नई परम्परा

01-12-2024

नई परम्परा

प्रियंका सौरभ (अंक: 266, दिसंबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

विजय के पिता जी का स्वर्गवास हो गया था। उनके ख़ानदान में परपरा थी कि स्वर्गवासी के फूलों (अस्थियों) को गंगा जी में विसर्जित किया जाता था। वह अपने पिता की आत्मिक शान्ति के लिए हरिद्वार चल पड़ा। जैसे ही उसने हरिद्वार की भूमि पर क़दम रखे उसके चारों ओर पण्डों की भीड़ जुट गई। ‘हाँ, जी कौन-सी जाति के हो? कहाँ से आए हो? किसके यहाँ जाओगे?’ जैसे-जैसे प्रश्नों की संख्या बढ़ रही थी उसकी दुगुनी गति से पण्डों का हुजूम उमड़ रहा था। पिता की मौत के भार तले दबे विजय ने धीरे से बोलते हुए कहा, “मुझे पण्डित गुमानी राम के यहाँ जाना है।” उसके बड़े-बुजुर्ग कहा करते थे कि गुमानी राम जी उनके ख़ानदानी पण्डित है। 

इतने में भीड़ से एक पण्डे की आवाज़, “आई-आइए मेरे साथ आइए, मैं उनका पौत्र हूँ। मैं ले चलता हूँ आपको गंगा घाट।” आया हुआ पण्डा, विजय के हाथों से अस्थि-कलश लेकर उनके आगे-आगे चल पड़ा और वो उनके पीछे-पीछे। रास्ते में बतियाते हुए पण्डा बोला, “एक हज़ार रुपये दान करना जी अस्थियाँ विसर्जित करने के लिए ताकि दिवंगत आत्मा को शान्ति मिल सके।” 

ऐसी बात सुनकर विजय चौंका तो ज़रूर पर बिना कुछ कहे उसके साथ-साथ चलता रहा। 

पण्डे ने फिर से कहा, “कहो जी दान करोगे ना।” विजय ने उदासी पूर्ण भाव से कहा, “नहीं, मेरे पास इतने पैसे नहीं है।” 

“चलो कोई बात नहीं पिता की सद्गति के लिए कुछ तो दान करना ही पड़ेगा आपको। कुछ कम कर देंगे, पाँच सौ रुपये तो होंगे आपके पास?” 

विजय चुपचाप पण्डे की बात सुनता रहा। 

“लगता है पिता पे तुम्हारी श्रद्धा बिल्कुल नहीं है। तुम्हारा कुछ तो कर्त्तव्य बनता है उनके लिए। जो कुछ था तुम्हारे लिए ही तो छोड़ गए बेचारे। अगर उसमें से थोड़ा हमें दान कर दोगे तो क्या जाता है तुहारा?” विजय अब भी चुपचाप सुनते जा रहा था। 

गंगा घाट बस बीस क़दमों की दूरी पे था। पण्डा अपना आपा खो बैठा था। 

“बड़े निकम्मे पुत्र हो। मरे बाप की कमाई अकेले खाना चाहते हो।”

पण्डे की बेतुकी बातें सुनते-सुनते विजय का संयम टूट चुका था। उसने पण्डे के हाथों से अपने पिता का अस्थि-कलश छीन लिया था और पण्डे की ओर देखते हुए बोला, “पिता जी मेरे थे। आप कौन होते हैं उनकी कमाई का हिस्सा माँगने वाले। मेरी श्रद्धा से मैं यहाँ आया हूँ और दान भी अपनी श्रद्धा से ही देता। पर अब तुम्हारी बातें सुनकर तो वो भी नहीं करूँगा और न ही आगे आने वाली पीढ़ियों को करने दूँगा।” यह कहकर वह गंगा में उतर गया। 

मैया के जयकारे के संग एक नई परम्परा बनाते हुए उसने पिता के फूल गंगा माँ की गोद में अर्पित कर दिये थे। वहीं दूसरी ओर किनारे खड़ा पण्डा इस 'नई परम्परा' से अपना धन्धा चौपट होते देख रहा था। 

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