बन सौरभ तू बुद्ध
डॉ. सत्यवान सौरभमतलबी संसार का, कैसा मुख विकराल
अपने पाँवों मारते, सौरभ आज कुदाल
सिमटा धागा हो सही, अच्छे हैं कम बोल
सौरभ दोनों उलझते, अगर रखे ना तोल
काँप रहे रिश्ते बहुत, सौरभ हैं बेचैन
बेरूखी की मार को, झेल रहें दिन-रैन
ज़हर आज भी पी रहा, बनता जो सुकरात
कौन कहे है सत्य के, बदल गए हालात
दिला गयी है ठोकरें, अपनों का अहसास
सौरभ कितने साथ है, कितने ख़ासमख़ास
होते कविवर कब भला, वंचित और उदास
शब्दों में रस गंध भर, संजोते उल्लास
विचलित करते है सदा,मन मस्तिक के युद्ध
अगर जीतना स्वयं को, बन सौरभ तू बुद्ध
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