सड़क, तुम अब आई हो गाँव

01-11-2025

सड़क, तुम अब आई हो गाँव

डॉ. प्रियंका सौरभ (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

सड़क, तुम अब आई हो गाँव, 
जब सारा गाँव शहर जा चुका है। 
जिन गलियों में बचपन की चीख़ें गूँजती थीं, 
अब वहाँ सन्नाटा बैठा है। 
 
खेत सूने हैं, मेड़ों पर बस घास उगी है, 
न अँगीठी की आँच है, न चूल्हे की गंध। 
बुज़ुर्ग अब भी चौपाल पर बैठे हैं, 
पर सुनने वाला कोई नहीं बचा। 
 
तुम्हारे डामर पर अब कौन चलेगा? 
यहाँ अब न मेले लगते हैं, 
न बारातें निकलती हैं। 
बस कभी-कभी डाकिया आता है, 
और लौट जाता है बिना किसी ख़त के। 
 
कभी तुम आतीं तो गाँव रुक जाता, 
युवाओं के सपनों को पंख लग जाते, 
मिट्टी की ख़ुश्बू शहर तक जाती। 
पर अब जब तुम आई हो सड़क, 
तो मिट्टी की महक भी थक चुकी है। 
 
सड़क, तुम अब आई हो गाँव, 
जब गाँव का दिल शहर बस चुका है। 
अब तुम्हारे दोनों छोरों पर
सिर्फ़ “वापसी की प्रतीक्षा” बाक़ी है।

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