डॉ. सत्यवान सौरभ के पचास चर्चित दोहे

01-11-2025

डॉ. सत्यवान सौरभ के पचास चर्चित दोहे

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

आज तुम्हारे ढोल से, गूँज रहा आकाश। 
बदलेगी सरकार कल, होगा पर्दाफ़ाश॥
 
छुपकर बैठे भेड़िये, लगा रहे हैं दाँव। 
बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव॥
 
नफ़रत के इस दौर में, कैसे पनपे प्यार। 
ज्ञानी-पंडित-मौलवी, करते जब तकरार॥
 
नई सदी ने खो दिए, जीवन के विन्यास। 
साँस-साँस में त्रास है, घायल है विश्वास॥
 
जिनकी पहली सोच ही, लूट, नफ़ा श्रीमान। 
पाओगे क्या सोचिये, चुनकर उसे प्रधान॥
 
क़र्ज़ ग़रीबों का घटा, कहे भले सरकार। 
सौरभ के खाते रही, बाक़ी वही उधार॥
 
लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात। 
संसद में चलने लगे, थप्पड़-घूसे, लात॥
 
मूक हुई किलकारियाँ, गुम बच्चों की रेल। 
गूगल में अब खो गये, बचपन के सब खेल॥
 
स्याही, क़लम, दवात से, सजने थे जो हाथ। 
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहे फ़ुटपाथ॥
 
चीरहरण को देखकर, दरबारी सब मौन। 
प्रश्न करे अंधराज पर, विदुर बने वो कौन॥
 
सूनी बग़िया देखकर, तितली है ख़ामोश। 
जुगनू की बारात से, ग़ायब है अब जोश॥
 
अंधे साक्षी हैं बनें, गूँगे करें बयान। 
बहरे थामें न्याय की, ‘सौरभ’ आज कमान॥
 
अपने प्यारे गाँव से, बस है यही सवाल। 
बूढ़ा पीपल है कहाँ, गई कहाँ चौपाल॥
 
गलियाँ सभी उदास हैं, पनघट हैं सब मौन। 
शहर गए उस गाँव को, वापस लाये कौन॥
 
पद-पैसे की आड़ में, बिकने लगा विधान। 
राजनीति में घुस गए, अपराधी-शैतान॥
 
नई सदी में आ रहा, ये कैसा बदलाव। 
संगी-साथी दे रहे, दिल को गहरे घाव॥
 
जर्जर कश्ती हो गई, अंधे खेवनहार। 
ख़तरे में ‘सौरभ’ दिखे, जाना सागर पार॥
 
हत्या-चोरी लूट से, काँपे रोज़ समाज। 
रक्त रंगे अख़बार हम, देख रहे हैं आज॥
 
योगी भोगी हो गए, संत चले बाज़ार। 
अबलाएँ मठ लोक से, रह-रह करें पुकार॥

दफ़्तर, थाने, कोर्ट सब, देते उनका साथ। 
नियम-क़ायदे भूलकर, गर्म करे जो हाथ॥

मंच हुए साहित्य के, गठजोड़ी सरकार। 
सभी बाँटकर ले रहे, पुरस्कार हर बार॥
 
कौन पूछता योग्यता, तिकड़म है आधार। 
कौवे मोती चुन रहे, हंस हुए बेकार॥
 
क़दम-क़दम पर हैं खड़े, लपलप करे सियार। 
जाये तो जाये कहाँ, हर बेटी लाचार॥
 
बची कहाँ है आजकल, लाज-धर्म की डोर। 
पल-पल लुटती बेटियाँ, कैसा कलयुग घोर॥
 
राम राज के नाम पर, कैसे हुए सुधार। 
घर-घर दुःशासन खड़े, रावण है हर द्वार॥
 
वक़्त बदलता दे रहा, कैसे-कैसे घाव। 
माली बाग़ उजाड़ते, माँझी खोये नाव॥

घर-घर में रावण हुए, चौराहे पर कंस। 
बहू-बेटियाँ झेलती, नित शैतानी दंश॥
 
वही खड़ी है द्रौपदी, और बढ़ी है पीर। 
दरबारी सब मूक हैं, कौन बचाये चीर॥
 
गूँगे थे, अंधे बने, सुनती नहीं पुकार। 
धृतराष्ट्रों के सामने, गई व्यवस्था हार॥
 
अभिजातों के हो जहाँ, लिखे सभी अध्याय। 
बोलो सौरभ है कहाँ, वह सामाजिक न्याय॥
 
पीड़ित पीड़ा में रहे, अपराधी हो माफ़। 
घिसती टाँगें न्याय बिन, कहाँ मिले इन्साफ़॥
 
न्यायालय में पग घिसे, खिसके तिथियाँ वार। 
केस न्याय का यूँ चले, ज्यों लकवे की मार॥
 
फीके-फीके हो गए, जंगल के सब खेल। 
हरियाली को रौंदती, गुज़री जब से रेल॥
 
बदले आज मुहावरे, बदल गए सब खेल। 
साँप-नेवले कर रहे, आपस में अब मेल॥
 
झूठों के दरबार में, सच बैठा है मौन। 
घेरे घोर उदासियाँ, सुनता उसकी कौन॥

चूस रहे मज़लूम को, मिलकर पुलिस-वकील। 
हाकिम भी सुनते नहीं, सच की सही अपील॥

फ़्रैंड लिस्ट में हैं जुड़े, सबके दोस्त हज़ार। 
मगर पड़ोसी से नहीं, पहले जैसा प्यार॥
 
सौरभ ख़ूब अजीब है, रिश्तों का संसार। 
अपने ही लटका रहें, गर्दन पर तलवार॥
 
अब तो आये रोज़ ही, टूट रहे परिवार। 
फूट-कलह ने खींच दी, आँगन में दीवार॥
 
कब तक महकेगी यहाँ, ऐसे सदा बहार। 
माली ही जब लूटते, कलियों का संसार॥
 
ये भी कैसा प्यार है, ये कैसी है रीत। 
खाया उस थाली करें, छेद आज के मीत॥
 
बना दिखावा प्यार अब, लेती हवस उफान। 
राधा के तन पर लगा, है मोहन का ध्यान॥
 
प्यार वासनामय हुआ, टूट गए अनुबंध। 
बिखरे-बिखरे से लगे, अब मीरा के छंद॥
 
बग़िया सूखी प्रेम की, मुरझाया है स्नेह। 
रिश्तों में अब तप नहीं, कैसे बरसे मेह॥
 
बैठक अब ख़ामोश है, आँगन हुआ उजाड़। 
बँटी समूची खिड़कियाँ, दरवाज़े दो फाड़॥
 
कब गीता ने ये कहा, बोली कहाँ क़ुरान। 
करो धर्म के नाम पर, धरती लहूलुहान॥
 
गैया हिन्दू हो गई, औ' बकरा इस्लाम। 
पशुओं के भी हो गए, जाति-धर्म से नाम॥
 
आधा भूखा है मरे, आधा ले पकवान। 
एक देश में देखिये, दो-दो हिन्दुस्तान॥
 
कैसी ये सरकार है, कैसे हैं क़ानून। 
करता नित ही झूठ है, सच्चाई का ख़ून॥
 
बदले सुर में गा रहे, अब शादी के ढोल। 
दूल्हा कितने में बिका, पूछ रहे हैं मोल॥

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