मेहमान

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

पाँच की मैगी साठ में ख़रीदी, 
सौदा भी कोई सौदा था? 
खच्चर की पीठ पे दो हज़ार फेंके, 
इंसानियत भी कोई इरादा था? 
 
बीस के पराठे पर दो सौ हँस कर, 
पचास टिप फोटो वाले को, 
हाउस बोट के पानी में बहा दिए
हज़ारों अपने भूखे प्याले को। 
 
नक़ली केसर की ख़ुश्बू में
अपनी सच्चाई गँवा बैठे, 
सिन्थेटिक शाल के झूठे रेशों में
अपने सपनों को सिलवा बैठे। 
 
इतना लुटे, फिर भी मुस्काए, 
आज जान भी लुटा आए हो, 
और सुनो—
वो फिर भी कहते हैं—
“मेहमान हो, मेहमान हमारे हो!”

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