किराये का घर ही नहीं . . . 

15-10-2025

किराये का घर ही नहीं . . . 

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

किराये का घर ही नहीं, 
छूटा-छूटा है बहुत कुछ—
लोग, कोने, बच्चे, पेड़, 
पार्क की बेंच पर बची हँसी, 
खिड़की से झाँकती दोपहरें, 
सब किसी पुराने पते पर रह गए। 
 
दीवारों पर उभर आई थीं उँगलियों की छाप, 
सपनों की धूल में लिपटी तस्वीरें, 
रसोई के कोने में रोटियों की गर्म यादें, 
अब सब किसी और की साँसों में बस गईं। 
 
हर बार घर बदलने के साथ, 
थोड़ा-थोड़ा हम भी बदल जाते हैं—
कुछ रिश्ते डिब्बों में पैक रह जाते हैं, 
कुछ मुस्कुराहटें रास्ते में गिर पड़ती हैं। 
 
कभी सोचता हूँ—
क्या इंसान सच में बसता है किसी घर में? 
या घर बसता है उसके भीतर, 
जहाँ भी जाए, वही किरायेदार बनकर। 

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