हारा-थका किसान

15-11-2024

हारा-थका किसान

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 265, नवम्बर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

बजते घुँघरू बैल के, मानो गाये गीत। 
चप्पा-चप्पा खिल उठे, पा हलधर की प्रीत॥
 
देता पानी खेत को, जागे सारी रात। 
चुनकर काँटे बाँटता, फूलों की सौगात॥
 
आँधी खेल बिगाड़ती, मौसम दे अभिशाप। 
मेहनत से न भागता, सर्दी हो या ताप॥
 
बदल गया मौसम अहो, हारा-थका किसान। 
सूखे-सूखे खेत हैं, सूने बिन खलिहान॥
 
चूल्हा कैसे यूँ जले, रही न कौड़ी पास। 
रोते बच्चे देखकर, होता ख़ूब उदास॥
 
ख़्वाबों में खिलते रहे, पीले सरसों खेत। 
धरती बंजर हो गई, दिखे रेत ही रेत॥
 
दीपों की रंगीनियाँ, होली का अनुराग। 
रोई आँखें देखकर, नहीं हमारे भाग॥
 
दुःख-दर्दों से है भरा, हलधर का संसार। 
सच्चे दिल से पर करे, ये माटी से प्यार॥

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