रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 28

 

रागिनी के मायके चले जाने से सास भावना अब किस पर शासन करे। बड़ी तो सुननेवाली थी नहीं, छोटी अभी दुलारी ही थी। पारिवारिक जीवन की नीरसता को दूर करने के लिए माँ और बहन द्वारा अलग-अलग अब राजीव से चुग़ली की गई। 

मायके में फोन पहुँचा। राजीव के ख़राब मूड वाले शब्द और बात-विचार देखकर रागिनी ने कहा, “आपकी बात मानकर मायके के जब सारे मोह त्याग कर सम्पूर्णता के साथ सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके घर-परिवार के लिए जीने की मैंने कोशिश की, तब भी आपकी माँ को शिकायत थी। ‘तुम्हारे मायके से तो कुत्ता, कौवा भी नहीं पूछ रहा है।’ और अब मैं उनकी बात मानकर मायके में भी रहने लगी तब भी समस्या है। आज के बाद इस विषय पर ना तो मैं आपसे एक शब्द सुनना चाहती हूँ ना किसी और से। आप जो काम कर रहे हैं वहाँ का देखिए। हज़ारों किलोमीटर दूर से रिमोट-कंट्रोल से मुझे संचालित करना बंद कीजिए। अब ये बात मेरी स्वतंत्रता और स्वाभिमान की भी है। आप तो यहाँ हैं नहीं, फिर आपको समस्या किस बात की है? आपके साथ रहते हुए मैं कहाँ रहती हूँ? यह बात बहुत हद तक विचारणीय हो सकती थी। पर . . . आप कहाँ हैं? . . . मैं कहाँ हूँ? आपकी पत्नी के वहाँ होने से भी समस्या थी। और अब, जब वहाँ नहीं हूँ तब भी? मुझे ये बताइए कि आप दोनों माँ-बेटे को मुझसे आख़िर चाहिए क्या?” 

राजीव ने क्या और कितना समझा यह बात तो वही जाने? पर स्वीकार किया कि आज के बाद इस विषय पर कभी भी वह कोई दबाव नहीं बनाएगा। 

रागिनी के लिए अधिकार नाम की चीज़ या भावना क्या, कितनी किस हद तक थी? ये इसी बात से समझ सकते हैं कि दस-बीस, सौ-पचास रुपए का कोई काम पड़ने पर, जेठानी पुराने सामाजिक सामान को बेच, बदल कर अपने या बच्चों के लिए बेधड़क व्यवस्था कर लेतीं। सास-ससुर की कमाई भी अपनी जेब में, पति की कमाई पर पूर्ण अधिकार तो था ही। पर उस हक़-अधिकार की सीमा रागिनी सोचती रह जाती। अपने प्रत्येक अट्ठन्नी-चवन्नी के ख़र्च के लिए अपना पर्स तलाशती। वह भी तब जब पति एक बड़ी राशि माता के हाथों देकर गया होता। 

जेठानी और उनके बच्चों द्वारा कमाने वाले घर के पुरुषों के पैकेट से पैसे निकाल लेना कोई बड़ी बात नहीं थी। बिछावन पर पैकेट से गिरे रुपए भी उनके लिए ऊपरी आमदनी का ज़रिया था। सारे हक़-अधिकार कुछ ज़ोर से, कुछ ज़बरदस्ती, उपयोग-उपभोग करने के बावजूद, सर्वस्व खाया-पिया, झट से पचाकर एक भयंकर तकिया कलाम लड़ने-झगड़ने, मरने-मारने पर उतारू जेठानी की ज़ुबान पर रचा-बसा था, ‘किसी का एक पैसा भी नहीं जानते हम!’

देवरानी के आने से पहले, रागिनी अक़्सर कुछ विशेष खान-पान की व्यवस्था करने की कोशिश करती। तो रसोई बनाने में जेठानी का ज़ीरो सहयोग। किसी तरह सास द्रवित होकर मदद की तो ठीक, वरना मरती रहो। अकेली अपना समझती रहो। हमेशा यही होता कि रसोई में बना कर सब सँभाल कर हटने के बाद जब खाने के लिए आओ, तो पता चलता रसोई में पकानेवाली के लिए ही कुछ नहीं बचा। जेठानी और उनके बच्चों के खा लेने के पश्चात; कुछ भावी स्टॉक रख कर, मित्रता निभाते हुए अड़ोस-पड़ोस में भी पार्सल हो गया है। इस सोच और समझ से परे कि घर के अन्य सदस्य क्या खाएँगे? या जिसने बनाया है उसके लिए भी कुछ बचना चाहिए। या पूछ ही लें कि किसने-किसने खाया या नहीं? 

जेठानी की इस आदत से चिढ़कर सास अक़्सर आक्रोशित होतीं। पर सैंकड़ों बार रागिनी सँभाल लेती, यह सोचकर, ‘इतनी सारी व्यवस्थाओं के बीच, न खाने के लिए भी कोई झगड़े का विषय बनता है भला? ये तो बहुत ही छोटी मन-मानसिकता की विषय वस्तु होगी।’

इससे बड़ा इनाम और क्या मिलेगा? कि अपनी मायके की सबसे बड़ी नख़रीली! अपने ससुराल में सामंजस्य और संतुलन बिठाने के प्रयास में; सास या किसी अन्य के हाथों बने भोजन में मीन-मेख निकालने की तुलना में अन्न और पकाने वाले के प्रति कृतज्ञ, सम्मान भावना प्रकट करती हुई खधुक्की कहला गई। आख़िरकार ससुराल इसी प्रकार की शत्रुतापूर्ण व्यवहार के लिए ही तो जगत प्रसिद्ध होता है। 

इसी घटना पर चलो एक घटना और बताती हूँ। बात चली ही है तो थोड़ी और दूर जाएगी। रागिनी मायके से मिठाइयाँ लेकर आई थी। आदतन, सास को सौंपती हुई; रागिनी रसोई में सभी के ले लेने के लिए छोड़ आई। सभी के अपने अनुसार खा लेने के पश्चात उस डिब्बे में चार मिठाइयाँ बची थीं, सो ननद डिब्बा पहुँचाने पहुँची। ”लीजिए जी आप दोनों माँ-बेटी का हिस्सा बचा केवल,” सुनकर आश्वस्त होने के लिए रागिनी ने पूछा, “क्या सभी खा लिए?” 

“हाँ, अब ये आपका हिस्सा है,” सुनकर रख दिया। और कुछ देर बाद फ़ुर्सत में याद आने पर करुणा को खिलाने के साथ, ख़ुद भी खाकर ख़त्म कर पैकेट फेंक दिया। 

खाकर फेंका ही था कि आधे घंटे में ननद की सहेली अपने पति के साथ अकस्मात् मिलने आ गई। सारा बाज़ार आस-पास फिर भी ननद मिठाइयों के लिए दौड़ती हुई आईं। 

“यही कुछ देर पहले ही मिठाइयाँ तो ख़त्म हो गईं। आप बोली थी कि सभी खा चुके हैं तो हम दोनों माँ-बेटी खा गईं,”हँसती हुई रागिनी बोली। 

घर के पीछे मिठाइयों की फ़ैक्ट्री रहने के बावजूद सुनकर मायूस होती ननद, जो कि मिठाइयों का सबसे ज़्यादा सुख-उपभोग करने की अधिकारिणी रहती हुई, अन्ततः व्यंग्य करती हैं, “हद खधुक्की है जी आप!”

लो अपने पिता की कमाई का लाया हुआ है। धैर्य, त्याग, और तपस्या के बावजूद भी इतनी पाबंदी? बोलने वाले का क्या गया? बोलकर बहुत सी बकवास; और भूल जाओ। सुनने वाली रागिनी के दिल-दिमाग़ में ना चाहते हुए भी बहुत दिनों तक ये शब्द गूँजते रहे। माँ अब तक बोलती ही थी, आज बेटी भी बोल गईं। 

करुणा के लिए खिलौना या चिकित्सीय सहायता, दवा जैसे आवश्यक कुछ भी, रागिनी के पैसों से ख़रीदा जाता। और उसके चचेरे भाई के लिए पूर्ण पारंगत महारथी, बपौती अधिकार अर्थात्‌ जेठानी का हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा। चाचा, दादी-दादा से पैसे लेकर निस्संकोच ख़रीद लेती। कोई भी सामान बदले में बेच कर ख़रीदा जाता। चाहे कुछ भी हो रागिनी के पैसों से ख़रीदी गई वस्तुएँ सार्वजनिक संपदा होती जिसका कोई भी, कभी भी उपयोग करने के लिए स्वतंत्र होता। बच्चों द्वारा उस वस्तु की ख़ैर नहीं। शीघ्र-अतिशीघ्र विनष्टि के कगार पर पहुँचाने में सिद्ध-हस्त। पहले अपना बर्बाद करने के बाद में येन-केन-प्रकारेण करुणा का उपहार या खिलौना समाप्त करने पर आतुर, उद्धत स्वभाव के कारण झट से कचड़े के ढेर में परिवर्तित हो जाता। 

होली या किसी त्योहार पर करुणा की नानी ने अपनी पसंद के कपड़े लेने के लिए पैसे दे दिए। क्योंकि करुणा की तीव्र शारीरिक विकास के कारण अक़्सर कपड़े छोटे पड़ जाते। ऐसा एक नहीं, अब तक में हर बार हुआ था। कपड़े ख़रीदने के लिए दुकान पर खड़ी रागिनी को गुंजन दीदी मिल गई। कारण पूछने, बताने पर गुंजन दीदी ने करुणा के लिए कपड़े के प्रतिस्थापन में कुर्सी या घोड़ा-गाड़ी जैसा कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण वस्तु ख़रीदने का सुझाव दिया। 

जिससे प्रभावित होकर रागिनी ने नया-नया बाज़ार में उपलब्ध नीलकमल की लाल और नीले रंग की घोड़ागाड़ी जैसी कुर्सी ख़रीद ली। यही कोई ढाई सौ या दो सौ अस्सी रुपए लगे। पर सबसे बड़ी ख़ुशी की बात कि जिससे करुणा तत्क्षण जुड़ गई। दुकान से ही उस कुर्सी को किसी को भी छूने ना दे। ज्यों ही किसी को भी छूते देखती, वह विरोध करने लगती। रागिनी की गोद में करुणा, और करुणा की पकड़ में उसकी हल्की सी घोड़ागाड़ी लिए घर पहुँची। घर आकर सीढ़ियों के नीचे रखकर कपड़े बदलने मात्र लिए बेटी को लेकर ऊपर, अपने कमरे में गई। समय में दस-पंद्रह मिनट ही लगे होंगे तब तक में, घोड़ागाड़ी को पकड़ने में मदद करने वाले डंडे का एक स्क्रू ग़ायब है। 

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