉल ओढ़कर दस-साढ़े दस बजे तक वहाँ पहुँची तो देखती है कि करुणा अपने सारे ऊनी कपड़ों के बिना, खेलने और नाचने में व्यस्त थी। बरसाती प्रभाव में ज़्यादा उधम मचाने के क्रम में उल्टियाँ भी की थीं जिसे उस घर की मालकिन ने साफ़ किया था। बावज़ूद यह बात माँ से छिपा दी गई थी। जो कई दिनों बाद पता चला।
“अरे भई! ये क्या?” . . . रागिनी के चिंतित होने पर नित्या ने स्पष्ट किया . . . आंटी करुणा को गर्मी लग रही थी इसलिए हमसे खुलवा ली।
आधी रात की मुख्य अतिथि करुणा ही है। इसलिए वही नए साल का केक काटेगी, और सभी उसके साथ तस्वीरें भी खिंचवाएँगे।
आधी रात के बाद ठंडी सिहरन के बावज़ूद, उस शोर-गुल, धमा-चौकड़ी में से निकल कर करुणा वहाँ से आने को तैयार नहीं थी, तो उसे समझाते हुए, “तुम्हारे पिता नाराज़ होंगे, जल्दी चलो। कल घूमने भी चलना है कि नहीं?” तब जाकर वह आना स्वीकार किया। आकर चुपके से रागिनी, करुणा को लेकर सो गई।
राजीव का दोपहर में सभी के साथ शहर से लगभग दस किलोमीटर दूर मालमपुरा डैम जाने का विचार था, जहाँ सभी हमेशा की तरह वही लेट-लतीफी के साथ पहुँचे।
अपनी स्वाभाविक उत्सुकता लिए भरपूर पंखों की उड़ान! करुणा बेतहाशा-अनियंत्रित जिधर जाए उधर से निकलने का नाम न ले।
माता-पिता द्वारा उन बाग-बग़ीचों, फूलों की क्यारियों से उसे ज़बरदस्ती उठा कर गोद में लेना पड़ता। दक्षिण भारत में रख-रखाव और भरपूर व्यवस्था होने के कारण सब कुछ सड़क, परिवहन और पर्यटन अपने बेहतरीन-अद्भुत-सर्वोच्च संभावनाओं के शिखर पर हैं।
दुधिया सफ़ेदी लिए जल-प्रवाह का वह डैम नववर्ष के उपलक्ष्य में अपने विस्तृत, अनंत प्राकृतिक सौंदर्यमय-विस्तार पर भरपूर भीड़ के साथ शोभायमान था। उसमें एक नन्ही करुणा भी अपनी उन्मुक्तता लिए भाग-दौड़ रही थी। समयाभाव के कारण सम्पूर्ण सौंदर्य का अवलोकन कर पाना असम्भव था पर यथासम्भव प्रयास कर सभी ने देखा।
एक अकेली बच्ची और उसके पीछे-पीछे दौड़ने वाले कई लोग थे। पथरीले ऊँचे-नीचे रास्तों पर गिर कर कहीं चोट ना लगा ले? कहीं अति उत्साह में छलाँग ना मार दे?
काँटेदार झाड़ियों में खरोंच ना लगा ले? अभिभावक रूप में विचार करते हुए भागते-दौड़ते घूमने का कम और सावधानी की आवश्यकता ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
रात के आठ बजे तक लौटने में करुणा थक कर निढाल हो चुकी थी। उसकी थकान कई दिनों तक जारी रहकर बुख़ार में परिवर्तित हो जाने से चिंतनीय स्थिति-परिस्थितियों में माता के लिए गंभीर विषय होने लगा।
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