रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)
नन्हा बचपन 23राजीव कुछ भी नहीं लाया। बहू रूप में रागिनी पर किसे भरोसा हुआ या नहीं? ये तो औरों की समस्या थी। इस चिन्ता से परे, राजीव को एक सबक़ मिला कि अगली बार, फ़ुर्सत निकाल कर अवश्य कुछ ना कुछ उपहार लाना है।
नौकरी लगने के साथ बेटे के दूर्गा-पूजा के बोनस पर दृष्टि सबकी लगी थी। फोन पर एक-एक करके माँ और बहन-बहनोई ने राजीव से, बेटा और भाई रूप में पूछा था। फोन पर पूछा तो पूछा। प्रत्यक्षत: भी पूछा गया! . . . उस पर भी भरोसा नहीं होने पर रागिनी से पूछा गया। बहन ने पूछा, “कितना बोनस मिला है भैया को?” कितना बोनस मिला बेटे को? माता-पिता ने अलग-अलग पूछा!
जबकि सबको रागिनी ने बहुत पहले ही स्पष्ट कर दिया था, “नौकरी ज्वाइंनिंग और ट्रेनिंग का अभी एक साल भी नहीं हुआ है इसलिए राजीव को बोनस नहीं मिलेगा मतलब नहीं मिलेगा।”
पर बोनस मिले न मिले . . . क्या फ़र्क़ पड़ता है? छुट्टियाँ ख़त्म होने से, जाने के एक दिन पहले, दूर्गा-पूजा के अवसर पर लिए राजीव से अन्तत: रागिनी ने अपनी बेटी करुणा के लिए कपड़े ख़रीदवाए।
कारण? . . . कपड़े के नाम पर उसकी दादी पहली बार, अनुनय-विनय के स्वर में बड़े बेटे को जाकर बोली थीं, “राजीव तो इधर-उधर के भाग-दौड़ में व्यस्त है। बच्ची के लिए ए बेटा एक कपड़ा ला दो . . . पहला दुर्गा-पूजा है, इसका। हम-लोग अभी तक इसके लिए कोई कपड़ा नहीं ख़रीदें हैं . . .। जो भी है इसके नानी घर का है, सारा! . . . ला दे बेटा जरा . . . . . . कोई भी एक कपड़ा!”
बहुत घिघियाने के बाद करुणा के जीवन में उस दिन अब तक का पहला और आख़िरी कपड़ा, ताऊ की कमाई का प्राप्त हुआ था।
सुनकर रागिनी को तो बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा! . . . पर शिष्टाचारवश कुछ भी नहीं बोली।
अन्ततः जाने के दिन राजीव को रागिनी का ध्यान आया। बड़ी सौम्यता से पास आकर बोला, “आज पूरा दिन है केवल, जो भी करना है बोलो; नहीं तो सभी की तरह तुम्हें भी शिकायत रह जाएगी। सबकी आवश्यकताओं को पूरा करते-करते हम मर्द शहीद भी हो जाएँ बावजूद तुम औरतों की इच्छा-आकांक्षाएँ और शिकायतें, कभी ख़त्म होने का नाम नहीं लेतीं।”
सुनकर रागिनी उस भाव को समझने की कोशिश करने लगी जिसके प्रभाव में वह बोल गया।
“कहीं नहीं जाना मुझे!”
“अरे नाराज़ मत होना! . . .मैं तो ऐसे ही बोल गया . . . एक मन्नत, देवी मंदिर की बाक़ी है ना! . . . चलो आज पुराने दिनों को याद करते हैं . . . जल्दी से तैयार हो जाओ।”
“आपके अहसान का टोकरा नहीं चाहिए मुझे!”
“चलो ना बहुत दिनों से सोच रहा था कि आते ही पहला काम यही करूँगा! . . . पर दूसरे कामों के सामने यह अब मौक़ा मिला। आज का एक दिन हम दोनों के नाम पर फिर जाने कब मौक़ा मिले।”
राजीव की सौम्य मनुहार पर पिघलना पड़ा। रागिनी तैयार होने लगी। उन दिनों बच्चों के डायपर्स नए-नए बाज़ार में आए थे। करुणा के लिए उसकी मौसी ख़रीद कर लाई थी। झट से सोती बेटी को जगा कर; मुँह-हाथ पोंछ कर; कपड़े बदल कर बेटी को लेकर देवी मंदिर का मन्नत पूरा करने के बहाने अपने पुराने दिनों को याद करने पति-पत्नी पहली बार कहीं निकले थे।
सामाजिक जीवन में सभी के लिए जो मनो-मस्तिष्क में अब तक प्रश्न चिह्न था, घर से बाहर निकलने के साथ ही प्रत्येक क़दम पर एक से एक परिचित मिल रहे हैं। जो अब तक नज़रअंदाज़ कर राह बदल लिया करते थे वो भी रागिनी-राजीव को शुभकामना-बधाइयाँ देने के बहाने आकर मिलकर पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक दृढ़ता का दृष्टि आकलन कर रहे हैं।
ट्रेन से उतर कर रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में पहुँच कर किसी कारणवश आईने में अपना चेहरा देखकर अहसास हुआ कि कान की बालियाँ ग़ायब हैं।
हे भगवान! . . . बेटी बार-बार खेलते हुए कान की बालियाँ खींच लेती थी। रात में भी उसने खींच ली थीं। इसलिए उसने सोचा था कि सुबह उठकर पहन लेगी पर आकस्मिक हड़बड़ाहट में उसे तो इसका ध्यान ही नहीं रहा . . . उफ़्फ़ ये आज ही होना था? अपने आप में विचित्र खीझ अनुभव की।
झेंपती हुई बोली, “ऐ जी . . . कान की बालियाँ पहनना भूल गई हूँ! दुकान से कोई साधारण सी दस-बीस रुपए के कर्ण-फूल ख़रीद दीजिए ना!”
“तो क्या हुआ? . . . कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता मुझे! . . . घर चल कर पहन लेना! . . . है ही तुम्हारे पास! . . . फ़ालतू की ख़र्च करने से क्या फ़ायदा? . . . हाँ, लेना है तो चलो तुम्हारे लिए एक अच्छा बैग ख़रीद देता हूँ।”
श्रीलेदर की दुकान में जाकर देखने पर उच्च क़ीमत देखकर आश्चर्यचकित रह गई रागिनी! जब तक कोई सस्ते दामों पर उपलब्ध बैग देख रही थी, तब तक करुणा एक चमड़े का बैग अपने उभरते हुए दाँतों वाले मसूढ़ों से खेल-खेल में कुतर चुकी थी।
लो बन गया काम! . . . राजीव ने करुणा के हाथों से छुड़ाते हुए कहा . . . बच्ची जिसे छुड़ाए जाने पर बहुत ज़ोर से रोने लगी थी।
रागिनी के झिझकने के बावजूद राजीव ने कहा, “लो यही हैंडबैग ख़रीद लो! . . . आठ सौ रुपए का बेटी ने चुन लिया है तुम्हारे लिए।”
निम्न मध्यवर्गीय परिवार के लिए सन् 2006 में 800 रुपए महत्त्व रखते थे।
“सुनो मेरी माँ-बहन पास भूलकर भी इसके क़ीमत की चर्चा मत करना! . . . वरना जानती हो ना? एक से एक जली-कटी सुना देंगी,” चेतावनी देते हुए राजीव ने रागिनी से कहा।
आनुवंशिक रूप में, बच्चे अपने माता-पिता की ही परछाईं होते हैं। अपनी माँ रागिनी की तरह रंग में, और पिता की तरह रूप में करुणा बचपन से ही थोड़ा हृष्ट-पुष्ट होने के साथ-साथ गोरी आकर्षक बच्ची रूप में किसी को भी ध्यानाकर्षित कर लेती थी।
श्वेता की बेटी अपने माता-पिता के समान थी।
होली में करुणा मात्र पच्चीस दिनों की थी। राजीव का मित्र, अपनी छुट्टियों में घर आया था। मित्र की बेटी हुई है; बात जानकर बच्ची को देखने आया।
“कहाँ है तुम्हारी बेटी?” उत्सुकतावश दौड़ने पर बरामदे में सुलाई गई श्वेता की बेटी सबसे पहले नज़र में आई। वह बच्ची के पास पहुँचा। मच्छरदानी में घुसकर देखने पर बहुत बड़ी विसंगति देख मायूस हो गया।
“क्या रागिनी? पैदा ही करना था तो अपने जैसी बेटी पैदा करती; ये तो राजीव के रंग पर है। कहाँ, तू तो दिन का उजाला और ये अँधेरी रात!”
रागिनी भी मस्तीखोर होकर बोली, “हाँ भाई जी ये बच्ची राजीव पर चली गई है।” . . . उसे बहुत ज़्यादा चिंतित देखकर कुछ देर बाद बोली, “क्या किया जाए? ईश्वर ने जो दिया है उसी पर संतोष करना पड़ता है। एक बेटी और है जो मुझ पर गई है।”
“कहाँ है वो?”
“अंदर है।”
जैसे ही लाकर गोद में दी वह ख़ुश होकर, “हाँ ये बेटी रागिनी की लग रही है। पर ये कैसे हो गया? एक दिन, तो एक रात की तरह कैसे?”
उसे इस प्रकार अचंभित देखकर और रागिनी को मस्ती करते देखकर सासु माँ ने आकर स्पष्ट किया कि ये राजीव की बेटी है . . . वह श्वेता की बेटी है।
बहुत देर तक हँसते हुए, “बहुत अच्छा मज़ाक किया, तुम तो रागिनी! घनघोर विसंगति देखकर मैं तो डर ही गया था।”
राजीव की अनुपस्थिति में करुणा, जब भी बीमार पड़ती तो अकेली रागिनी को सँभालना पड़ता। बच्ची अपनी माँ की गोद में जैसे बाहर निकलती; बाहरी दुनिया की रंगिनियाँ! कभी इधर, कभी उधर से बड़ी ध्यान से देखा करती।
उसे उस प्रकार उत्सुकता पूर्वक देखते देखकर रागिनी की चिन्ता आधी कम हो जाती। घर से बाहर, बाज़ार होते हुए, डॉक्टर पास पहुँचते-पहुँचते करुणा सचमुच आधी ठीक हो चुकी होती थी।
डॉक्टर रागिनी को चिंतित, फ़िक्रमंद देखकर बोलते, “देखने पर आपकी बच्ची से ज़्यादा तो आप बीमार लग रही हैं। क्या हुआ है? बिलकुल ठीक है; आपकी बेटी! . . . है ना बेटा?”
सुनकर, झट से ख़ुश होकर एक लम्बी साँस खींचते हुए झूमती हुंकार भर कर; “हूँ” कहकर मुस्कुरा देती।
“माँ” शब्द जाने कैसे बहुत जल्दी उसके मुख से प्रस्फुटित हुआ था। सुनने में अजीब है; पर दो-ढाई महीने में ही उसके रुदन में माँ शब्द प्रस्फुटित हुआ था। उसके बाद तो जब भी रोती, माँ शब्द बहुत ही साफ़-स्पष्ट सुनाई देता। जिस पर उसकी फूआ और दादी ने ग़ौर किया था।
सबसे पसंदीदा खिलौना, छतरी थी। नन्ही अवस्था से ही तेल मालिश करती हुई रागिनी उसकी ख़ूब कसरत करवाती। जिससे करुणा की पकड़ बहुत मज़बूत थी। जो भी पकड़ लिया; मतलब मुश्किल था उसका छूटना।
बाज़ार निकलने पर बच्ची करुणा, रागिनी की गोद में . . . करुणा की हाथों में छतरी . . . करुणा के अतिरिक्त मजाल किसी की जो उस छतरी को छू ले . . . जहाँ पकड़ छुड़ाई गई . . . रोना प्रारंभ।
जैसे छतरी दिखी; पकड़ने के लिए आतुर बच्ची छटपटाने लगती। जैसे ही छतरी हाथ आई एक विजित मुस्कान के साथ वह अपनी ख़ुशी दर्शाती।
हाँ, तो बात चल रही है कि देवी मंदिर के लिए राजीव और रागिनी, करुणा के साथ पहली बार बाहर निकले हैं; इतने दिनों में लम्बे अंतराल पर।
तीन-चार घंटे बाद राजीव दोनों बच्चियों की फोटो साफ़ करवाने के लिए कैमरे की रील लेकर गया था; कहकर, “कितना भटकोगी माँ-बेटी तुम दोनों? मैं आता हूँ ये काम झट से निपटा कर। तब तक यहाँ आराम करो।”
तभी रागिनी बच्ची का नैपकिन छूकर आश्वस्त होना चाहा, तो उसे लगा कि बदल दे अब। और जैसे ही गोद में बिठा पुराना खोल कर, नया बदलना चाहा, उसी समय सुंदर व्यवस्थित उसकी साड़ी की कोंछी के नीचे बढ़िया से काम ख़राब हुआ।
अब बच्ची को सँभाले कि अपनी साड़ी साफ़ करे। कुछ मिनटों तक प्रतीक्षारत रही। फिर सोची आख़िरकार कब तक वो वैसी मूरत बनकर किंकर्तव्यविमूढ़ बैठी रहेगी?
सोचती हुई हिम्मत करके एक गुज़रती अपरिचित महिला से मदद माँगी, “ज़रा एक मिनट के लिए मेरी बेटी पकड़िए। ताकि मैं अपनी गंदी साड़ी ठीक कर सकूँ।”
राह चलती महिला गोद में लिए उस बच्ची के रूप-शृंगार में खोई, भाव-विभोर निहारती रही। करुणा भी हँसती-खेलती अपरिचित महिला की गोद से, परेशान माँ को देखती रही।
तब रागिनी, एक-एक करके साड़ी की प्रत्येक सतह तक पहुँची गंदगी से ख़ुद को साफ़़ कर पाई।
ओह, धन्यवाद प्रभु जो अभी राजीव नहीं हैं। वरना कितना खीझ अनुभव करते हुए झल्लाते।
कुछ ऐसी ही कहानी तो रागिनी की माँ अक़्सर कहा करती थीं, “कैसे छह महीने की बच्ची, रागिनी को लेकर फ़िल्मों के शौक़ीन, उसके माता-पिता फ़िल्म देखने गए थें। फ़िल्म के क्रम में बच्ची के गंदगी मचाने पर वह फ़िल्म माँ की आख़िरी फ़िल्म बनी थी जो उन दोनों ने एक साथ देखा था। उसके बाद उसके पिता ने कभी फ़िल्में देखीं या नहीं? ये कोई बड़ी बात नहीं थी पर अन्ततोगत्वा माता जी के साथ फ़िल्म देखने उसके बाद फिर कभी नहीं गये।” आज कुछ वैसा ही अनुभव रागिनी का भी था।
खाने-पीने की वस्तुओं पर नन्हे बच्चे का ध्यान कितनी जल्दी जाता है? प्रत्येक भय से अपरिचित, नन्हा बच्चा! घिसटते-सरकते; आतुर तत्क्षण वह झट से पकड़ कर खींच लेना चाहता है। या हाथ-पैर मार कर झपटने-गिराने के प्रयास में भले ही कोई नुक़्सान हो जाए।
करुणा ने राजीव और रागिनी के खाने के प्लेट पर ख़ूब तूफ़ान मचा कर रखा था। फिर क्या? एक-एक करके दोनों ने अलग-अलग खाया।
करुणा का पहला अन्नप्राशन ही तो कहा जाएगा। जब गर्मियों में आम बाज़ार में आया था और सासु माँ ने पके आम की कटी हुई फाँकें, रागिनी को दी थीं।
घरेलू कामों को निपटाने के बाद बेटी को दूध पिलाने के क्रम में वो आम चखने के लिए उठी थी।
आम की भीनी-भीनी ख़ुशबू से करुणा का ध्यान अपनी माँ पर गया। वह दूध पीना छोड़ कर माँ को देखने लगी।
आम खाते देखकर अचंभित, उत्सुकतावश वह, अपनी माँ का हाथ पकड़ कर, ज़बरदस्ती करती हुई अपने मुख पास ले जाकर; आम के फाँकों को चखने के लिए अपना मुँह चटपटाई थी। फिर लेकर धीरे से चखने लगी। जितनी बार आम की मिठास अनुभव करती उतना ही विविध भावों के साथ अपने हाथों-पाँवों को मारते हुए आह्लाद दर्शाते हुए, चटपटाहट का स्वर उभरता।
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