है हिंदी यूँ हीन

15-09-2025

है हिंदी यूँ हीन

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

बोल-तोल बदले सभी, बदली सबकी चाल। 
परभाषा से देश का, हाल हुआ बेहाल॥
 
जल में रहकर ज्यों सदा, प्यासी रहती मीन। 
होकर भाषा राज की, है हिंदी यूँ हीन॥
 
अपनी भाषा साधना, गूढ़ ज्ञान का सार। 
ख़ुद की भाषा से बने, निराकार, साकार॥
 
हो जाते हैं हल सभी, यक्ष प्रश्न तब मीत। 
निज भाषा से जब जुड़े, जागे अन्तस प्रीत॥
 
अपनी भाषा से करें, अपने यूँ आघात। 
हिंदी के उत्थान की, इंग्लिश में हो बात॥
 
हिंदी माँ का रूप है, ममता की पहचान। 
हिंदी ने पैदा किये, तुलसी ओ’ रसखान॥
 
मन से चाहे हम अगर, भारत का उत्थान। 
परभाषा को त्यागकर, बाँटे हिंदी ज्ञान॥
 
भाषा के बिन देश का, होता कब उत्थान। 
बात पते की जो कही, समझे वही सुजान॥
 
जिनकी भाषा है नहीं, उनका रुके विकास। 
परभाषा से होत है, हाथों-हाथ विनाश॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

दोहे
कविता
लघुकथा
कहानी
ललित निबन्ध
साहित्यिक आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सांस्कृतिक आलेख
किशोर साहित्य कविता
काम की बात
पर्यटन
चिन्तन
स्वास्थ्य
सिनेमा चर्चा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें