मैं बिंदी हूँ, मौन की ज्वाला
डॉ. प्रियंका सौरभ
माथे पर चुप बैठी मैं,
जैसे चाँदनी का एक बिंब–
किन्तु पूछते हो मुझसे,
“तुम हो कौन, इस रंग में लिपटी?”
मैं तो चुप थी वर्षों से,
मौन की ज्वाला बनकर–
ना किया प्रतिकार कभी,
ना तोड़ी कोई परंपरा।
मैं बिंदी हूँ–
स्त्री की उस पहली पुकार की
जो किसी आरती की थाली से नहीं,
उसकी चुप पीड़ा से जन्मी।
तुम्हारी आँखों को खटकती क्यों है
मेरी धड़कन की यह लालिमा?
क्या अस्तित्व का कोई रंग नहीं होता?
मेरे माथे पर जो बिंदी है,
वह माँ की गोद से उठी आभा है,
वह दादी की कहानियों से गूँथी गई भाषा है।
क्या इसलिए मुझे विदेशी कह दोगे?
क्योंकि मैं अपनी चुप्पियों के साथ भी
अपनी संस्कृति से मुखर हूँ?
क्या अमेरिकन होने के लिए
स्वप्नों का रंग बदलना ज़रूरी है?
या अपना नाम, अपनी माँ की भाषा
छोड़ देना ही कर्त्तव्य है?
मैं तो जलती रही एक दीपक की तरह,
जिसने तुम्हारी अदालतों में न्याय को ऊष्मा दी।
तुमने मेरा न्याय नहीं देखा,
केवल मेरे माथे की बिंदी को ‘जज’ किया।
मैंने प्रश्न नहीं किया तुम्हारे सूट-बूट से,
तो तुम क्यों काँप उठे मेरी परंपरा से?
मैं बिंदी हूँ–
मौन की वह सुलगती हुई रेखा
जो हर अपमान में भी सौंदर्य ढूँढ़ लेती है।
मैं बिंदी हूँ–
स्त्री की वह पहचान जो तुम्हारे तानों से नहीं,
अपने मौन प्रतिरोध से सँवरती है।
मैं बिंदी हूँ–
जिसे मिटाया जा सकता है शरीर से,
पर आत्मा से नहीं।
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