रिक्त संपादकीय

01-07-2025

रिक्त संपादकीय

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 280, जुलाई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

स्याही की धार थम गई, 
शब्दों ने आत्महत्या कर ली, 
अख़बार का कोना ख़ाली है, 
जैसे लोकतंत्र ने मौन धरा है। 
 
न सेंसर की मुहर लगी, 
न टैंक चले, न हुक्मनामा, 
फिर भी हर क़लम काँप रही है—
शायद डर का रंग बदला है अबकी दफ़ा। 
 
जो लिखता है, वो बिकता है, 
जो चुप है, वही अब ज़िंदा है, 
सच की छपाई महँगी है, 
और झूठ पैकेज में फ़्री मिलता है। 
 
संपादकीय अब रिक्त क्यों है? 
क्योंकि सवाल पूछना अपराध है, 
और जवाब—
वो अब प्रेस रिलीज़ में आता है। 
 
ये चुप्पी, बस चुप्पी नहीं, 
ये समय का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है, 
जिस दिन बोलने की हिम्मत लौटेगी—
शब्द शायद माफ़ न करें। 

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