एक थका हुआ सच

एक थका हुआ सच  (रचनाकार - देवी नागरानी)

(अनुवादक: देवी नागरानी )
कविता चीख़ तो सकती है

पाकिस्तानी शायरा परवीन शाकिर का एक शेर याद आ रहा है, शब्द शायद अलग हों लेकिन भाव कुछ इस तरह का है : 

मैं सच कहूँगी फिर भी हार जाऊँगी 
वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा। 

परवीन शाकिर का शेर पुरुष प्रधान समाज में सदियों से चला आ रहा नारी के दमन को वाचा देता है। नारी विमर्श की कई कविताएँ हर भाषा में आ रही हैं। हर कविता की अपनी गरिमा होती है, छू जाती है, किंतु कई ऐसी भी होती हैं जिनमें अनुभव कविता बनते बनते रह जाता है। कभी ऐसा भी अनुभव होता है कि कहीं नारी विमर्श की कविताएँ लिखना फैशन तो नहीं बन गया है। ऐसे वातावरण में जब नसों पर झेली हुई, धड़कती कविता सामने आती है तो मन में कोई वाद्य बज उठता है। ऐसा ही अनुभव मुझे हुआ जब मैंने एक और सिंध, पाकिस्तान की कवियित्री अतिया दाऊद का संग्रह "एक थका हुआ सच" के पन्नों को पलटा, जो दरअसल उसकी सिंधी कविता संग्रह ‘अणपूरी चादर’ का देवी नागराणी द्वारा किया हुआ सक्षम हिंदी अनुवाद है। पूरा संग्रह अभिव्यक्ति की सचोटता के कारण पाठक के वजूद को सराबोर करता एक अनोखे भावजगत की सैर कराता है, और रेखांकित करने वाली विशिष्टता यह है कि कहीं भी नारी जीवन की विषमताओं के बीच से गुजरते हुए भाविकों के अंतर में नारी के लिए सहानुभूति नहीं बल्कि सह-अनुभूति जगाता है। 

अतिया दाऊद ने नारी जीवन के प्रत्येक रूप को इतिहास की ऐनक से परखते हुए ऐनक पर रंगीन कांच नहीं लगाए, बिल्कुल पारदर्शिक सफेद, साफ शीशे से वह नारी की हर स्थिति का निरीक्षण करती है, जो उसकी कविता को विश्वसनीय बनाता है। लेकिन इसका अर्थ यह क़तई नहीं है कि उसकी कविताएँ केवल स्थितियों की फोटोग्राफी है। ऐसा हो तो उसकी कविताएँ, कविताएँ नहीं बनतीं, विवरण मात्र बनकर रह जातीं। अतिया उनको अपना एक कलात्मक स्पर्श देती है जिसमें नावीन्य एक तरफ तो दूसरी ओर अभिव्यक्ति की सचोटता है, जिसका हिंदी अनुवाद भी उतना ही सचोट बन पड़ा है, जिसका श्रेय एक बार फिर देवी नागराणी को जाता है : 

मैं सदियों से सहरा से परिचित हूँ 
और जानती हूँ 
यहाँ छाँव का वजूद नहीं होता 

(पृ. 37) 

और तीसरी ओर अतिया की परिपक्व सोच है जो भाषागत औचित्य के साथ मिलकर कविता को अतिरिक्त प्रभावशाली बनाती है : 

रात को जुगनू को पकड़ कर 
बोतल में बंद करके 
सुबह उसे परखने का खेल 
मैंने ख़त्म कर दिया है 
मेरी कहानी जहाँ ख़त्म हुई 
वहीं मेरी सोच का सफर शुरू हुआ है 
पहला शब्द "आगूं-आगूं" उच्चारा था 
तो भीतर की सारी पीड़ा अभिव्यक्त की 
आज भाषा पर दक्षता हासिल करने के बावजूद 
गूँगी बनी हुई हूँ 
तुम्हारा कशकोल (भिक्षा पात्र) देखकर 
अपनी मुफलिसी का अहसास होता है 
बेशक देने वाले से लेने वाले की 
झोली वसीह (विशाल) होते है 
यह राज मुझे समंदर ने बताया है 

(पृ. 40) 

यहाँ "बेशक देनेवाले से लेने वाली की/झोली वसीह होती है/ यह राज़ मुझे समंदर ने बताया है" अभिव्यक्ति अतिया की कल्पना की समृद्धता की ओर इशारा करती है। पुरुष समाज ने नारी को इन्सान के स्थान पर उसे बीवी, वेश्या, महबूबा, रखैल बना डाला, उसे अलग अलग कोणों से देखने की आदत डाल दी, कभी गिद्ध की नजर से गोश्त का ढेर, तो कभी बिल्ली की नजर से ख़ून का तालाब समझ लिया, कभी ऐसा नहीं हुआ कि पुरुष समंदर के दूसरे किनारे को छू ले, जहाँ उसके अंदर जज़्ब होने के लिए स्त्री कतरे (बूँद) के रूप में मौजूद होती है। 

शायद इसी कारण आज की स्त्री पूरे समाज से विद्रोह की मुद्रा में है। अतिया की इस संग्रह की सशक्त कविताओं में "अपनी बेटी के नाम" ऐसी ही एक कविता है जो शताब्दियों से नारी के साथ हुए असीम अन्याय के चलते लावा की तरह फूट पड़ी है : 

अगर तुम्हें ‘कारी’ कहकर मार दें 
मर जाना, प्यार जरूर करना! 
शराफत के शोकेस में 
नक़ाब ओढ़कर मत बैठना 
प्यार जरूर करना! 

(पृ. 33) 

पाकिस्तान हो या भारत, ‘कारी’ (Honour Killing) के क़िस्से अप्रचलित नहीं हैं। कई लड़कियाँ/स्त्रियाँ पगड़ी, मूँछ, टोपी की शान बचाने के नाम पर क़ुर्बान कर दी जाती हैं, बेरहमी से मार दी जाती हैं। जब अतिया की उपर्युक्त कविता सिंधी में छपी थी तो समाज के कई पुलिस वालों को यह कविता चरित्रहीनता का घिनौना उदाहरण लगी थी। अतिया को अवश्य रूढ़िगत समाज के बीच रहते परेशानी झेलनी पड़ी, लेकिन उसने साहस के साथ कविता को अपने से जोड़े रखा। विद्रोह का यह रूप आकस्मिक नहीं है, युगों से अंदर सुलग रही चिंगारी को केवल थोड़ी सी हवा लगी है, आज की स्त्री माँ से यह कहते नहीं हिचकती : 

अम्मा, रस्मों रिवाजों के धागे से बुनी 
तार-तार चुनर मुझसे वापस ले ले 
मैं तो पैबंद लगाकर थक गई कि अपनी बेटी को कैसे पेश करूँगी 
अम्मा बंद दरवाजा, जिसकी कुंडी         
तुम्हें भीतर से बंद करने करने के लिए कहा गया है 
खोल दे, नहीं तो मेरा क़द 
इतना लंबा हो गया है 
कि वहाँ तक पहुंच सकती हूँ... 
चादर के नक़ाबों और बुर्क़े की जाली से 
दुनिया को देखना नहीं चाहती... 

(पृ. 51-52) 

इसी कविता के अंतिम भाग में नारी की अपना बलिदान देने की सहज वृति दृष्टव्य है, अपनी आने वाली नस्लों के हित के लिए : 

बाहर वसीह आसमान के तले, खुली हवा में 
अगर मैं तुम्हें नजर न भी आई 
तो मेरी बेटी या नातिन की 
आजाद आवाज की गूँज तुम जरूर सुनोगी 

(पृ. 52) 

देखा जाए तो इस तरह की कविताएँ अगर थोड़ा भी काव्यात्मकता से हटें तो नारे का रूप ले लेती हैं। और एक नारा भरपूर फेफड़ों से निकली आवाज के बावजूद केवल नारा ही कहलाएगा, कविता नहीं। लेकिन यह अतिया दाऊद की संयमित भाषा प्रयोग ही तथा देवी नागराणी द्वारा उसका दक्षतापूर्ण अनुवाद है, जो इन कविताओं को काव्य-रूप दे सकने में सक्षम हो सका है। इस प्रकार की कवित्व से ओतप्रोत कविताएँ आंदोलन बनने की क्षमता नारे से ज़्यादा रखती हैं--एक उदास सुर के साथ इनमें विद्रोह का ऐसा भाव है जो हृदय से निकला है, बाहर से थोपा हुआ नहीं है, जिया हुआ सच है, भले वह थका हुआ हो, लेकिन हारा हुआ नहीं है। इन कविताओं में लिए हुए हर श्वास की तपन है, यह ऐसी गरमाइश है जिसके आगे पहाड़ मोम बन जाते हैं। 

लेकिन ऐसा नहीं है कि अतिया का समस्त संग्रह विद्रोह की बात करता है। वह केवल स्त्री के समान अधिकार को रेखांकित करना चाहती है, स्त्री-सुलभ प्रेम के स्रोत उसके अंतर में भी कूट कूट भरे हैं, वह केवल स्त्री सम्मान की बात करती है :         

मेरे महबूब, मुझे उनसे मुहब्बत है 
पर मैं, तुम्हारे आँगन का कुआँ बनना नहीं चाहती 
जो तुम्हारी प्यास का मोहताज हो 
जितना पानी उसमें से निकले तो शफाफ 
न खींचो तो बासी हो जाए 
मैं बादल की तरह बरसना चाहती हूँ 
मेरा अंतर तुम्हारे लिए तरसता है 
पर यह नाता जो बंदरिया और 
मदारी के बीच होता है 
मैं वो नहीं चाहती 

(पृ. 57) 

‘मैं बादल की तरह बरसना चाहती हूँ’, नारी हृदय की क्या बात करें, उसका हृदय तो ऐसा ही होता है, वह फैसला करती है कि मैं उससे बात नहीं करूँगी, और फिर उसके फोन कॉल का इन्तजार करती है। इसी जमीन पर लिखी एक दूसरी कविता ‘प्यार की सरहदें’ (पृ. 59) भी ध्यान आकर्षित करती है। आज की स्त्री अपने को इतना सशक्त करना चाहती है कि उसे किसी दीवार के पीछे बंद करना उतना ही असंभव हो जितना धूप को पिंजरे में बंद करना हो। 

स्त्री की विडम्बना यह है कि उसे केवल पुरुष समाज से जूझना नहीं होता, स्त्री जाति से भी होड़ लगी रहती है। सौतन एक ऐसी ही विडम्बना है, जिसमें स्त्री ही स्त्री की शत्रु है : 

घर का एक कोना और तुम्हारा नाम 
इस्तेमाल करने की मेहरबानी ली है 
जन्नत क्या है? जहनुम क्या है? 
मैं नहीं जानती, पर यकीन है कि जन्नत 
विश्वास से बढ़कर नहीं है 
और जहन्नुम सौत के कहकहों से भारी नहीं 

(पृ. 62) 

हम मानते हैं कि कविता हथियार नहीं बन सकती, लेकिन कविता हस्तक्षेप अवश्य कर सकती है, वह चीख़कर ध्यान आकर्षित तो कर ही सकती है। अतिया की भाव-शैली कुछ ऐसी भाषा का चयन कर सकी है जिसमें अनुभव-जो कि उसने जिया है, जो अपने स्व को तथा जीवन को अच्छी तरह समझता है.प्रवाहित होता है, जिसको प्रवाहमय देवी नागराणी के अनुवाद ने भी बनाया है, एक ताजगी भरे हवा के झोंके की तरह। कहना चाहूँगा कि मानव संवेदनशीलता तो वही रहती है, केवल भाषा बदलती है। और भाषा सरल सहज हो तो रचनाकार की कृति कई आकाश छू लेती है। हाँ, यहाँ आँसू दिखते हैं, आँसू भावों के द्योतक होते हैं, और भाव जीवन के चिह्न होते हैं। शीशे टूटते हैं, लेकिन टूटे शीशे ही तो रोशनी के कई अक्स पैदा करने की क्षमता रखते हैं।

वासदेव मोही     

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