पहलगाम के आँसू
डॉ. सत्यवान सौरभ
वो बर्फ़ से ढकी चट्टानों की गोद में,
जहाँ हवा भी गुनगुनाती थी,
जहाँ नदियाँ लोरी सुनाती थीं,
आज बारूद की गंध बसी है।
वो हँसी जो बाइसारन की घाटियों में गूँजी,
आज चीखों में तब्दील हो गई।
टट्टू की टापों के संग जो चला था सपना,
ख़ून में सना हुआ अब पथरीले रास्ते पर गिरा है।
एक लेफ्टिनेंट— विनय,
जिसने सात फेरे लिए थे पाँच दिन पहले,
अब शहीदों की गिनती में है—
उसकी सुहागन के चूड़े . . . बस बजने से रह गए।
आतंकी आए, बोले—
“मोदी को सिर पे चढ़ाया है!”
गोली चली— न किसी मज़हब की पहचान में,
न किसी उम्र की इज़्ज़त में।
पर्यटक थे—
कुछ दिल्ली से, कुछ चेन्नई से,
कोई विदेशी, कोई पहाड़ी।
पर सब इंसान थे,
और वो क्या थे जो उन्हें मिटा गए?
माँ की मन्नतें . . .
बर्फ़ में लोटतीं लाशों में बिखर गईं।
बच्चों की छुट्टियाँ . . .
अब यादों की क़ब्रगाह बन गईं।
जम्मू ने मोमबत्तियाँ जलाईं,
दिल्ली ने आँसू बहाए।
सरकार ने बैठक बुलाई,
पर पहलगाम अब हमेशा के लिए रोया।
कविता क्या लिखूँ मैं?
जब वादियों में गूँजता हो मातम,
और चिड़ियाँ तक सहमी हों
गुलमर्ग की पगडंडियों में।
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