अधूरी मित्रता!
अभिषेक पाण्डेयमैट्रिक स्कूल की घंटी बजी टन-टन टनाटन टन-टन-टन। प्रधानाचार्य जी ने छुट्टी की घोषणा की। दिन भर के ऊबे छात्रों को तो जैसे मोक्ष मिल गया, वे सर पर पैर रख कर भागे मानो कोई बलि का बकरा गला छुड़ाकर भगा हो। उनका आनंद इस समय परमानन्द से भी शायद ऊपर था जो एक योगी कठोर साधना और ध्यान के बाद अनुभव करता है। आज वार्षिक परीक्षा का अंतिम दिन था और कल से गर्मियों की छुट्टियाँ आरम्भ होने वाली थी इसीलिए आज छात्र ऐसे उन्मत्त हो रहे थे जैसे कोई योद्धा अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी को परास्त करने के बाद होता होगा। पैदल छात्रों का दल पूरी सड़क को आच्छादित किये हुए एक दूसरे के गले में हाथ डाले हुए चल रहा था। आम जनमानस उनसे एक साइड से चलने की गुहार लगा रहे थे पर वे एक कान से सुन रहे थे और दूसरे से निकाल रहे थे। साइकिल सवार छात्र मार्ग में उनसे आगे जाने वाले वाहनों को अपनी गति से मात दे रहे थे, और पूरी सड़क में साइकिल लहरा रहे थे। निचले दर्जे वाले छात्र अध्यापकों के तमाम चिढ़ाने वाले नामों का अविष्कार कर रहे थे और पुराने नामों का संशोधन कर रहे थे, कुछ छात्र नव निर्मित नामों को ऊँचे दर्जों में पढ़ने वालों को बता रहे थे।
रमेश और मोहन दोनों मैट्रिक अंतिम वर्ष के छात्र थे, बचपन से साथ-साथ पढ़े थे पर अब रमेश के घर वाले उसे मैट्रिक के बाद बाहर शहर के किसी कॉलेज में दाख़िल करना चाह रहे थे। मोहन का बाप ग़रीब था, वह पल्लेदारी का काम करता था, उसकी समाई तो मोहन को शहर भेजने की थी ही नहीं। नैराश्य और विरह की दुखद कल्पना से आक्रांत होकर स्कूल के बाहर ही एक पेड़ के नीचे दोनों बैठ गए। वे दोनों इन अंतिम क्षणों की स्मृतियों को सहेज लेना चाहते थे।
“आज तो हम लोगों का अंतिम दिन आ ही गया। मेरे पापा कल ही मुझे शहर के किसी कॉलेज में दाख़िला दिलाने ले चलेंगें। फिर अपनी दोस्ती का क्या होगा?” इतना कहते कहते रमेश की आँखों में आँसू आ गए।
“हाँ, तेरे बिना मेरा भी यहाँ जी एकदम ना लगेगा। पर मेरे बापू के पास इतना पैसा तो है नहीं, वो तो बेचारे मुझे जैसे-तैसे पढ़ा रहे हैं। यहाँ तो कभी-कभी तेरा टिफ़िन खाकर पेट भर जाता था नहीं तो हमें तो पेट भर खाना भी मयस्सर नहीं होता। वहाँ हॉस्टल तो होगा ही न, नए-नए दोस्त बन जाएँगे,” मोहन एक लम्बी साँस छोड़ते हुए बोला।
बालपन की मित्रता कभी स्वार्थी नहीं हो सकती, वो भविष्य की दीनता देखकर भी लीक से विचलित नहीं होती।
“हॉस्टल तो है यार पर अब तुम्हारे जैसा दोस्त हर जगह थोड़े ही मिल सकता है। पर जाना तो पड़ेगा ही, पिताजी की ज़िद है,” रमेश निराश होकर बोला।
परिवर्तन प्रकति का नियम है, पर परिवर्तन फल बाद में सुखद लगता है, आरम्भ में नहीं। मानव का स्वभाव है कि वह साक्षात् वेदना को देखकर भी सुखद कल्पनाएँ करना नहीं छोड़ता। वह निराशा को ज़्यादा से ज़्यादा समय तक किसी आशा का अवलम्बन देकर टाल देना चाहता है। पर वो विधाता तो है नहीं।
सहसा मौन फिर टूटा, और रमेश पुरानी स्मृतियाँ याद करने लगा।
“यार, यहाँ के दिन कितने अच्छे और मधुर थे। दिन-दिन भर हम लोग स्कूल की चारदीवारी लाँघकर बाहर घूमा करते थे। एक दुसरे का टिफ़िन भी खा लेते थे, जात और धर्म की दीवारें न थी। लड़कियों को भी ख़ूब काग़ज़ फेंककर परेशान करते थे। कैसे वो बिल्लियों की तरह खीझतीं थीं,” इतना कहकर दोनों के ठहाकों से वातावरण गूँज उठा।
जब हम भाव से भर जाते हैं, तो शब्द अपने आप ही निकल जाते हैं।
“और तुम्हें वो याद है जब एक बार शरत मास्टर जी की क्लास में सबने मिल कर शोर मचाया था, पर वो जान न पाये थे, फिर सबको मुर्गा बनाया था,” मोहन हँसकर बोला।
इस तरह शांत वातावरण बहुत देर तक किलकारियों से गूँजता रहा। इस तरह स्मृतियों की मिठास लेते-लेते संध्या हो गयी। वातावरण में पुनः विरह की वेदना छाने लगी। दोनों मित्र एक बार फिर गले मिले, आँखें छलछला उठीं, आँसुओं से दोनों की वेदना बह निकली। उनकी आँखों के कोनों से कुछ बूँदें टपक कर भूमि पर छिटक गयीं। दोनों मित्र एक दुसरे को अलविदा कहकर जीवन के दो भिन्न भिन्न पथों पर चल निकले। परिवर्तन ने मित्रता की पूर्णता को अधूरा कर दिया। वातावरण में मानो एक उदास गूँज प्रतिध्वनित हो रही थी—अधूरी मित्रता!
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