कैसे उड़े अबीर

15-03-2025

कैसे उड़े अबीर

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 273, मार्च द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

फागुन बैठा देखता, ख़ाली है चौपाल। 
उतरे-उतरे रंग है, फीके सभी गुलाल॥
 
सजनी तेरे संग रचूँ, ऐसा एक धमाल। 
तुझमे ख़ुद को घोल दूँ, जैसे रंग गुलाल॥
 
बदले-बदले रंग है, सूना-सूना फाग। 
ढपली भी गाने लगी, अब तो बदले राग॥
 
मन को ऐसे रंग लें, भर दें ऐसा प्यार। 
हर पल हर दिन ही रहे, होली का त्यौहार॥
 
फ़ौजी साजन से करे, सजनी एक सवाल। 
भीगी सारी गोरियाँ, मेरे सूने गाल॥
 
आओ सजनी मैं रँगूँ, तेरे गोरे गाल। 
अनायास होने लगा, मनवा आज गुलाल॥
 
बढ़ती जाए कालिमा, मन-मन में हर साल। 
रंगों से कैसे मलें, इक दूजे के गाल॥
 
स्वार्थ रँगी जब भावना, रही मनों को चीर। 
बोलो 'सौरभ' फाग में, कैसे उड़े अबीर॥
 
सूनी-सूनी होलिका, फीका-फीका फाग। 
रहा मनों में हैं नहीं, इक दूजे से राग॥

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