स्वार्थ की सिलवटें

01-06-2025

स्वार्थ की सिलवटें

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 278, जून प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

चेहरों पर मुस्कानें हैं, 
पर दिलों में दूरी है। 
रिश्ते हैं बस नामों के, 
हर सूरत ज़रूरी है। 
 
हर एक ‘कैसे हो’ के पीछे, 
छुपा होता है सवाल, 
“तुमसे क्या हासिल होगा?”
नहीं दिखता कोई हाल। 
 
ईमान यहाँ बोली में है, 
नीलाम हर मज़बूरी है। 
जो बिक न सका आज तलक, 
कल उसकी मजबूरी है। 
 
धर्म, जात, सियासत सब, 
अब सौदों की भाषा है, 
बिकते हैं आदर्श यहाँ, 
जैसे रोज़ की आशा है। 
 
माँ-बेटा, भाई-बहन, 
अब सम्बन्ध नहीं भाव हैं, 
वसीयत के दस्तख़त बनकर, 
टूट गए जो चाव हैं। 
 
जब तक मतलब चलता है, 
तब तक ‘तू मेरा अपना’, 
जैसे ही बोझ बने, 
कहते हैं, “अब तू सपना।” 
 
पर कहीं किसी कोने में, 
अब भी कोई रोता है। 
बिना मतलब, बिना चाहत, 
किसी को बस खोता है। 
 
शायद वहीं से जन्म होगा, 
फिर से रिश्तों का मौसम, 
जहाँ दिल से दिल मिलेंगे, 
न हो कोई सौदा हरदम। 

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