सावन मनभावन: भीगते मौसम में साहित्य और संवेदना की हरियाली

15-07-2025

सावन मनभावन: भीगते मौसम में साहित्य और संवेदना की हरियाली

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

सावन केवल एक ऋतु नहीं, बल्कि भारतीय जीवन, साहित्य और संस्कृति में एक गहरी आत्मिक अनुभूति है। यह मौसम न केवल धरती को हरा करता है, बल्कि मन को भी तर करता है। लोकगीतों, झूले, तीज और कविता के माध्यम से सावन स्त्रियों की अभिव्यक्ति, प्रेम की प्रतीक्षा और विरह की पीड़ा का स्वर बन जाता है। 

साहित्यकारों ने इसे कभी शृंगार में, कभी विरह में, तो कभी प्रकृति के प्रतीक रूप में देखा है। लेकिन आज का आधुनिक मन सावन को केवल मौसम समझता है, महसूस नहीं करता। यह लेख सावन के सांस्कृतिक, साहित्यिक और भावनात्मक पक्षों को उजागर करते हुए हमें स्मरण कराता है कि भीगना केवल शरीर से नहीं, आत्मा से भी ज़रूरी है। 

सावन हमें सिखाता है— प्रकृति से जुड़ो, भीतर झाँको, और संवेदना को जीयो। 

—डॉ. सत्यवान सौरभ

सावन आ गया है। वर्षा ऋतु की पहली दस्तक के साथ ही जब बादल घिरते हैं और बूँदें धरती को चूमती हैं, तो केवल पेड़-पौधे ही नहीं, मनुष्य का अंतर्मन भी हरा होने लगता है। यह महीना केवल वर्षा का नहीं, स्मृति, संवेदना और सृजन का है। सावन जब आता है, तो कविता झरने लगती है, लोकगीत गूँजने लगते हैं, पायलें छनकने लगती हैं और रूठा प्रेम भी नमी में घुलकर लौट आता है। 

सावन—एक ऋतु नहीं, एक मनःस्थिति है

भारतीय मानस में ऋतुएँ केवल मौसम नहीं, जीवन के प्रतीक रही हैं। वसंत प्रेम का, ग्रीष्म तपस्या का और सावन प्रतीक्षा का महीना बनकर आता है। सावन में अक्सर प्रेयसी अकेली होती है, प्रियतम किसी दूर देश गया होता है, और प्रतीक्षा के बीच में विरह का काव्य जन्म लेता है। इसलिए साहित्य में सावन का आगमन केवल प्राकृतिक नहीं, आत्मिक घटना है। 

“नइहर से भैया बुलावा भेजवा दे”, “कजरारे नयनवा काहे भर आईल” जैसे कजरी गीत सिर्फ़ आवाज़ नहीं, पीड़ा का पानी बनकर झरते हैं। 

लोक संस्कृति में सावन का रंग

सावन का महीना भारतीय लोक परंपरा का सबसे रंगीन अध्याय है। कहीं तीज मनाई जा रही होती है, कहीं झूले पड़ रहे होते हैं, कहीं मेहँदी लग रही होती है तो कहीं बहनों के लिए राखी के गीत तैयार हो रहे होते हैं। यह महीना नारी मन की सृजनात्मक उड़ान का समय होता है। दादी-नानी की कहानियाँ, माँ के गीत, और बेटियों की प्रतीक्षा—सब कुछ सावन की हवा में घुल जाता है। 

हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में कजरी, झूला गीत, सावनी और हरियाली तीज लोककाव्य का रूप ले लेती हैं। ये गीत सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, महिला सशक्तिकरण के सांस्कृतिक दस्तावेज़ हैं— जहाँ स्त्रियाँ अपनी भावनाएँ, शिकायतें, प्रेम और विद्रोह तक गा डालती हैं। 

साहित्य में सावन: बरसते बिम्ब और प्रतीक

साहित्यकारों ने सावन को केवल प्रकृति-चित्रण के लिए ही नहीं, बल्कि मानवीय भावनाओं के प्रतिनिधि के रूप में देखा है। 

महादेवी वर्मा के शब्दों में सावन अकेलेपन की पीड़ा है: “नीर भरी दुख की बदली।” 

मैथिलीशरण गुप्त ने सावन को शृंगार रस में देखा: “चपला की चंचल किरणों से, छिटकी वर्षा की बूँदें”

गुलज़ार की कविता हो या नागार्जुन की भाषा, सावन हर किसी के लिए कुछ कहता है। किसी के लिए वो टूटे रिश्तों की याद है, किसी के लिए माँ की गोद में बिताया बचपन, और किसी के लिए प्रेम की भीगी पहली रात। 

भीतर की बारिश को समझना ज़रूरी है

आज जब हम ऐसी कमरों में बैठे, मोबाइल पर मौसम का अपडेट पढ़ते हैं, तब सावन की असली ख़ुशबू कहीं खो जाती है। हमने बारिश को केवल ट्रैफ़िक की समस्या बना दिया है। सावन अब इंस्टाग्राम स्टोरी बनकर रह गया है। पर क्या हमने कभी भीतर की बारिश को महसूस किया है? 

वह बारिश जो हमें धो देती है—अहंकार से, शुष्कता से, थकान से। सावन हमें फिर से नम करता है—हमें इंसान बनाता है। प्रकृति की गोद में लौटने का आमंत्रण है ये मौसम। 

आज के कवियों के लिए सावन क्या है? 

आज के कवियों को सावन का सिर्फ़ चित्रण नहीं करना चाहिए, बल्कि उसके भीतर छिपी विसंगतियों को भी पकड़ना चाहिए। जब ग्रामीण भारत के खेतों में पानी नहीं और शहरों में जलभराव है, तब यह असमानता भी साहित्य का विषय बननी चाहिए। 

कविता को झूले और कजरी के अलावा किसानों के अधूरे सपनों, बर्बाद फ़सलों, और जलवायु परिवर्तन के संकट को भी शब्द देना होगा। 

सावन और रंगमंच: नाट्य का मौसम

सावन केवल काव्य का विषय नहीं, रंगमंच और लोकनाट्यों का भी प्रिय समय है। उत्तर भारत के कई हिस्सों में इस मौसम में झूला महोत्सव, सावनी गीत प्रतियोगिताएँ, लोकनाट्य और कविता गोष्ठियाँ आयोजित होती हैं। 

यह मौसम कलाकारों के पुनर्जन्म जैसा होता है। उनके रंग, उनके स्वर और उनके मंच, सभी में नमी आ जाती है—जो सीधे दर्शक के हृदय तक पहुँचती है। 

आधुनिक मन और सावन की चुनौती

आज का मानव सावन को देख तो रहा है, पर महसूस नहीं कर रहा। उसका मन इतनी सूचनाओं, मशीनों और तथ्यों में उलझ गया है कि वह बारिश को केवल मौसम विभाग के पूर्वानुमान के रूप में लेता है। 

पर सावन को समझना है तो, खिड़की खोलनी होगी–मन की भी और कमरे की भी। 

बूँदों को केवल त्वचा पर नहीं, आत्मा पर भी गिरने देना होगा। 

प्रकृति का मौसमी संदेश

सावन हमें याद दिलाता है कि विकास और विनाश के बीच संतुलन ज़रूरी है। 

बारिश से पहले आई भीषण गर्मी, जल संकट, जंगलों में आग—यह सब बताता है कि हमने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ा है। 

सावन की बारिश इस बिगाड़ को थोड़ी राहत देती है, पर चेतावनी भी देती है कि अगर हमने अब भी नहीं सुधारा, तो सावन केवल स्मृति बनकर रह जाएगा। 

समाप्ति की ओर एक सादगी भरा संदेश

सावन को आने दो। 
उसे भीतर आने दो। 

जब वह बूँद बनकर गिरे, तो केवल छतों पर नहीं, तुम्हारी कविता में भी गिरे। 

जब वह झूला बनकर डोले, तो केवल पेड़ों पर नहीं, तुम्हारी कल्पना में भी डोले। 

यह मौसम मन का है, बस उसे पहचानने की ज़रूरत है। 

बचपन के वे झूले, माँ के लगाए मेहँदी के रंग, छत पर रखे बरतन, और खेत में दौड़ता नंगाधड़ंग बच्चा—सब अब भी हमारे भीतर कहीं ज़िन्दा हैं। उन्हें ज़रा सावन में बाहर आने दो। 

निवेदन:

जब भी बादल घिरें, मोबाइल मत उठाना, खिड़की खोल लेना। और मन करे तो एक पुराना गीत गा लेना:

“कभी तो मिलने आओ सावन के गीत गाने . . .”

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