आख़िर क्यों सही से काम नहीं कर पा रही साहित्य अकादमियाँ? 

15-03-2024

आख़िर क्यों सही से काम नहीं कर पा रही साहित्य अकादमियाँ? 

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 249, मार्च द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

पिछले दशकों में पुरस्कारों की बंदर बाँट कथित साहित्यकारों, कलाकारों और अपने लोगों को प्रस्तुत करने के लिए विशेष साहित्यकार, पुरोधा कलाकार, साहित्य ऋषि जैसी कई श्रेणियाँ बनी है। जिसके तहत विभिन्न अकादमियाँ एक दूसरे के अध्यक्षों को पुरस्कृत कर रही हैं और निर्णायकों को भी सम्मान दिलवा रही हैं। इन पुरस्कारों में पारदर्शिता का अभाव है। राज्य अकादमी पुरस्कारों की वार्षिक गतिविधियाँ संदिग्ध हैं। जो कार्य एक वर्ष में पूर्ण होने चाहिएँ उनको करने में सालों लग रहे हैं। पुरस्कारों के लिए मूल्यांकन प्रक्रिया स्पष्ट और समयानुसार नहीं है। साहित्य किसी भी देश और समाज का दर्पण होता है। इस दर्पण को साफ़-सुथरा रखने का काम करती हैं वहाँ की साहित्य अकादमियाँ। लेकिन सोचिये क्या होगा? जब देश या राज्य का आईना सही से काम न कर रहा हो तो वहाँ की सरकार पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। जी हाँ, ऐसा ही कुछ हो रहा है देश के राज्यों की साहित्य अकादमियों में। किसी भी राज्य की साहित्य अकादमी के अध्यक्ष होते हैं राज्य के मुख्यमंत्री। मुख्यमंत्री जिस संस्था के अध्यक्ष हों वही संस्था अगर सही से काम न करे तो बाक़ी संस्थाओं की स्थिति का अंदाज़ा आप लगा सकते हैं। 

— डॉ. सत्यवान सौरभ

साहित्य किसी भी देश और समाज का दर्पण होता है। इस दर्पण को साफ़-सुथरा रखने का काम करती हैं वहाँ की साहित्य अकादमियाँ। लेकिन सोचिये क्या होगा? जब देश या राज्य का आईना सही से काम न कर रहा हो तो वहाँ की सरकार पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। जी हाँ, ऐसा ही कुछ हो रहा है देश के राज्यों की साहित्य अकादमियों में। किसी भी राज्य की साहित्य अकादमी के अध्यक्ष होते हैं राज्य के मुख्यमंत्री। मुख्यमंत्री जिस संस्था के अध्यक्ष हों वही संस्था अगर सही से काम न करे तो बाक़ी संस्थाओं की स्थिति का अंदाज़ा आप लगा सकते हैं। 

आज हम देखते हैं कि अधिकांश साहित्य और कला अकादमियों के मंच पर पुरस्कृत होने वाले लोगों में अधिकतर को कोई जानता भी नहीं है। यह सच है कि आज जितनी राजनीति में राजनीति है उससे अधिक राजनीति साहित्य और कलाओं में है। प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे जलने वाली मशाल कहा था। लेकिन देश भर में आज साहित्य राजनेताओं के पीछे चल रहा है। पिछले दशकों में हुए साहित्य, संस्कृति और भाषा के पतन का असर आगामी पीढ़ियों तक जाएगा। लेकिन किसे फ़िक्र है? राज्य अकादमी पुरस्कारों की वार्षिक गतिविधियाँ संदिग्ध हैं। जो कार्य एक वर्ष में पूर्ण होने चाहिएँ उनको करने में सालों लग रहे हैं। पुरस्कारों के लिए मूल्यांकन प्रक्रिया स्पष्ट और समयानुसार नहीं है। उदाहरण के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी के वार्षिक परिणामों की घोषणा का साल ख़त्म होने को है, मगर अभी तक नहीं हुई है। न ही आगामी साल का प्रपत्र जारी किया गया है। एक अकादमी के भीतर क्या-क्या खेल चलते हैं? पारदर्शिता के अभाव में किसी को पता नहीं चलता। 

वैसे कोई भी पुरस्कार या सम्मान उत्कृष्टता का पैमाना नहीं हो सकता। हिंदी भाषा में निराला, मुक्तिबोध, फणीश्वरनाथ रेणु, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव, असगर वजाहत जैसे महत्त्वपूर्ण कवियों-लेखकों को भी साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया गया और बहुत से ऐसे लेखकों को पुरस्कृत किया गया, जिन्हें कभी का भुलाया जा चुका है। इस बारे में विचार करना चाहिए और पुरस्कार की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाना चाहिए। आज जिस प्रकार से सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त करने के लिए कुछ योग्य एवं अयोग्य साहित्यकार, कवि, लेखक, कलाकार साम-दाम-दण्ड-भेद सब अपना रहे हैं और अपने प्रयासों में प्रायः सफल भी हो रहे हैं, उससे सम्मानों और पुरस्कारों के चयन की प्रक्रिया की विश्वसनीयता और पारदर्शिता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। पुरस्कारों की दौड़ में साहित्य का भला नहीं हो सकता। 

“पुरस्कारों की दौड़ में खोकर, 
भूल बैठे हैं सच्चा सृजन। 
लिख के वरिष्ठ रचनाकार, 
करते हैं वो झूठा अर्जन॥
मस्तक तिलक लग जाए, 
और चाहे गले में हार। 
बड़े बने ये साहित्यकार!” 

आज साहित्य और कला जगत में बहुत सी संस्थाएँ काम कर रही हैं। जब मैं इन संस्थाओं की कार्यशैली देखता हूँ या इनके समारोहों से जुड़ी कोई रिपोर्ट पढ़ता हूँ तो सामने आता है एक ही सच। और वो सच ये है कि किसी क्षेत्र विशेष या एक विचाधारा वाली संस्थाएँ आपस में अग्रीमेंट करके आगे बढ़ रही हैं। ये एग्रीमेंट यूँ होता है कि आप हमें सम्मानित करेंगे और हम आपको। और ये सिलसिला लगातार चल रहा है अख़बारों और सोशल मीडिया पर सुर्ख़ियाँ बटोरता है। ख़ासकर ये ऐसी ख़बर शेयर भी ख़ुद ही आपस में करते हैं। आम पाठक को इससे कोई ज़्यादा लेना-देना नहीं होता। अब बात करते हैं सरकारी संस्थाओं और पुरस्कारों की। इनकी सच्चाई किसी से छुपी नहीं। जिसकी जितनी मज़बूत लाठी, उतना बड़ा तमगा। सिफ़ारिशों के चौराहों से गुज़रते ये पुरस्कार पता नहीं, किस को मिल जाये। किसी आवेदक को पता नहीं होता। इनकी बन्दर बाँट तो पहले से ही जगज़ाहिर है। ऐसे पुरस्कारों की विश्वसनीयता को लेकर देश भर में गंभीर आरोप लग रहे हैं। सच्चा रचनाकार इनके चक्कर में कम ही पड़ रहा है। 

“अब चला हाशिये पे गया, 
सच्चा कर्मठ रचनाकार। 
राजनीति के रंग जमाते, 
साहित्य के ये ठेकेदार॥
बेचे कौड़ी में क़लम, 
हो कैसे साहित्यिक उद्धार। 
बड़े बने ये साहित्यकार!” 

आज संस्थाएँ एक दूजे की हो गयी है। एक दूसरे को सम्मानित करने और शॉल ओढ़ाने में लगी हैं। सरकारी पुरस्कार बन्दर बाँट कहें या लाठी का दम। जितनी जान-पहचान उतना बड़ा तमगा। ये प्रमाण पुरस्कार विजेताओं की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं। आज देशभर की साहित्य अकादमियाँ पद और पुरस्कारों की बंदर बाँट करने में लगी है। अधिकांश अकादमियों के कामकाज को देखकर तो यही लगता है। जब तक विशेषज्ञता के क्षेत्र में राजनीतिक नियुक्तियाँ होती रहेंगी तब तक ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहेंगी। सिविल सेवा कमिशन और प्रदेशों की अकादमी में सदस्यों और अध्यक्षों की राजनीतिक नियुक्तियों ने इन संस्थाओं की विशेषज्ञता पर प्रश्न चिह्न लगाए हैं। पिछले दशकों में पुरस्कारों की बंदर बाँट कथित साहित्यकारों, कलाकारों और अपने लोगों को प्रस्तुत करने के लिए विशेष साहित्यकार, पुरोधा कलाकार, साहित्य ऋषि जैसी कई श्रेणियाँ बनी है। जिसके तहत विभिन्न अकादमियाँ एक दूसरे के अध्यक्षों को पुरस्कृत कर रही हैं और निर्णायकों को भी सम्मान दिलवा रही हैं। इन पुरस्कारों में पारदर्शिता का अभाव है। बिना साधना के कैसा साहित्य? 

“देव-पूजन के संग ज़रूरी, 
मन की निश्छल आराधना॥
बिना दर्द का स्वाद चखे, 
न होती पल्लवित साधना॥
बिना साधना नहीं साहित्य, 
झूठा है वो रचनाकार। 
बड़े बने ये साहित्यकार!” 

अब समय आ गया है कि देश की सभी राज्य अकादमियों को केंद्रीय साहित्य अकादमी की तरह सचमुच स्वायत बनाया जाए और इनका काम पूरी तरह से साहित्यकारों, कलाकारों को सौंपा जाए। किसी भी अकादमी के वार्षिक कार्यों की प्रगति समयानुसार और पूरी तरह पारदर्शी बनाने पर ज़ोर देना होगा ताकि सच्चे साहित्यकारों का विश्वास उन पर बना रहे। 

उदाहरण के लिए हरियाणा हिंदी साहित्य अकादमी के वार्षिक पुरस्कारों की घोषणा जिसका राज्य के साहित्यकार बेसब्री से इंतज़ार करते हैं, के वर्ष 2022 के परिणाम अभी 2024 में भी जारी नहीं हुए हैं। इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि समाज को आईना दिखाने वाले किस क़द्र सोये पड़े हैं। हरियाणा हिंदी साहित्य अकादमी हर वर्ष 12 से अधिक साहित्यिक पुरस्कार जिसमें एक लाख से सात लाख तक की पुरस्कार राशि दी जाती है और श्रेष्ठ कृति के अंतर्गत पद्रह सोलह विधाओं में 31-31 हज़ार रुपये की राशि सम्मान स्वरूप प्रदान करती है। इन पुरस्कारों के अलावा वर्ष भर की श्रेष्ठ पांडुलिपियों को चयनित कर उन्हें प्रकाशन अनुदान प्रदान करती है। लेकिन हरियाणा में सरकारी भर्तियों की तरह ये भी बड़ा दुखद है कि जो परिणाम अगस्त में घोषित होने थे; वो अगले साल कि जनवरी बीत जाने के बाद भी नहीं घोषित किये गए न ही साल 2023 का प्रपत्र जारी किया गया जिसमें आने वाले साल के लिए साहित्यकारों को आवेदन करना होता है; आख़िर क्यों? 

उम्मीद है कि राज्य सरकारें अकादमियों के वर्तमान विवादास्पद कार्यों की जाँच कराएगी और अकादमी में योग्य और प्रतिभाशाली लेखक, कलाकारों को नियुक्त करेगी। ताकि देश भर पर भाषा, साहित्य और संस्कृति नित नए आयाम गढ़ती रहे। 

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