दोहरे सत्य
डॉ. सत्यवान सौरभ
कहाँ सत्य का पक्ष अब, है कैसा प्रतिपक्ष।
जब मतलब हो हाँकता, बनकर ‘सौरभ’ अक्ष॥
बदला-बदला वक़्त है, बदले-बदले कथ्य।
दूर हुए इंसान से, सत्य भरे सब तथ्य॥
क्या पाया, क्या खो दिया, भूल रे सत्यवान।
क़िस्मत के इस केस में, चलते नहीं बयान॥
रखना पड़ता है बहुत, सीमित, सधा बयान।
लड़ना सत्य ‘सौरभ’ से, समझो मत आसान॥
कर दी हमने ज़िन्दगी, इस माटी के नाम।
रखना ये सँभालकर, सत्य तुम्हारा काम॥
काम निकलते हों जहाँ, रहो उसी के संग।
सत्य यही बस सत्य है, यही आज के ढंग॥
चुप था तो सब साथ थे, न थे कोई सवाल।
एक सत्य बस जो कहा, मचने लगा बवाल॥
‘सौरभ’ कड़वे सत्य से, गए हज़ारों रूठ।
सीख रहा हूँ बोलना, अब मैं मीठा झूठ॥
तुमको सत्य सिखा रही, आज वक़्त की मात।
हम पानी के बुलबुले, पल भर की औक़ात॥
जैसे ही मैंने कहे, सत्य भरे दो बोल।
झपटे झूठे भेड़िये, मुझ पर बाँहें खोल॥
कहा सत्य ने झूठ से, खुलकर बारम्बार।
मुखौटे किसी और के, रहते है दिन चार॥
मन में काँटे है भरे, होंठों पर मुस्कान।
दोहरे सत्य जी रहे, ये कैसे इंसान॥
सच बोलकर पी रहा, ज़हर आज सुकरात।
कौन कहे है सत्य के, बदल गए हालात॥
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