वह घाव जो अब तक रिसते हैं

01-06-2025

वह घाव जो अब तक रिसते हैं

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

वो जो शब्दों में ज़हर घोलता है, 
हर नज़रों में संदेह बोता है, 
वही रात की चुप्पी में, 
सिसकती साँसों की पीड़ा को
अपने लज्जित अधरों से चूमता है। 
 
उसकी मर्दानगी का ग़ुरूर, 
जो ऊँचे स्वरों में आँकता है ख़ुद को, 
वही जब एकांत की हथेलियों में, 
तृप्ति की नमी को महसूस करता है, 
तो नतमस्तक हो, 
उसके पैरों से लिपट जाता है। 
 
कितनी अजीब है उसकी दुनिया, 
जहाँ इज़्ज़त की दीवारें, 
बस दिन के उजाले में खड़ी होती हैं, 
रात के अँधेरों में तो वो
सभी सरहदें लाँघ चुका होता है। 
 
उसके शब्दों की कटारें, 
जो हर दिन उसे लहूलुहान करती हैं, 
रात में वही ज़ुबाँ
एक हारे हुए योद्धा की तरह
सिर्फ़ मौन ओढ़ लेती है। 

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