पर स्वयं ही समझ न पाया
हेमन्त कुमार शर्मा
गहरी कही थी बात,
पर स्वयं ही समझ न पाया।
बहरा बन कर जीना होगा,
आँखों के रहित दिखना होगा,
वाणी को मूक रहना होगा,
नदी में तृण सा बहना होगा,
ऊँचों को सदा सही कहना होगा।
शब्दों का टोटा पड़ा फिर से,
अपनों की ग़लती से उलझ न पाया।
सब रंग मिटा देंगे अपनेपन के,
ग़रीबी में आते बस सपने धन के,
कहीं चैन नहीं छाने कोने मन के,
सब रंग हुए बेरंग अपने तन के,
टूट गए बिखर गए सपने जन के।
साधारण कठिन हुआ बहुत,
किये कितने प्रयास सुलझ न पाया।
गहरी कही थी बात,
पर स्वयं ही समझ न पाया।
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