त्याग के साये में जन्मा अहम

01-09-2025

त्याग के साये में जन्मा अहम

डॉ. सत्यवान सौरभ (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

घर के आँगन में पीपल का पुराना पेड़ ख़ामोशी से खड़ा था। उसकी छाँव में खेलते हुए बीते साल जैसे किसी पुराने संदूक में बंद पड़े थे। इस घर की दीवारों ने न जाने कितनी कहानियाँ देखी थीं—हँसी की, आँसुओं की, त्याग और उपेक्षा की। 

बड़े बेटे ने महज़ छठी कक्षा से ही घर का बोझ अपने कंधों पर उठा लिया था। पिता का स्वभाव ऐसा कि घर के कामों में कोई स्थायी हाथ बँटाना उनकी आदत में नहीं था। न कोई बड़ा सपना, न कोई मेहनत से आगे बढ़ने की चाह। उस उम्र में, जब बाक़ी बच्चे अपनी पढ़ाई और खेलों में मग्न होते हैं, उसने ट्यूशन पढ़ाकर ख़ुद की पढ़ाई भी पूरी की और छोटे भाई की भी। 

बहनों की पढ़ाई के लिए जितना सम्भव हो सका, उसने पैसे जुटाए। कपड़े, किताबें, फ़ीस—हर ज़रूरत में वह आगे खड़ा था। शादी के बाद उसकी पत्नी भी इस ज़िम्मेदारी में बराबर की साझेदार बनी। वह न सिर्फ़ अपने घर की ज़िम्मेदारी निभाती, बल्कि ननदों को उनके घर जाकर पढ़ाती, उन्हें अपने साथ कोचिंग ले जाती। 

घर की छोटी-बड़ी ज़रूरतों के लिए बड़े की नौकरी और उसकी पत्नी के पैसों पर ही घर चलता रहा। पत्नी के फ़िक्स्ड डिपॉज़िट तक घर के ख़र्च में लग गए। जब उसकी पत्नी की भी नौकरी लगी, तब भी उनकी पूरी तनख़्वाह घर की उन्नति में लगती रही। 

कई सालों बाद बड़ा भाई नौकरी में स्थिर हुआ। उसने घर का सपना सजाया—नया मकान बनवाया, एक पुरानी गाड़ी ख़रीदी ताकि घर के काम आसानी से हों। लेकिन गाड़ी का इस्तेमाल भी ज़्यादातर छोटा ही करता। यहाँ तक कि जब उसकी पत्नी गर्भवती थी, तब भी छोटा गाड़ी लेकर चला जाता और भाभी बस से ड्यूटी जाती। बड़ा भाई ख़ुद किसी और के साथ काम पर जाता। 

सालों का यह त्याग, मानो बिना किसी शर्त का कर्ज़ था, जो कभी चुकाया नहीं जा सका। बेटे के जन्म के बाद भी न सास-ससुर, न ननद और न ही देवर ने बच्चे का ध्यान रखा। दोनों पति-पत्नी ड्यूटी करते और बच्चा पिता की गोद में पलता। 

समय बदला। छोटा भाई भी नौकरी में लग गया। शादी हुई, उसकी पत्नी भी नौकरी में थी। घर का कर्ज़ चुकाने के बजाय दोनों ने नई गाड़ी ख़रीद ली। जबकि बड़े भाई की पत्नी को उसके मायके से जो पैसे गाड़ी के लिए मिले थे, वो भी इस घर को आगे बढ़ाने में ख़र्च हो चुके थे। 

सबसे चुभने वाली बात यह थी कि बहनों की पढ़ाई और ज़रूरतों के लिए सालों तक सब कुछ देने के बाद भी, वे छोटे भाई के पक्ष में रहीं। जैसे बड़े का हर त्याग, हर मेहनत किसी पुराने कपड़े की तरह बेमानी हो गया हो। 

अब घर का माहौल बदल चुका था। छोटा भाई और उसकी पत्नी के बीच अहम का भाव बढ़ चुका था। बातें तानों में बदल गई थीं, और ताने अपमान में। कभी-कभी तो छोटे का ग़ुस्सा हाथ तक पहुँच जाता। सास-ससुर भी इस पर चुप रहते। 

बड़ा भाई अब अपने बेटे और पत्नी के साथ ही अपनी छोटी-सी दुनिया में सीमित हो चुका था। पर एक अजीब-सी ख़ामोशी उसके भीतर घर कर गई थी—वह ख़ामोशी, जो सिर्फ़ वही समझ सकता था, जिसने सालों तक दूसरों के लिए अपना सब कुछ दे दिया हो और बदले में सिर्फ़ दूरी पाई हो। 

दुख इस बात का नहीं था कि मेहनत का प्रतिफल नहीं मिला, बल्कि इस बात का था कि जिनके लिए जीवन का हर पल खपा दिया, उन्होंने ही मुँह मोड़ लिया। बहनों की पढ़ाई के लिए जो त्याग किया, उन्हें अपने घर तक पढ़ाया, वे भी चुपचाप छोटे के साथ खड़ी रहीं। बड़े के बेटे के जन्म के बाद भी किसी ने उसका ध्यान नहीं रखा— न दादी ने, न बुआओं ने, न चाचा-चाची ने। बड़ा ख़ुद बेटे को सँभालता और दोनों पति-पत्नी नौकरी पर जाते। 

समय का चक्र घूमता रहा, पर एक सच्चाई स्थिर रही—वह किशोर, जिसने छठी कक्षा से घर सँभालना शुरू किया था, आज भी अपने कर्त्तव्य से पीछे नहीं हटा। बस अब उसने उम्मीद करना छोड़ दिया था। 

एक रात, बरसों के घुटे हुए दर्द के बाद, उसने पत्नी से कहा—“शायद ग़लती हमारी ही थी . . . हमने सोचा था कि ख़ून का रिश्ता सबसे बड़ा होता है। पर असल में, समझ और सम्मान ही रिश्तों को जीवित रखते हैं।” 

पत्नी ने बस उसका हाथ थाम लिया। आँसुओं से भरी आँखों में कोई शिकवा नहीं था, बस एक दृढ़ता थी—
“अब हम अपने बेटे को ये सिखाएँगे कि इंसानियत पहले, रिश्ते बाद में।” 

आँगन में हवा चल रही थी। दूर मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं। घर वही था, लोग वही थे, पर बड़ा भाई अब भीतर से बदल चुका था। वह जान चुका था कि त्याग का फल हमेशा आभार नहीं होता— कभी-कभी बस चुप्पी और दूरी मिलती है। 

एक शाम, जब घर के आँगन में पीपल की पत्तियाँ सरसराईं, बड़ा भाई चुपचाप अपने बेटे को गोद में लेकर बैठा था। बेटा मासूमियत से पूछ बैठा, “पापा, आप हमेशा इतने चुप क्यों रहते हो?” 

बड़े ने हल्की मुस्कान दी, पर भीतर का दर्द आँखों में उतर आया। उसने बस इतना कहा, “कभी-कभी बेटा, चुप रहना सबसे बड़ी ताक़त होती है।” 

पीपल का पेड़ उस शाम और भी स्थिर हो गया था। जैसे उसने भी यह वादा कर लिया हो कि वह इस घर के त्याग की छाया को हमेशा सँजोकर रखेगा—चाहे लोग भूल जाएँ, पर हवा की हर सरसराहट में वह कहानी ज़िंदा रहेगी। 

1 टिप्पणियाँ

  • 5 Sep, 2025 02:23 PM

    घर घर की कहानी। डॉ. प्रियंका सौरभ की इसी अंक में प्रकाशित कहानी 'दस दिन का अहम' में भी एक बड़े भाई की यही दयनीय मनोस्थिति शब्दशः दर्शाई गई है। साधुवाद।

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