रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 12

नवें महीने के मध्य तक रागिनी स्कूल जाती रही और उसकी सासू माँ डराती रही। 

अंततः रागिनी ने पूरी तरह हथियार डालते हुए घर पर रह कर बच्चे के पालन-पोषण का विचार किया। क्योंकि राजीव का सुख-चैन लूटने वाला, नौकरी का नियुक्ति-पत्र अब उसके हाथों में था। उसके आत्मनिर्भरता वाली दुनिया की सबसे बड़ी ख़ुशी मिली थी। जो डेढ़ साल की तपस्या करवाने के बाद आई थी। वही जिसके समय में सासू माँ ने अपनी बहू को धमकाया था। 

पर अभी भी राजीव किसी और के इंतज़ार में था, जो इन सात-आठ महीनों में उसे बहुत-बहुत सकारात्मक परिणाम देने वाला सिद्ध हुआ था। पद और वेतनमान में भी अधिकतम था। वह भी मिलने की प्रबल सम्भावना थी। राजीव ने दूसरी वाली नियुक्ति के लिए कुछ दिनों प्रतीक्षा करना उचित समझा। 

अपने अभिभावकों द्वारा बनाए गए अति दबाव पर कभी-कभी राजीव खीझने लगता जिसपर रागिनी शान्त करती। रागिनी उसकी भावनाओं से परिचित थी। “आप वही कीजिए जो बेहतर लगे आपको। आपके प्रत्येक व्यवहार को मेरे नाम का ठप्पा लगाकर देखा-माना जाएगा। जिससे फ़ालतू की परेशानी सभी के लिए होगी।” उसे पूरा भरोसा था कि राजीव जो भी निर्णय लेंगे, बेहतर ही होगा। मन-मानसिकता से पूर्णतः समर्पित होकर वह राजीव के साथ थी। 

वह कोई दबाव नहीं डाल कर निश्चिंत थी। इधर माता-पिता में अति शीघ्रता की बेचैनी पराकाष्ठा पर थी। जिसे वो बात-बात में ज़ाहिर करते हुए, कुछ न कुछ कहते और दबाव बनाते। 

सास-बहू के रिश्ते में रागिनी इतना ही समझी थी कि चाहे कुछ भी हो जाए, माँ और बेटी के प्रेम की अद्वितीय पराकाष्ठा होती है। जिसमें बहू चाह कर भी उसका सहभागी नहीं हो सकती। क्योंकि वह पराए घर की बेटी होती है। बेटी नौ महीने कोख में रखकर जन्मी, पालित-पोषित होने का सर्वोच्च विशेषाधिकार प्राप्त होती है। जिसे बोल-बोल कर सासू माँ असंख्य बार जता चुकी थी। इसलिए वह कोई उम्मीद भी नहीं करती थी पर एक टीस हृदय की, जिसे अस्वीकार भी नहीं करती। 

सच तो ये भी था कि इतने दिनों में रागिनी बहुत अच्छे से जान चुकी थी घर के प्रत्येक सदस्य का स्वभाव! सबसे ज़्यादा सासू माँ का, पल में तोला, पल में माशा वाला रूप! बेटी के मुँह पर बहू की बुराई और बहू के सामने अपनी ही बेटी की बुराइयों को करके बहू के मन में छिपे भाव को निकालने की कोशिश में, “अच्छा हुआ जो चली गई। दिन भर तो इधर से उधर घूमती रहती है। घर का काम ऐसे ही इतना है; उस पर उसके तिमारदारी में लगे रहो। इसीलिए नहीं रोकी, जाने दी।” जैसी अभिव्यक्तियों के असंख्य उदाहरण से परिचित हो गई थी रागिनी। 

सच-झूठ के भँवर में उद्वेलित, अचंभित उन शब्दों के अर्थ और उनके भावों को समझने की असफल कोशिश में, इससे पहले कि सास अभी और कुछ कहतीं उससे पहले ही अक़्सर किसी और काम का बहाना बनाकर रागिनी वहाँ से निकल लेती। 

दुनिया की विचित्र दस्तूरों में ये भी एक है कि सास की अपनी बेटी चाहे कैसी भी हो; कितनी भी बदक़िस्मत हो पर सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी माँ के लिए, संसार की सबसे रूपवन्ती, गुणवन्ती, भाग्यशालिनी स्त्री उनकी अपनी बेटी होती है। जिसके भाग्य से वो और संसार का अन्य लोग खा-जी रहे हैं। उनकी बहू रूप में दूसरे की बेटी कुछ भी नहीं; शून्य और महा-दुर्भगा है। बेटी के लिए उचित-अनुचित प्रत्येक ख़र्च सही है पर बहू के लिए हमेशा अनुचित व अनावश्यक ही दिखता है। 

बेटी, जिसके अपने भाग्य और पुरुषार्थ का कोई ठिकाना ना हो; बावज़ूद वो लक्ष्मी अपने भाई की भाग्यवंती बहन है, जो एकमात्र अपने भाई का भाग्य लिख रही। उसके ख़ुद के पति की सरकारी नौकरी का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न रहे पर भाई का सम्बन्ध एकमात्र उससे है। पढ़ी-लिखी गुणवान बहू जो उनके बेटे से जुड़ी है; मात्र बोझ है! बेकार है! गोबर है! जब से जुड़ी है बेटे का भाग्य और पुरुषार्थ खा गई है। जिससे पीछा छुड़ाना उनके वश में होता तो कब का छुड़ा चुकी होती। बेटी और बहू के रिश्तों की मिठास के बदले प्रतिस्पर्धात्मक कटुता की बीजारोपण कर बर्बाद कर रही थीं। सासपन ऐसा कि किसी के हिस्से का सुहाग और सुख यदि लेकर किसी को देने का हक़-अधिकार होता; तो अपनी बेटी को दे चुकी होतीं। 

बेशर्मी की हद तक जब-तब कह रही होतीं मेरी लक्ष्मी बेटी की भाग्य से बेटे की नौकरी लग गई है दीदी! ऐसे में मुँह की खर्रा-खर्री बोलने वाली दो-चार स्त्रियाँ टोक देतीं, “अरे जाओ बहन! . . . तुम भी हद हो . . .। दुनिया की अकेली स्त्री हो जिसके मुख से अनोखी बात सुन रहें हम! . . . बेटी भाग्य से दामाद बढ़ता है और बहू के भाग्य से बेटा! बेटी-बहू के अपने-अपने भाग्य से उसका अपना-अपना ससुराल बढ़ता है।” यह प्रसंग कई बार रागिनी के सामने भी हो चुका था सचमुच मन-मस्तिष्क दोनों कचोट जाता। 

उपहार सोने या चाँदी की धात्विक क़ीमत और चमक से ज़्यादा बड़े बुज़ुर्गों के आशीर्वाद और भावनात्मक संवेदनशील प्रगाढ़ता का माध्यम मात्र होते हैं। जो जितने पुराने होते जाते हैं, विरासत रूप में पुरुखों से जुड़ने वाले परम्परा की पहचान बन कर मिलते हैं। जिनकी क़ीमत अनमोल होती है। राजीव की नानी और उसके बचपन के स्मृति चिह्न को सँजोकर रखने की अभिलाषा! मौन परीक्षा में खो गई। देखा जाए सासू माँ की प्राथमिकताओं में भला कौन है? विचार कर मौन रही थी, रागिनी! 

बहू से शीघ्र-अतिशीघ्र पोते की आश लगाए रखने वाली सास, जब ख़ुद नानी बनती है तो अपने नाती के लिए नया चाँदी का कंगन बनाना बहुत-बहुत महँगा प्रतीत हुआ था। या यूँ कहा जाए तो विरासत रूप में उपलब्ध पुराने स्मृति चिह्न का उपयुक्त पात्र पोता-पोती नहीं वरन्‌ नाती-नातीन होता है यहाँ पता चला। पक्षधरता में राजीव का कंगन, वंश परम्परा का सूचक चिह्न, जो उसकी नानी ने बचपन में दिए थे उस पीढ़ी का निर्वाह होने के बाद अपने नाती को दे दीं। 

जाने क्या सोच-विचार कर कि उनकी बहू तो बाँझ रहने वाली है या क्या? ये तो वही जाने! पोता-पोती तो मात्र नाम का है। प्राथमिकताओं में केवल नाती-नातिन होते हैं दिखाने-समझाने के लिए; या रागिनी को जलाने के लिए। वो भावना-दुर्भावना रागिनी समझने की कोशिश करती रही पर समझ नहीं पाई . . . पुनः झटक कर आगे बढ़ी। अरे छोड़ो भी रागिनी, कोई, कुछ भी सोचे-चाहे! व्यर्थ के बकवास से परे होकर जीना है। 

बहू की साधारण समस्याओं सर्दी, खाँसी, बुख़ार, सिरदर्द पर खीझने वाली सास! “ये स्त्री मेरे बेटे को कभी सुखी नहीं रहने देगी। जब देखो महारानी की तबियत ख़राब रहती है। जो भी कमाएगा बेचारा! इसकी वज़ह से डॉक्टर के यहाँ जाएगा।”

जिसे मौक़े-बेमौक़े कोस-कोस कर ज़ाहिर करने से नहीं चूकती। जिस प्रकार उनकी बेटी, दो-दो बार बच्चे के जन्म में, पैसे और सेवा वाली देखभाल पर निर्भर हुई थी। बहू के लिए, उन परिस्थितियों में, तो वो ज़िंदा खा जातीं। 

इंटरनेट पर जारी फ़ाइनल लिस्ट में शामिल अपना नाम देखने के बाद आश्वस्त राजीव को तय था कि सप्ताह भर में उसके नियुक्ति वाला काग़ज़ आने वाला है। 

नियुक्ति के चिकित्सीय जाँच के लिए यथाशीघ्र उसे जाना पड़ सकता है दक्षिण भारत। डॉक्टर के दिए दिन के अनुसार प्रसव का समय भी निकट ही है। वसंत-पंचमी की शुभ बेला में बेटी-बहू के आने-जाने में कोई मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती है इसलिए लेतहार रूप में बहन को लेने भेजा गया। दो-चार दिनों में बच्चा होने की सम्भावना है। 

सास वृत्ति जब शान्त हो कर स्त्रीगत संस्कार भाव जागृत होती उस समय वह दयालु रहतीं। सोते-जागते हर वक़्त अब सासू माँ का सवाल और चिन्ता, “जाने कब होगा बच्चा? जाने कब होगा बच्चा? कुछ हो रहा तुम्हें! कहीं कोई दर्द-पीड़ा?” 

रागिनी हँसती हुई बोलती, “नहीं हो रहा अभी। नहीं हो रहा तो ज़बरदस्ती कैसे बताऊँ?” 

हे भगवान! जाने कब होगा बच्चा? 

जल्दीबाज़ी के अकुलाहट में सास का प्रलाप होता, “भगवान जाने इसके पेट में ईंटा है या पत्थर!”

सुनकर रागिनी हँसती हुई अपने पेट पर हाथ रखकर कहती, “तू आराम से रह बेटा या बेटी जो भी हो! मुझे कोई दिक़्क़त नहीं। यहाँ के उलझनों से मुक्त तू अभी वहाँ ज़्यादा सुरक्षित है। अपना पूरा समय लेकर आना। मुझे कोई हड़बड़ी नहीं। तुम्हारी दादी ऐसी ही है। बहुत जल्दी में बुलाएँगी, और फिर जल्दी ही ऊब भी जाएँगी।”

महीने के प्रारंभिक सप्ताह का समय, बच्चे के जन्म के लिए संभावित तिथि डॉक्टर ने दी थी। प्रतीक्षारत तीसरे सप्ताह की समाप्ति होने जा रही थी। गर्भस्थ माँ बिलकुल शान्त और आश्वस्त थी। पर बाहरी दुनिया के लिए भयंकर आतुरता मची थी, “जाने कब होगा? क्या होगा?” 

राजीव जिस नियुक्ति की प्रतीक्षा में बेसब्री से अपना ख़ून जला रहा था। आज उसके हाथों में, मेडिकल का काग़ज़ आया है। उसे कुछ दिनों के लिए जाना होगा ताकि चिकित्सीय जांँच सम्भव हो पाए। उसके अब तक के किए गए प्रयासों का ये आख़िरी सोपान है। 

अपनी तैयारियों के साथ रागिनी को समझा-बुझाकर कर राजीव अपने कर्म पथ की ओर अग्रसर हुआ। रागिनी बच्चे के जन्म की प्रतीक्षा में शान्त-संयमित सब कुशल-मंगल हो जाए की प्रार्थना करती। 

इधर ज़िम्मेदारियों के दबाव में सासू माँ की संकुचित उदारता की सच्चाई अपने वास्तविक स्वरूप में गाहे-बगाहे उभरती, “सारा बोझ मेरे सिर पर डाले तुम्हारा परिवार! . . . माँ-बाप निश्चिंत है। मेरा देखो, अपनी बेटी के लिए जाकर आर्थिक और शारीरिक सहयोग करके हर बार आती हूँ।” 

सुनकर आँखों में आँसू के साथ रागिनी विचार करने लगी कि वाह री समय तेरे खेल निराले! श्वेता के ऑपरेशन की बात सुनकर, दोनों माँ-बेटे चिन्ता और तनाव में थे। बेटी के ससुराल कैसे जाएगी? उसकी माँ की पुरानी सोच को नकारते हुए, आवश्यकता में जाना ही चाहिए बेटी की माँ को! वो भी साड़ी, ज़ेवर, कपड़े तो पुरानी औपचारिकताओं में हैं। ससुराल वालों के नैतिक समर्थन में आज के समय में पैसे की व्यवस्था सबसे बड़ी ज़रूरत है। पाँच-दस हज़ार जो भी सम्भव हो लेकर प्रस्तुत होइए। अपनी हर बात से प्रोत्साहित करने वाली बहू को सास धमकाते हुए पढ़ा रहीं। ननद को आर्थिक स्थिति के लिए दुःखी और परेशान देखकर ब्युटी-पार्लर का काम सीखने में होने वाले सारे ख़र्च के लिए वही सास को ज़बरदस्ती तैयार करवाया था। ” क्या कीजिएगा भविष्य में काम आएगा उनके लिए। आप की बेटी है, आप सहयोग नहीं कीजिएगा तो और कौन करेगा?” कह कर सैकड़ों बार समझाना पड़ा था उनकी अपनी सगी बेटी के लिए वह सास आज मुझे नीचा दिखा रहीं थीं। 

“तुम्हारा कौन है? कौन आएगा? देख लो अपना दुर्भाग्य! तेरे कारण मैं फँस गई हूँ। फालतू की मुसीबत, बेटा मेरे गले मढ़ गया है।”

और भी बहुत कुछ बेरोज़गारी की आड़ में अपने रिश्ते-नातों की भयंकर सच्चाई से रू-ब-रू होने का अवसर मिला था। धन्यवाद प्रभु! कहकर रागिनी समय की कठोरता से परिचित हो रही थी। 

बार-बार अपनी ज़िम्मेदारियों का ताना अपनी सास से सुनकर शान्त और संयमित स्वर में ही सही एक दिन रागिनी को कहना पड़ा, “माँ आप को ये मौक़ा मैं फिर दुबारा नहीं दूँगी। ये बोझ यदि है भी तो सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके बेटे के भरोसे है, ना कि आपके भरोसे! मैं मायके चली भी जाती पर आपके बेटे की ज़िद थी, ‘मेरा बच्चा, मेरी ज़िम्मेदारी है। जो भी होगा, यहीं मेरे घर में होगा।’ रही मेरी बात; तो ना मैं, ना मेरा बच्चा! आपके भरोसे हैं और ना मेरे मायके के भरोसे। मेरा कर्म और भाग्य मेरे साथ हैं। जिसका न्याय आप एक दिन देखिएगा। बस धैर्य रखिए।”

अशान्त होने पर भी बहुत कुछ सोच-विचार कर शान्त रहने के प्रयास के साथ रागिनी ईश्वर के प्रति सकारात्मक सोच रखती क्योंकि आज जो स्थितियाँ-परिस्थितियाँ हैं; वो कल नहीं रहने वाली। शक्ति-दल-बल सब समय के साथ पैसा और पोज़िशन का खेल है सारा जिसके बिना कोई भी, कुछ भी नहीं। 

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