इतिहास की परतों में छुपी स्त्री, संस्कृति और सभ्यता का पुनर्पाठ: राखीगढ़ी—भारत की स्त्री-केंद्रित सभ्यता की झलक
प्रियंका सौरभ
-प्रियंका
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार(हरियाणा)-125001
(मो.)- 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप)
ईमेल- priyankasaurabh9416@gmail.com
शीर्षक (Title):
इतिहास की परतों में छुपी स्त्री, संस्कृति और सभ्यता का पुनर्पाठ: राखीगढ़ी—भारत की स्त्री-केंद्रित सभ्यता की झलक
सारांश (Abstract):
राखीगढ़ी, हरियाणा के हिसार ज़िले में स्थित हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा पुरातात्विक स्थल है, जिसकी खोजों ने भारतीय इतिहास को नए दृष्टिकोण से देखने की प्रेरणा दी है। इस स्थल से प्राप्त 4600 वर्ष पुराने महिला कंकाल, शंख की चूड़ियाँ, अग्निवेदिकाएँ और ताम्र नृत्यांगना की प्रतिमा यह दर्शाते हैं कि उस सभ्यता में स्त्री केवल सामाजिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक संरचना की धुरी थी। डीएनए विश्लेषणों ने जहाँ आर्य आक्रमण सिद्धांत को खंडित किया है, वहीं भारतीय सभ्यता की सांस्कृतिक निरंतरता का प्रमाण भी प्रस्तुत किया है। यह शोधपत्र राखीगढ़ी के माध्यम से स्त्री, संस्कृति और सभ्यता के पुनर्पाठ का प्रयास करता है, जो भारतीय इतिहास की स्त्रीगत धारा को पुनर्स्थापित करता है।
कीवर्ड्स (Keywords):
राखीगढ़ी, स्त्री-केंद्रित सभ्यता, हड़प्पा, आर्य आक्रमण सिद्धांत, पुरातत्व, सांस्कृतिक निरंतरता, शंख की चूड़ियाँ, नृत्यांगना, अग्निवेदिका, वैदिक परंपरा, जीनोमिक अध्ययन, पाठ्यक्रम सुधार
1. परिचय (Introduction):
राखीगढ़ी, एक समय हरियाणा के हिसार ज़िले का सामान्य सा गाँव, आज वैश्विक पुरातात्विक मानचित्र पर भारत की सांस्कृतिक विरासत के एक महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में उभरकर सामने आया है। 7000 वर्ष पुरानी इस बस्ती की खुदाई ने न केवल भारतीय पुरातत्वशास्त्र को एक नया दृष्टिकोण दिया है, बल्कि स्त्री की ऐतिहासिक भूमिका को पुनः केंद्र में लाकर खड़ा किया है। विशेषकर यहाँ से प्राप्त महिला कंकाल पर मिली शंख की चूड़ियाँ, अग्निवेदिकाएँ, और नृत्यांगना जैसी कलात्मक संरचनाएँ इस बात की ओर संकेत करती हैं कि क्या हम एक ऐसी सभ्यता की संतति हैं, जिसमें स्त्री केवल सहचर नहीं, बल्कि संस्कृति की वाहिका और संरक्षिका थी? यह आलेख इन्हीं प्रश्नों की तह में जाकर एक पुनर्पाठ प्रस्तुत करता है।
विषय प्रवेश:
इतिहास की परतों में छुपी स्त्री, संस्कृति और सभ्यता का पुनर्पाठ
राखीगढ़ी: भारत की स्त्री-केंद्रित सभ्यता की झलक
हरियाणा स्थित राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा स्थल है, जहाँ से मिले 4600 साल पुराने महिला कंकाल, शंख की चूड़ियाँ और ताम्र नृत्यांगना की प्रतिमा सभ्यता में स्त्री की केंद्रीय भूमिका को रेखांकित करते हैं। डीएनए विश्लेषण ने ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ पर सवाल उठाए हैं और भारत की सांस्कृतिक निरंतरता को सिद्ध किया है। राखीगढ़ी अब केवल एक पुरातात्विक खोज नहीं, बल्कि भारत के अतीत की आत्मा से संवाद का जीवंत माध्यम है।
हरियाणा के हिसार ज़िले का एक सामान्य-सा गाँव राखीगढ़ी, अब वैश्विक पुरातात्विक विमर्शों का केंद्र बन चुका है। 1997-99 के दौरान हुए उत्खननों ने इसे हड़प्पा सभ्यता के सबसे बड़े स्थलों में गिना जाना शुरू किया, और 2012 में विश्व विरासत कोष की ‘ख़तरे में पड़ी धरोहरों’ की सूची में इसकी उपस्थिति ने वैश्विक ध्यान खींचा। परन्तु इसके बाद जो मिला—एक महिला का 4600 वर्ष पुराना कंकाल, उसके बाएँ हाथ की शंख की चूड़ियाँ, और ताम्र की बनी एक नृत्यांगना प्रतिमा—उन सभी ने इतिहास और पुरातत्व के स्थापित आख्यानों को चुनौती देना शुरू कर दिया।
राखीगढ़ी से मिला स्त्री कंकाल सिर्फ़ एक पुरातात्विक खोज नहीं है, यह उन असंख्य ‘मौन स्त्रियों’ की प्रतीकात्मक उपस्थिति है जिन्हें सभ्यता की कहानी से सदा बाहर रखा गया। यह कंकाल लगभग 4600 वर्ष पुराना है, और अद्भुत रूप से संरक्षित अवस्था में मिला। उसकी बाईं कलाई पर शंख की चूड़ियाँ मिलीं—यह उस समय के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों की ओर संकेत करती हैं। डीएनए विश्लेषण से यह पता चला कि इस महिला के आनुवंशिक सम्बन्ध प्राचीन ईरानियों और दक्षिण-पूर्व एशियाई शिकारी-संग्राहकों से तो हैं, लेकिन स्टेपी चरवाहों से कोई सम्बन्ध नहीं मिला—जिनसे अक्सर भारत में आर्यों के आगमन को जोड़ा जाता है। यह निष्कर्ष ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ को एक बड़ा झटका देता है और यह संकेत देता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में सांस्कृतिक विकास अपनी निरंतरता में हुआ। मोहेंजोदाड़ो की विश्वप्रसिद्ध कांस्य नर्तकी की तरह, राखीगढ़ी से भी एक ताम्र प्रतिमा मिली है जिसे “डांसिंग गर्ल” कहा जा रहा है। यह मूर्ति न केवल सौंदर्यबोध और कलात्मकता का प्रमाण है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि उस काल में नारी की उपस्थिति सांस्कृतिक और सार्वजनिक जीवन में कितनी सशक्त रही होगी। यह मान्यता को चुनौती देती है कि प्राचीन सभ्यताओं में स्त्रियाँ केवल घरेलू क्षेत्र में सीमित थीं।
कंकाल मिलने के स्थल पर अग्निवेदिकाओं के अवशेष भी मिले हैं, जो यह संकेत करते हैं कि शवदाह की परंपरा उस समय भी प्रचलित थी। अग्नि, जिसे वैदिक परंपरा में शुद्धिकरण और संस्कार का प्रतीक माना गया है, उसका हड़प्पा काल में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान होना यह दर्शाता है कि वैदिक और हड़प्पा परम्पराएँ एक-दूसरे से पूर्णतः असंबंधित नहीं थीं। कुछ विद्वान मानते हैं कि महाभारत युद्ध लगभग 5000-5500 वर्ष पूर्व हुआ था। यदि यह मान लिया जाए, तो राखीगढ़ी की स्थापना इस युद्ध से पहले की मानी जा सकती है। एक किंवदंती यह भी है कि महाभारत युद्ध में वीरगति को प्राप्त सैनिकों की विधवाएँ यहीं शरण लेने आई थीं, और यही से इस स्थान का नाम 'राखीगढ़ी' पड़ा—‘राख’ यानी मृत्यु की राख, और ‘गढ़ी’ यानी शरण। ऐसी मिथकीय व्याख्याएँ ऐतिहासिक सत्य नहीं हैं, परन्तु वे यह दर्शाती हैं कि स्थानीय जनमानस में राखीगढ़ी की सांस्कृतिक स्मृति कितनी गहरी है।
राखीगढ़ी से मिले महिला कंकाल का जीनोमिक विश्लेषण केवल पुरातत्व नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास-लेखन में एक बड़ा मोड़ है। स्टेपी डीएनए की अनुपस्थिति सीधे उस विचारधारा को चुनौती देती है जिसने लंबे समय तक ‘आर्य आक्रमण’ को भारत में सभ्यता के आगमन का कारण बताया। इस अध्ययन ने इतिहास, नृविज्ञान और भाषाविज्ञान के विशेषज्ञों को एक बार फिर यह सोचने पर विवश किया है कि क्या आर्य बाहर से आए थे या यहीं के थे? क्या वैदिक संस्कृति और हड़प्पा संस्कृति में कोई ‘टकराव’ नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक प्रवाह था?
राखीगढ़ी की खोजों के परिणाम अब एनसीईआरटी जैसे शैक्षिक निकायों के पाठ्यक्रम में भी दिखाई दे रहे हैं। हड़प्पा सभ्यता को अब केवल एक ‘अतीत’ नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की निरंतरता के रूप में पढ़ाया जा रहा है। संस्कृत भाषा की उत्पत्ति, द्रविड़ भाषाओं के विकास और हड़प्पावासियों की भाषा पर भी अब नए सिरे से अध्ययन हो रहे हैं। यह केवल पुरातत्व नहीं, राष्ट्र की आत्मा की खोज है। 2012 में वर्ल्ड मॉन्यूमेंट फ़ंड ने राखीगढ़ी को एशिया के उन 10 धरोहर स्थलों में शामिल किया जो विनाश के कगार पर हैं। अफ़ग़ानिस्तान का मेस आयनाक, चीन का काशगर और थाईलैंड का अयुथ्या भी इस सूची में शामिल हैं। भारत में अक्सर पुरातत्व स्थलों को विकास के नाम पर या अनदेखी की वजह से नुक़्सान पहुँचता है। राखीगढ़ी का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम इसे पर्यटन केंद्र मात्र बनाना चाहते हैं या जीवित शोध प्रयोगशाला। राखीगढ़ी की महिला चुप है, पर उसकी चूड़ियाँ बोलती हैं। उसका सिर उत्तर की ओर है—शायद भविष्य की ओर, या शायद प्रश्न की ओर। ‘डांसिंग गर्ल’ स्थिर है, फिर भी आंदोलित करती है। यह स्थल अब सिर्फ़ पुरातत्व नहीं, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और अस्मिता की बहस का हिस्सा बन चुका है।
यह सवाल केवल अतीत को जानने का नहीं है, यह तय करने का भी है कि हम किस अतीत को स्वीकार करते हैं—लादे गए इतिहास को या खोजे गए इतिहास को? राखीगढ़ी केवल मिट्टी में दबा कोई पुराना नगर नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की उस जड़ का नाम है जिसे सदियों से अनदेखा किया गया। यहाँ से मिली महिला की चूड़ियाँ, नृत्यांगना की प्रतिमा और अग्निवेदियाँ हमें यह बताती हैं कि हड़प्पा काल कोई पुरुष-प्रधान, युद्ध-केंद्रित समाज नहीं था—यह एक सांस्कृतिक, स्त्री-केंद्रित और समृद्ध सभ्यता थी। डीएनए विश्लेषणों ने न केवल आर्य आक्रमण सिद्धांत की पुनर्व्याख्या की है, बल्कि भारत के भीतर एक जैविक-सांस्कृतिक निरंतरता की पुष्टि भी की है। राखीगढ़ी हमारे अतीत की वह भूली हुई स्त्रीगाथा है, जिसे अब इतिहास की मुख्यधारा में स्थान मिलना चाहिए—सम्मान के साथ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से।
2. समीक्षित साहित्य (Review of Literature):
भारतीय इतिहास में आर्य आक्रमण सिद्धांत का वर्चस्व रहा है, जो यह मानता है कि आर्य मध्य एशिया से भारत आए और उन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता को विस्थापित किया। इस मत को मैक्समूलर, मॉर्टिमर व्हीलर जैसे पाश्चात्य विद्वानों ने 19वीं शताब्दी में प्रस्तुत किया और लंबे समय तक यह औपनिवेशिक इतिहासलेखन का आधार बना रहा।
हालाँकि, रोमिला थापर, इरावती कर्वे, डेविड फ्रॉली, जे.एम. केनोयर और वसंत शिंदे जैसे विद्वानों ने विभिन्न दृष्टिकोणों से हड़प्पा और वैदिक सभ्यताओं की व्याख्या की है। इरावती कर्वे ने अपने मानवशास्त्रीय अध्ययनों में स्त्री की भूमिका को नकारा नहीं, जबकि फ्रॉली ने भारतीय संस्कृति की मूल स्थानीयता पर बल दिया।
2019 में ‘Cell’ पत्रिका में प्रकाशित वसंत शिंदे और उनकी टीम के जीनोमिक शोध ने यह निष्कर्ष निकाला कि राखीगढ़ी की महिला के डीएनए में स्टेपी (यूरोपीय) मूल के जीन नहीं हैं। यह सिद्धांत भारतीय सांस्कृतिक निरंतरता को बल देता है और आर्य आक्रमण की अवधारणा को कमज़ोर करता है।
3. अध्ययन की आवश्यकता और उद्देश्य (Need and Objectives of the Study):
यह शोध इसलिए आवश्यक है क्योंकि:
राखीगढ़ी से प्राप्त स्त्री केंद्रित अवशेष हमें इतिहास के उस पक्ष की जानकारी देते हैं, जिसे अब तक अनदेखा किया गया है।
यह खोज आर्य आक्रमण सिद्धांत की पुनर्व्याख्या की माँग करती है।
भारतीय सभ्यता की सांस्कृतिक और जैविक निरंतरता को प्रमाणित करने की दिशा में यह एक ठोस क़दम है।
स्त्री को केवल देवी, पत्नी या उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि इतिहास की रचयिता के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है।
इस शोध का मुख्य उद्देश्य:
राखीगढ़ी की महिला केंद्रित पुरातात्विक खोजों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करना।
जीनोमिक अध्ययन के माध्यम से सांस्कृतिक निरंतरता को रेखांकित करना।
स्त्री की ऐतिहासिक भूमिका को नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना।
पाठ्यक्रम और इतिहास लेखन में स्त्री दृष्टिकोण को सम्मिलित करने की अनुशंसा करना।
4. शोध पद्धति (Methodology):
यह शोध वर्णनात्मक-विश्लेषणात्मक (Descriptive-Analytical) पद्धति पर आधारित है, जिसमें निम्नलिखित स्रोतों का उपयोग किया गया:
राखीगढ़ी उत्खनन की आधिकारिक रिपोर्टें (ASI, 2013–2019)
जीनोमिक अध्ययन: वसंत शिंदे et al. (2019)
एनसीईआरटी इतिहास पाठ्यपुस्तकें (2024 संस्करण)
मीडिया रिपोर्ट्स: द हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस, बीबीसी हिंदी
साक्षात्कार: पुरातत्वविद, ग्रामीण महिलाएँ, और इतिहासकार
सेकेंडरी साहित्य: फ्रॉली, थापर, कर्वे, केनोयर आदि के लेख और पुस्तकें
5. विश्लेषण और चर्चा (Analysis and Discussion):
5.1 स्त्री की केंद्रीय भूमिका:
राखीगढ़ी से प्राप्त महिला कंकाल पर मिली शंख की चूड़ियाँ और उनकी स्थिति यह दर्शाती हैं कि स्त्री न केवल सामाजिक जीवन में सम्मानित थी, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक क्रियाओं में भी उसकी भूमिका प्रमुख थी।
यह संकेत करता है कि उस काल की सभ्यता में विवाह, सौंदर्य और शक्ति का प्रतीक स्त्री ही थी। नृत्यांगना की ताम्र प्रतिमा इस बात की पुष्टि करती है कि स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन में भाग लेती थीं, प्रदर्शन कला में दक्ष थीं और सामाजिक संरचना में उनकी विशिष्ट भूमिका थी।
5.2 सांस्कृतिक निरंतरता बनाम आर्य आक्रमण सिद्धांत:
राखीगढ़ी की महिला के डीएनए में स्टेपी मूल का डीएनए नहीं पाया गया, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हड़प्पा के निवासी मूल भारतीय थे और उनमें आर्य बाहर से नहीं आए थे, बल्कि वे यहीं के जैविक व सांस्कृतिक उत्तराधिकारी थे।
यह निष्कर्ष भारतीय सभ्यता की निरंतरता को प्रमाणित करता है और उपनिवेशी इतिहासलेखन की कई मान्यताओं को चुनौती देता है।
5.3 अग्निवेदिकाएँ और वैदिक प्रभाव:
राखीगढ़ी में मिली अग्निवेदिकाओं की संरचना–गोल और वर्गाकार अग्निकुंड–वैदिक यज्ञ परंपराओं से मिलती-जुलती हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि हड़प्पा और वैदिक संस्कृति के बीच कोई असंगति नहीं थी, बल्कि एक जैविक व सांस्कृतिक संवाद था।
5.4 मिथकीय व्याख्याएँ और लोक स्मृति:
राखीगढ़ी गाँव में बुज़ुर्ग महिलाएँ आज भी यह कहती हैं कि “महाभारत युद्ध के बाद विधवाएँ यहाँ आकर बसी थीं।” यद्यपि यह ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित नहीं है, परन्तु यह सांस्कृतिक स्मृति और जनसंचालित इतिहास का उदाहरण अवश्य है। ऐसी लोककथाएँ समाज की मानसिक संरचना में गहरे रूप से समाई होती हैं।
5.5 पाठ्यक्रम और वैचारिक परिवर्तन:
एनसीईआरटी द्वारा 2024 में किए गए संशोधनों में राखीगढ़ी को विशेष स्थान मिला है। यह केवल शैक्षणिक बदलाव नहीं, बल्कि वैचारिक क्रांति है–इतिहास को पाश्चात्य दृष्टिकोण से निकालकर भारतीय अनुभव की दृष्टि से पुनः रचना का प्रयास।
6. निष्कर्ष (Conclusion):
राखीगढ़ी की खोजों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय सभ्यता केवल पुरुष-केंद्रित या युद्धोन्मुख नहीं थी, बल्कि वह स्त्री-केंद्रित, सांस्कृतिक, और कलात्मक रूप से परिपक्व थी। यहाँ की स्त्रियाँ केवल घर की रक्षक नहीं थीं, बल्कि संस्कृति की संरक्षिका, कलाओं की वाहक और समाज की आत्मा थीं।
जीनोमिक अध्ययन और पुरातात्विक खोजों ने इस बात को सिद्ध किया है कि भारत की सांस्कृतिक परंपरा में कोई बड़ा बाहरी व्यवधान नहीं आया, बल्कि यह एक निरंतर प्रवाह रही है।
राखीगढ़ी का अध्ययन इतिहास के उस पक्ष को उजागर करता है जो वर्षों तक छाया में रहा–स्त्री का पक्ष। यह स्थल केवल ईंटों का ढेर नहीं, बल्कि भारतीय स्त्री के गौरव, योगदान और सांस्कृतिक अधिकार की गवाही है।
7. सुझाव (Suggestions/Recommendations):
राखीगढ़ी को एक राष्ट्रीय शोध और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित किया जाए।
स्कूल और विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में स्त्री केंद्रित इतिहास और पुरातत्व को स्थान दिया जाए।
अन्य हड़प्पा स्थलों पर भी डीएनए परीक्षण और सांस्कृतिक विश्लेषण किया जाए।
लोककथाओं और पुरातात्विक साक्ष्यों के मध्य संवाद को बढ़ावा देने के लिए इंटरडिसिप्लिनरी अध्ययन हों।
राखीगढ़ी को केवल एक पर्यटन स्थल नहीं, बल्कि एक जीवंत संग्रहालय और शोधशाला के रूप में प्रस्तुत किया जाए।
ग्रामीण महिलाओं को इन पुरावशेषों की व्याख्या और संरक्षण में सक्रिय भागीदार बनाया जाए।
भारतीय इतिहास लेखन में स्त्री की भूमिका को पुनः केंद्र में लाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर संगोष्ठियाँ आयोजित की जाएँ।
डिजिटल माध्यमों पर राखीगढ़ी के शोध को जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत किया जाए, जिससे नई पीढ़ी अपने अतीत से जुड़ सके।
8. संदर्भ सूची (References):
-
Shinde, Vasant et al. (2019). Ancient DNA from the Indus Valley Civilization site of Rakhigarhi. Cell Press.
-
Kenoyer, J. Mark. (2000). Ancient Cities of the Indus Valley Civilization.
-
एनसीईआरटी इतिहास की पाठ्यपुस्तकें (2024 संस्करण).
-
World Monuments Fund (2012). Watch List of Endangered Sites.
-
Romila Thapar (2003). The Penguin History of Early India.
-
David Frawley. (2001). The Myth of the Aryan Invasion of India.
-
Dr. Iravati Karve–Indian Society: A Human Anthropological Study.
-
Indian Express, The Hindu, BBC Hindi–राखीगढ़ी संबंधित विशेष रिपोर्ट.
-
मीडिया साक्षात्कार: वसंत शिंदे, राखीगढ़ी ग्रामीण महिलाएँ।
-
हरियाणा पुरातत्व विभाग की वार्षिक रिपोर्ट (2021–2024)।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- शोध निबन्ध
- कविता
-
- अभी तो मेहँदी सूखी भी न थी
- ऑपरेशन सिंदूर
- किसी को उजाड़ कर बसे तो क्या बसे
- गिनती की बात
- गिरगिट ज्यों, बदल रहा है आदमी!
- छोड़ो व्यर्थ पानी बहाना . . .
- नए सवेरे की आग़ोश में
- नए साल का सूर्योदय, ख़ुशियों के उजाले हों
- नगाड़े सत्य के बजे
- पहलगाम की चीख़ें
- फागुन में यूँ प्यार से . . .
- बचपन का गाँव
- बड़े बने ये साहित्यकार
- भेद सारे चूर कर दो
- मत करिये उपहास
- माँ
- मुस्कान का दान
- मैं पिछले साल का पौधा हूँ . . .
- राष्ट्रवाद का रंगमंच
- शब्दों से पहले चुप्पियाँ थीं
- शीलहरण की कहे कथाएँ
- सबके पास उजाले हों
- समय सिंधु
- सामाजिक आलेख
-
- अयोध्या का ‘नया अध्याय’: आस्था का संगीत, इतिहास का दर्पण
- क्या 'द कश्मीर फ़ाइल्स' से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के चश्मे को उतार पाएँगे?
- क्यों नहीं बदल रही भारत में बेटियों की स्थिति?
- खिलौनों की दुनिया के वो मिट्टी के घर याद आते हैं
- खुलने लगे स्कूल, हो न जाये भूल
- जलते हैं केवल पुतले, रावण बढ़ते जा रहे?
- जातिवाद का मटका कब फूटकर बिखरेगा?
- टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव
- दिवाली का बदला स्वरूप
- दफ़्तरों के इर्द-गिर्द ख़ुशियाँ टटोलते पति-पत्नी
- नया साल सिर्फ़ जश्न नहीं, आत्म-परीक्षण और सुधार का अवसर भी
- नया साल, नई उम्मीदें, नए सपने, नए लक्ष्य!
- नौ दिन कन्या पूजकर, सब जाते हैं भूल
- पुरस्कारों का बढ़ता बाज़ार
- पृथ्वी की रक्षा एक दिवास्वप्न नहीं बल्कि एक वास्तविकता होनी चाहिए
- पृथ्वी हर आदमी की ज़रूरत को पूरा कर सकती है, लालच को नहीं
- बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने की ज़रूरत
- बिखर रहे चूल्हे सभी, सिमटे आँगन रोज़
- महिलाओं की श्रम-शक्ति भागीदारी में बाधाएँ
- मातृत्व की कला बच्चों को जीने की कला सिखाना है
- वायु प्रदूषण से लड़खड़ाता स्वास्थ्य
- समय न ठहरा है कभी, रुके न इसके पाँव . . .
- स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग
- हिंदी साहित्य की आँख में किरकिरी: स्वतंत्र स्त्रियाँ
- दोहे
- काम की बात
- लघुकथा
- सांस्कृतिक आलेख
-
- जीवन की ख़ुशहाली और अखंड सुहाग का पर्व ‘गणगौर’
- दीयों से मने दीवाली, मिट्टी के दीये जलाएँ
- नीरस होती, होली की मस्ती, रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली
- फीके पड़ते होली के रंग
- भाई-बहन के प्यार, जुड़ाव और एकजुटता का त्यौहार भाई दूज
- रहस्यवादी कवि, समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरु थे संत रविदास
- समझिये धागों से बँधे ‘रक्षा बंधन’ के मायने
- सौंदर्य और प्रेम का उत्सव है हरियाली तीज
- हनुमान जी—साहस, शौर्य और समर्पण के प्रतीक
- स्वास्थ्य
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- चिन्तन
- विडियो
-
- ऑडियो
-