वैसे तो किसी के पास "मन" दस–बीस नहीं होता, सो अपने पास भी नहीं है।\
ले-दे के, पैदाइशी एक है जो, ज़रा सा भी कच्चे में उतरना नहीं चाहता।
\ऐशो-आराम का "तलबी" है कमबख़्त ....।
ज़रा सी गडबड हुई नहीं कि उदास हो जाता है।
कोप भ्वन में जाने का रिकार्ड, कैकेई माता के बाद मानो इसी का है।
अब की बार इस दिल को जो शिकस्त मिली है, वो तो पूरे पाँच साल वाली चोट है।
उबर पायेंगे कि नहीं कह नहीं सकते?
आप तो ख़ुद जानते हैं, राजनीति में "मुग़ालते" पालना एक ऐसी घुट्टी है, जो हर कोई राजनीति में आने के "डे-वन" से पिए रहता है।
ग़ौर करने वाली बात है, आपके पास अपनी कोई "शख़्सियत" नहीं, मगर पार्टी के दम में दहाड़ के, अच्छे-अच्छों की बोलती बंद किये रहते हैं।
वे जो दिग्गज नेता हैं जिनके बारे में पता होता है कि वे घर में भी बैठे तो जीत जायेंगे। मगर वही दिग्गज पार्टी से दरकिनार कर दिए जाते हैं तो मानो उनकी कलई खुल जाती है। ज़मानत बचने-बचाने के लाले पड़े दिखते हैं।
मुग़ालता, हम भी पाले बैठे थे...?
हमारे चमचों ने, कहाँ–कहाँ से आंकड़े ला के दिए, लगा हम दमखम से पार्टी के साथ कुर्सी हथिया रहे हैं। मिनिस्ट्री बन रही है। शपथ लिए जा रहे हैं।.......आंकड़े खुले तो चारों खाने चित्त।
सपने में नहीं सोचे थे कि सींकिया पहलवान छाप बीड़ी जैसे लोग, हम खाते-पीते हुए "चुरुटों" पर भारी पड़ेंगे।
ऐसा विचित्र किन्तु भ्रामक तथ्य बस फिल्मों में होते पाया जाता था।
ख़ैर अभी....मन जो है .....टुकड़े-टुकड़े है ....क्या करें कुछ समझ में नहीं आता?
"मन" में जोड़ लगाने वाला फेवीकल, क्विकफिक्स कहीं इजाद हुआ हो तो कहो?
ऐ भाई साहब.....!!!
हमको मन में जोड़ लगाना है, दो टूटे सिरों को गाँठ बाँध के जोडना नहीं है .....आप भी एकदम शार्टकट वाली पे आ जाते हो?
वैसे मन को टेम्परेरी तौर पर जोड़ने के, लोकल टाइप नुस्खे आज़माने में, कई "आदम" जात लोग, "बोतल" या "हव्वा" की तरफ ताक-झाँक करते पाऐ जाते हैं।
हम जैसे "संस्कारी" लोग जाए तो जाए कहाँ ...?
हारने का दंश है....। नाग का डसा है....., ज़ख़्म गहरा है.....।
कहने को आम धारणा तो है, ये धीरे-धीरे उतरेगा –आप ही आप चला जाएगा ...?
न जाने क्यों हमारी छठी इन्द्रिय, इलेक्शन के बीच-बीच में जवाब दिए जा रही थी, अब की बार "बालिंग" ठीक नहीं हो रही है जनाब सम्हलो ....!
हमने दस-बीस साल पहले के सठियाये हुए पार्टी के धुरंधरों को बतलाने की कोशिशें कीं, माजरा खुल के समझाना चाहा। वे हमे आलाकमान तक खुलने नहीं देते थे सो अनसुनी करते रहे...।
”बाल” बल्ले के बीचों-बीच नहीं आ रहा है, शायद "पिच" बनाने वाले ने गडबड की है, मैच हाथ से निकला सा दिख रहा है। हमारी बात ऊपर, "रुई मास्टरों की फौज" में दब के रह गई? उल्टे हमीं पे सैबोटाज वाला इल्ज़ाम लगा के इलेक्शन बाद सस्पेंड करवाने, और देख लेने की जुगत में रहे भाई लोग।
हमारा मन इस वजह से खट्टा ज़रूर हुआ, मगर इलेक्शन मझधार में फटा नहीं।
अपना गनपत, ख़बर निकाल के लाया था कि हमें हरवाने में हमारी पार्टी के दिग्गज ही एक हो लिए थे?
उनको लगा कि हम जीते तो मिनिस्ट्री पक्की। हमारी मिनिस्ट्री यानी मुन्नाफ़े की संभावनाएँ भी हमारी।
आजकल दूसरे की थाली को सजते हुए देखने का रिवाज मानो ख़त्म सा हो गया है।
खेल कैसा भी हो, जो जीत रहा हो उसका बिगड़ना चाहिए।
न खायेंगे न खाने देंगे वाली मानसिकता का नारा उछल गया है।
बिलकुल नज़दीकी लो ग्टाँग खींचे रहते हैं क्या करें?
हमारे पास हमारे जीतने के बहुत से कारण और आंकड़े थे। गोया; हमने बाढ़ में, गाँव में फँसे लोगों की मदद की। राशन–पानी, टेंट, दवा दिलवाया। फसल बीमा का मुआवजा दिलवाया। मुरूम वाली सड़क को कोलतार वाली बनवाया। जिसमें ठेकेदार ने मुरूम पे सिर्फ कोलतार की पेंट चढ़ा दी लोग उसे न पकड़ के मुझ पे इल्ज़ाम थोप दिए। जनतंत्र में जनता की बात मानी जावे ये सोच के हम बोल नहीं पाए। (दिल यहाँ भी क्रेक हुआ।) गौरव पथ नाम के कई सड़कों का जीर्णोद्धार किया, तब जाके कुछ दिनों के लिए वे अपना नाम सार्थक कर सके। हम अपनी बिरादरी के लोगों को सायकल स्टेंड, मुफ्त रिक्शे, बच्चियों को सायकल, बच्चों को लेपटाप और न जाने क्या-क्या बाँटे। पाने वाले ज़्यादा बता सकते हैं।
इस पर भी हमें हारना लिखा था ....? धिक्कार है .....?
लानत है ऐसे "माहौल" को या जाहिल, गंवार, नासमझ, जनता को, जो, मायाजाल, छलावा, लालच और भ्रम में जीने के लिए कुंठित हो गई है?.....
दिल टूटा है भाई! कह लेने दो !
ऐसे ही बस जी हल्का करने की फिराक में रहता हूँ। मुझे ख़ुदा के वास्ते रोको मत ......