रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन

रमक-झूले की पेंग नन्हा बचपन  (रचनाकार - पाण्डेय सरिता)

नन्हा बचपन 44

 

हाँ, सचमुच! अक्का के समूचे घर में, कोने में, सोफ़े पर, बिछावन के नीचे, हर तरफ़ तो बिल्लियों का अखण्ड साम्राज्य क़ायम रहता है। वह उन्हें अनुशासित-नियंत्रित रखती हैं। 

राजीव के निर्देशानुसार, झट से रागिनी अक्का पास दौड़ी गई . . . उनके पास जाकर सारी घटना बताई . . . तो सुनकर वह दौड़ी चली आई। 

अक्का के निर्देशानुसार उन विडाल शावकों को पुनः वहीं रखा गया, जहाँ पर वह छोड़ कर गई थी। कुछ समय दिया गया ताकि बहुत देर से भूखे-प्यासे अपने शावकों को दूध पिला सके। इस दरम्यान अन्य लोग वहाँ से दूरी बनाए रखते हुए दूर से ही अवलोकन कर रहे थे। करुणा कहीं कूद कर उन बच्चों पास जाकर, बिल्ली को हड़का ना दे विचार कर रागिनी ने उसे गोद में उठा लिया। 

करुणा के लिए वह ख़ूबसूरत-जागृत चलता-फिरता मनोरंजन ही तो था। विविध गतिविधियों को देख-देखकर प्रफुल्लित-पुलकित सवालों की झड़ी करती रही। 

हरबार की तरह वह बिल्ली यथास्थान पहुँच गई। दूध पिलाने के बाद उस बिल्ली माँ के सामने ही सुरक्षित बच्चों वाला उसने कार्टून ले जाकर एक कमरे में रखा। अक्का के सुरक्षित परिचित हाव-भाव से शान्त-संतुष्ट बिल्ली अपने बच्चों के साथ-साथ उस कमरे में चली गई। देखकर राहत की लम्बी साँस खींचते हुए शान्त-संतुष्ट राजीव ने रागिनी से पूछा, “अब मिली संतुष्टि तुम्हें?” रागिनी की मुस्कुराहट ने जवाब दिया। इस तरह रागिनी की मातृत्व भरी बेचैनियों की इस कहानी का पटाक्षेप हुआ। 

नियमित रूप से करुणा अपने खाने के हिस्से में से निकाल कर दूध-रोटी देती उन्हें! रह-रह कर गाहे-बगाहे उस माँ बिल्ली के पीछे-पीछे उसके बच्चे चलते हुए दिखाई देते। जो देखते-देखते बड़े हो रहे थे। 

अक्षता-अक्षिता की माँ ने एक दिन अपने बचत के पैसों से किसी विशेष उपलक्ष्य में बड़ी मुश्किल से जोड़-घटाव कर किसी तरह एक सोने की अँगूठी ख़रीदी हुई रागिनी को दिखाई थी। 

एक सप्ताह बाद बहुत ही ज़्यादा उदास बैठी थी। तो मानवीय संवेदनाओं से वशीभूत रागिनी ने पूछा, “क्या हुआ अक्का?” वह उम्र और अवस्था में रागिनी से चौदह-पन्द्रह साल बड़ी थी जिससे सम्मान वश दीदी (अक्का) कहती थी। 

वह अश्रुपूरित नेत्रों से भावुक होकर बोली, “देखो ना वह अँगूठी जो पिछले सप्ताह लाकर तुम्हें दिखाई थी ना खो गई है या चोरी हो गई है।” 

रागिनी सुनकर स्तब्ध और अचंभित रह गई, “ऐसे कैसे हो सकता है? घर में बाहरी तो कोई आता-जाता भी नहीं? अक्का आप चिंता मत कीजिए। आपके घर में ही कहीं ना कहीं होगी! . . . सबसे अच्छी बात है कि मैं करुणा को तो आपकी उपस्थिति में ही आपके घर में घुसने देती हूँ। यही सब कारणों की वजह से मैं बाहर ही बाहर मिल कर निकल जाती हूँ . . . करुणा के बाहर खेलते समय सदैव उसके साथ रहती हूँ। उसके हाथ में किसी का भी कोई सामान, खेल-खिलौने कुछ भी घर में ले जाने से सख़्त पाबंदी है। 

“बाहरी बच्चे आते नहीं . . . आपकी ये दोनों बेटियाँ बहुत समझदार हैं। 

“अपना ख़ून मत जलाइए . . . आप रोइए मत . . . ज़रूर मिल जाएगी। ज़रूर आपके साड़ी-कपड़ों में कहीं उलझ गई होगी। या आलमारी में ही आपके, उसके किसी कोने में फँसी-गिरी होगी। जो दो-तीन दिन या जब भी शान्त-संयमित रहिए तब ढूँढ़िए। नहीं तो अक़्सर हड़बड़ाहट में सामने की वस्तु भी नज़र नहीं आती।” 

किसी वस्तु के साथ धन भी जाता है और धर्म भी। संदेह की सूई हर जगह घूमती है। 

रागिनी की बातों पर वह तत्क्षण संतुष्ट हुई भी या नहीं ये तो वही जाने। पर कुछ दिनों बाद उन्होंने ख़ुशख़बरी दी कि उनकी खोई हुई अँगूठी मिल गई है। जो उनके आलमारी में ही थी। सुनकर रागिनी आत्मीयतापूर्ण भाव से अति संतुष्ट हुई। सचमुच ये रागिनी के दिल-दिमाग़ पर एक भावनात्मक बोझ बन कर पड़ा था। 

एक दिन जब बच्चे बाहर खेल रहे थे तो एक आदमी को देखकर अक्षता-अक्षिता भयभीत होकर भाग खड़ी हुईं और घर में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया। रागिनी कुछ समझ पाती; इससे पहले ही सब हो गया था। वह पूछती रही पर बच्चियों ने कुछ भी नहीं बताया। अन्ततः उलझन में उसने उनकी माँ से जानना चाहा कि आख़िर ऐसी बात क्या हो गई भला? 

बहुत गंभीर मुद्रा में, “पिता!” . . . (और फिर कुछ देर मौन रहने के बाद) जो अक़्सर मेरी अनुपस्थिति में आकर बच्चों को मेरे विरुद्ध भड़काता है। बेटे को तो भड़का भी चुका है जिसके कारण वह मेरी बात सुनता और समझता ही नहीं। जो कुछ भी कहती हूँ, ठीक उसके उल्टा करता है।” 

“ओह समझ गई मैं!” रागिनी वहाँ से विचारणीय मुद्रा में लौट आई। कुछ दिनों बाद एक सत्तरह-अट्ठारह वर्ष का एक लड़का दिखाई दिया उनके घर पर, जिसे देख कर समझ गई रागिनी कि यही उनका बेटा होगा! जिसके बारे में अक़्सर चिंतित माँ उसकी सदैव दुःखी रहती थी। 

इस बीच किसी तरह मौसमी बुख़ार के साथ करुणा को दस्त होने पर वहाँ के स्थानीय अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। और राजीव किसी परीक्षा के सिलसिले में आठ-दस दिनों की छुट्टी लेकर कहीं बाहर गया हुआ था। 

नन्ही बच्ची को अस्पताल में छोड़ कर कहीं आने-जाने में समस्या थी। बीमार-अस्वस्थ बच्ची भी बहुत ज़्यादा डरी-सहमी माता के पास चिपकी रहती। बिलकुल नहीं छोड़ती थी तो मजबूरी में रागिनी किसी तरह वहीं के आस-पास के हॉटेल से कुछ भी खा कर अपना गुज़ारा कर रही थी। यहाँ घर पर ढ़ाई-तीन दिनों तक ताला बंद रहा। 

अन्ततः जब करुणा की स्थिति में सुधार हुआ तो लेकर वापस घर आई। ताला जैसे ही खोल कर अंदर आई तो कहीं ना कहीं एक ही दृष्टि में उसकी छठी ज्ञानेन्द्रिय को घर में कुछ अप्रत्याशित अस्त-व्यस्त सा लगा। रागिनी सन्न रह गई थी। 

हॉस्पिटल जाते समय वह कुछ भी ऐसे छोड़ कर नहीं गई थी फिर ऐसा कैसे हुआ? कहीं उसकी अनुपस्थिति में घर में कोई घुसा तो नहीं? कहीं कोई चोरी-वोरी? अनेक शंकाओं-कुशंकाओं के साथ कुछ गड़बड़ है . . . पर क्या है? तत्क्षण कुछ समझ नहीं पा रही थी। 

सम्भवतः उसके पास उस समय उतना समय भी नहीं था कि करुणा के अतिरिक्त उस समय कुछ और सोच सके। आज कई दिनों के बाद करुणा ने कुछ खाने की बात कही थी। इसलिए झट से बिस्तर साफ़-सफ़ाई करके बेटी को आराम करने के लिए बोल कर रसोई में कूकर में पतली खिचड़ी के लिए चावल-दाल, हल्दी नमक डालकर झट से चूल्हे पर चढ़ा दी। फिर उसे साहस देने के लिए बेटी पास आकर बैठ गई। 

बाद में फ़ुर्सत से देखने पर रुपए-पैसे और अन्य क़ीमती सामान! सभी कुछ तो है अपने-अपने स्थान पर फिर ऐसा क्यों लगा? 

राजीव की अनुपस्थिति में और करुणा की अस्वस्थता में इस तरह अकेली पड़ जाना कोई मामूली बात नहीं थी। पर माँ का साहस ऐसे में सचमुच कई गुना ज़्यादा बढ़ जाता है। ये भी सच है। 

राजीव के आने तक करुणा पूरी तरह स्वस्थ हो चुकी थी। पर इस बीच में एक बार भी टीवी चालू नहीं किया गया था। फ़ुर्सत में राजीव जब टीवी चालू करने लगा तो डीवीडी से टीवी कनेक्टर तीनों रंग (सफेद, लाल, पीला) वाला तार ग़ायब था। राजीव ने रागिनी से पूछा, वह तार किसी को दिया है क्या? सुनकर राजीव कहना क्या चाह रहा है? पहले तो रागिनी कुछ समझ भी नहीं पा रही थी। क्योंकि राजीव की अनुपस्थिति में करुणा में ही इतनी उलझी हुई थी कि किसी को भी कुछ देने-लेने का सवाल ही नहीं था। अन्ततः उसका ध्यान जागृत हुआ और उस अस्त-व्यस्तता वाली बात राजीव को बताई। 

“जिस दिन अस्पताल से लौटी थी तो कुछ संदिग्ध लगा था मुझे! खिड़की के पास का टेबल थोड़ा अंदर की तरफ़ तो कर दिया था पर ज़्यादा नहीं कर पाई थी। कहीं वह तार ग़ायब होने के कारण तो नहीं?” वह कुछ सोचने लगी। 

“दरवाज़े और खिड़कियाँ अच्छे से लगाई थी ना?” राजीव ने पूछा! 

“दरवाज़े . . . खिड़कियाँ?” . . . याद करने पर बोली, “सारे तो अच्छे से लगे थे पर . . . हड़बड़ाहट में ऊपर वाला बहुत कोशिशों पर भी नहीं लग पाया था तो अंत में जितना सम्भव हुआ बंद कर गई थी कि आ जाऊँगी ही। किसने सोचा था मेरे बच्चे को अस्पताल में भर्ती होना पड़ जाएगा।”

उस दिन डीवीडी टेबल के निचले खंदे में लटका हुआ था। और यहाँ कोई बाहरी आदमी आने से रहा? यहीं के किसी का काम होगा। 

सोचो बंद खिड़कियाँ खोलकर भला कितना मुश्किल हुआ होगा वह तार खींच कर निकालने में? 

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